यूपी की राजनीति में कैसे अध्यक्ष अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा हैं एक समान

राजनीति में जरूरी नहीं कि कुंडली का मिलान किया जाए, लेकिन परिस्थितियां अक्सर राजनेताओं के बीच समानताएं सामने लाती हैं, भले ही वे एक ही रास्ते पर न चल रहे हों.

अखिलेश यादव (Photo Credits : Twitter)

लखनऊ, 7 अगस्त : राजनीति में जरूरी नहीं कि कुंडली का मिलान किया जाए, लेकिन परिस्थितियां अक्सर राजनेताओं के बीच समानताएं सामने लाती हैं, भले ही वे एक ही रास्ते पर न चल रहे हों. समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने काम करने की एक शैली विकसित की है जो आश्चर्यजनक रूप से समान है और परिणाम भी ऐसा ही है. आर.के. सिंह, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक, ने कहा, अखिलेश और प्रियंका के खिलाफ सबसे आम शिकायत पार्टी कार्यकतार्ओं तक उनकी पहुंच न होना है. अखिलेश पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अपने घर और कार्यालय के दरवाजे नहीं खोलते हैं, बस केवल उन्हीं से मिलते हैं जो उनकी मंडली के सदस्य हैं. सपा के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, "अखिलेश यादव से मिलना मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने से कहीं ज्यादा मुश्किल है. विधानसभा चुनाव के दौरान भी मैंने उनके कार्यालय पर कई संदेश छोड़े लेकिन समय नहीं दिया. इस तरह का व्यवहार पार्टी के हितों के लिए हानिकारक है और असंतोष का एक प्रमुख कारण भी है."

पार्टी के नेता भी अखिलेश की मंडली पर अहंकारी होने का आरोप लगाते हैं. हाल ही में सपा नेता मोहम्मद आजम खान के बेटे अब्दुल्ला आजम ने अखिलेश से नजदीकी के लिए जाने जाने वाले पार्टी प्रवक्ता उदयवीर सिंह के बयान पर नाराजगी जताई थी. जहां अखिलेश से लोग गुस्से में हैं वहीं प्रियंका की 'टीम' से प्रदेश कांग्रेस में व्यापक आक्रोश है. प्रियंका के निजी सचिव संदीप सिंह और अन्य पार्टी के करीबी अपने अहंकार और दुर्व्यवहार के लिए जाने जाते हैं. उनके ऑडियो क्लिप जिनमें अभद्र भाषा का इस्तेमाल होता है, उन्हें पार्टी के व्हाट्सएप ग्रुपों में वायरल कर दिया जाता है. यह भी पढ़ें : भारतीय कंपनियों के लिए खुद के 5जी नेटवर्क की जरूरत का औचित्य

कांग्रेस के एक पूर्व विधायक ने कहा, "यह टीम प्रियंका और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच एक बाधा के रूप में कार्य करती है. उनकी टीम की मंजूरी के बिना कोई भी प्रियंका से नहीं मिल सकता और इसलिए, वह अब पार्टी कार्यकर्ताओ के लिए पूरी तरह से दुर्गम हैं. दिल्ली में भी, वह केवल उन्हीं से मिलती है जिनको संदीप सिंह से अनुमति है. वह हाल के महीनों में यूपी नहीं गई हैं. एक अन्य कारक जो अखिलेश और प्रियंका के बीच आम है, वह है पार्टी में वरिष्ठ नेताओं के लिए उनका तिरस्कार. दोनों ने दिग्गजों को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है और उन युवा नेताओं पर अपनी उम्मीदें टिका रहे हैं जो पार्टी की विचारधारा से परिचित भी नहीं हैं.

सपा में मुलायम सिंह युग के दिग्गज कहीं नजर नहीं आ रहे. अंबिका चौधरी, ओम प्रकाश सिंह, नारद राय जैसे नेता अपना समय दांव पर लगा रहे हैं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में, निर्मल खत्री, श्रीप्रकाश जायसवाल, अरुण कुमार सिंह मुन्ना, राज बब्बर जैसे यूपीसीसी के पूर्व अध्यक्षों को गुमनामी में धकेल दिया गया है और शेष को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया है. नतीजतन, दोनों पार्टियां दिन-ब-दिन जमीन खोती जा रही हैं. अखिलेश के नेतृत्व में सपा 2017 का विधानसभा, 2019 का लोकसभा और 2022 का विधानसभा चुनाव हार चुकी है. 2019 में प्रियंका के कमान संभालने के बाद से कांग्रेस पहले ही रॉक बॉटम पर पहुंच चुकी है.

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