HC On Divorce: कलकत्ता हाईकोर्ट ने मानसिक क्रूरता के आधार पर तलाक लेने का पति का हक बरकरार रखा
पत्नी की मानसिक क्रूरता के आधार पर शादी ताड़ने के निचली अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सौमेन सेन और न्यायमूर्ति उदय कुमार की खंडपीठ ने कहा कि भारतीय संस्कृति के अनुसार, पति अपने माता-पिता के साथ रहता है और बेटे के अलग रहने के लिए कोई न्यायोचित कारण होना चाहिए.
कोलकाता, 8 अप्रैल: कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने मानसिक क्रूरता के आधार पर अपनी पत्नी से तलाक मांगने के पति के अधिकार को बरकरार रखा है, क्योंकि पत्नी पति को 'कायर' और 'बेरोजगार' बताकर उसे लगातार प्रताड़ित करती है. साथ ही, उसे अपने माता-पिता से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है. पत्नी की मानसिक क्रूरता के आधार पर शादी ताड़ने के निचली अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सौमेन सेन और न्यायमूर्ति उदय कुमार की खंडपीठ ने कहा कि भारतीय संस्कृति के अनुसार, पति अपने माता-पिता के साथ रहता है और बेटे के अलग रहने के लिए कोई न्यायोचित कारण होना चाहिए. यह भी पढ़ें: Indian Finance Minister US Visit: 10 अप्रैल से अमेरिका दौरे पर वित्त मंत्री, विश्व बैंक समूह-IMF की बैठक में होंगी शामिल
इस विशेष मामले में पश्चिमी मिदनापुर जिले की एक पारिवारिक अदालत ने जुलाई 2001 में पति द्वारा अपनी पत्नी पर मानसिक क्रूरता का आरोप लगाते हुए विवाद को स्वीकार करने के बाद विवाह को भंग कर दिया था। महिला ने उस आदेश को मई 2009 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी. पति को 'कायर' और 'बेरोजगार' बताने के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि यह पत्नी की झूठी शिकायत के कारण था कि पति ने अपनी सरकारी नौकरी खो दी थी.
अदालत ने याचिकाकर्ता की डायरी की कुछ सामग्री पर भी ध्यान दिया, जिसमें उसने बार-बार अपने पति को कायर और बेरोजगार बताया है. डायरी में उसने कई बार यह भी स्पष्ट किया था कि उसके माता-पिता के दबाव के कारण उसे उससे शादी करने के लिए मजबूर किया गया था. अदालत की टिप्पणी के अनुसार, याचिकाकर्ता ने अपनी डायरी में यह भी स्पष्ट किया था कि वह कहीं और शादी करना चाहती थी. अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में शादी सिर्फ एक कानूनी बंधन बनकर रह जाती है और इसलिए यह कल्पना के अलावा कुछ नहीं है. दलीलें सुनने के बाद खंडपीठ ने 2001 में विवाह भंग करने के पारिवारिक न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा.