BHU ने की पित्त की थैली के कैंसर के लिए जि़म्मेदार म्यूटेशन की पहचान
पित्त की थैली का कैंसर गंगा नदी के बेसिन में रहने वाली आबादी में काफी अधिक देखने को मिलता है. विश्व में पहली बार बीएचयू ने पित्त की थैली के कैंसर के विकास के लिए प्रमुख रूप से जि़म्मेदार म्यूटेशन को खोज निकाला है.
नई दिल्ली, 30 अगस्त : पित्त की थैली का कैंसर गंगा नदी के बेसिन में रहने वाली आबादी में काफी अधिक देखने को मिलता है. विश्व में पहली बार बीएचयू ने पित्त की थैली के कैंसर के विकास के लिए प्रमुख रूप से जि़म्मेदार म्यूटेशन को खोज निकाला है. यह कैंसर ज्यादातर 45 वर्ष से अधिक आयु वाली महिलाओं में पाया जाता है, पुरुषों की तुलना में यह महिलाओं में 5 गुना अधिक होता है. शुरूआती अवस्था में कोई लक्षण न होने के कारण यह कैंसर देरी से पता चलता है. पित्ताशय के कैंसर की जिंदा रहने की दर 10-20 प्रतिशत ही है. मानव शरीर में पित्त की थैली यानि गॉलब्लेडर का कार्य पित्त को संग्रहित करना तथा भोजन के बाद पित्त नली के माध्यम से छोटी आंत में पित्त का स्त्राव करना है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) स्थित सर सुंदरलाल चिकित्सालय में आने वाले मरीजों में करीब 5 प्रतिशत मरीज पित्त की थैली के कैंसर से पीड़ित होते हैं.
काशी हिन्दू विश्वविध्यालय में गत 25 वर्षों से इस कैंसर पर शोध हो रहा है, जिसमें इसके कारकों का पता लगाने पर अध्ययन किया जा रहा है. हेवी मेटल और टाइफॉइड कैरियर को भी इस कैंसर के कारकों में माना जाता है. विश्वविद्यालय स्थित चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सर्जिकल ऑन्कोलॉजी में प्रोफेसर मनोज पाण्डेय की अगुवाई में एक शोध दल ने विश्व में पहली बार पित्त की थैली के कैंसर के ड्राइवर म्यूटेशन (वह म्यूटेशन जो इस कैंसर के विकास के लिए प्रमुख रूप से जि़म्मेदार हैं) को खोज निकाला है. वर्ष 2016 में शुरू किए गए शोध में पित्ताशय कैंसर के 33 मरीजों के अध्ययन में 27 सोमैटिक म्यूटेशन पाए गए, जो 14 प्रमुख जीन में मिले. इनमें से सबसे ज्यादा पी53 और केआरएएस जीन में मिले. इस शोध दल में डॉ. सत्यविजय चिगुरुपति, डॉ. रोली पुरवर, मोनिका राजपूत तथा डॉ. मृदुला शुक्ला शामिल हैं. इस अध्ययन के नतीजे प्रतिष्ठित विज्ञान शोध पत्रिका मॉलेक्युलर बायोलॉजी रिपोर्ट्स के हाल ही के अंक में प्रकाशित हुए हैं.
बायोइन्फोर्मेटिक अध्ययन के दौरान पाथवे (कोशिकाओं के बीच अंतर्सबंध व सम्पर्क) और इन पाथवे के बीच क्रॉस टॉक की पहचान की गई. अध्ययन के दौरान सामने आया कि आपसी सम्पर्क कर रही कोशिकाओं व पाथवे के बीच जटिल अंतसंर्बंध होता है, जिसकी वजह से एमटीओआर सिग्नल के माध्यम से पित्ताशय के कैंसर का विकास होता है, ऐसे में एमटीओआर (एक प्रकार का जीन) केन्द्रित उपचार इस प्रकार के कैंसर के उपाय का कारगर विकल्प हो सकता है. यूं तो एमटीओआर के असर को कम करने वाले अणु अन्य उपचारों के लिए स्वीकृत व उपलब्ध हैं, किंतु पित्ताशय के कैंसर के लिए अभी तक इनका इस्तेमाल नहीं हुआ है.
प्रो. मनोज पांडे के अनुसार पित्ताशय के कैंसर के ड्राइवर म्यूटेशन की पहचान पहली बार की गई है, जिससे इस संबंध में लंबे समय से चल रही कशमकश का काफी हद तक समाधान भी मिल पाया है. हालांकि, उन्होंने कहा कि यह अभी भी शोध का विषय है कि इस भौगोलिक क्षेत्र में ही इस प्रकार के म्युटेशन क्यों हो रहे हैं. यह भी पढ़ें : MP की सच्चाई, हर तीन घंटे में एक मासूम से दुष्कर्म- कमल नाथ
प्रो. पांडे बताते हैं कि यह अध्ययन पित्ताशय के कैंसर के उपचार में एवरोलीमस तथा टेमसिरोलीमस दवाओं के इस्तेमाल की राह दिखाता है. ये दोनों दवाएं एमटीओआर के असर को कम करती हैं तथा ट्यूमर कोशिकाओं के विकास व विस्तार को रोकने में असरदार हैं. फिलहाल इनका उपयोग स्तन कैंसर, न्यूरो एन्डोक्राइन कैंसर और गुर्दे के कैंसर में किया जाता है.
प्रो. पांडे के शोध दल ने पित्ताशय के कैंसर में एमटीओआर को नियंत्रित करने वाली दवाओं के बारे में क्लिनीकल ट्रायल के बारे में एक प्रस्ताव दिया है. अगर यह सफल होता है तो यह पित्ताशय के कैंसर, जिसे अब तक लाइलाज बीमारी समझा जाता है, से पीड़ित रोगियों के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर आएगा.