सबसे बड़े केस में भारत ने यूएन कोर्ट को दी चेतावनी
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सामने आए इतिहास के सबसे बड़े मुकदमे में भारत, चीन और अमेरिका ने नए कानून ना बनाने को कहा है. लगभग 100 देशों की अपील पर आईसीजे जलवायु परिवर्तन पर कानून बनाने के मुकदमे की सुनवाई कर रहा है.भारत ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में जलवायु परिवर्तन पर नए कानून बनाने का विरोध किया है. भारत ने कहा कि मौजूदा अंतरराष्ट्रीय ढांचा पर्याप्त है. भारत के इस रुख ने छोटे और कमजोर द्वीपीय देशों को नाराज कर दिया है, जो अदालत से सख्त दिशा-निर्देश चाहते हैं.

भारत के प्रतिनिधि लूथर रंगरेजी ने अदालत में कहा, "अदालत को मौजूदा जलवायु परिवर्तन व्यवस्था से परे कोई नया दायित्व तय नहीं करना चाहिए."

भारत, चीन और अमेरिका जैसे बड़े उत्सर्जक देशों ने अदालत में अपनी बात रखते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) पर्याप्त है. रंगरेजी ने इसे "संतुलित" बताते हुए कहा कि यह ढांचा लगभग सभी देशों द्वारा स्वीकार किया गया है.

भारत का संतुलन साधने का दावा

भारत ने जोर दिया कि वह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए "महत्त्वाकांक्षी कदम" उठा रहा है. लेकिन उसने विकसित देशों पर जलवायु वित्त और तकनीक देने में विफल रहने का आरोप लगाया.

रंगरेजी ने कहा, "भारत अपने घरेलू संसाधनों से जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई कर रहा है लेकिन हम अपने नागरिकों पर अनावश्यक बोझ नहीं डाल सकते. हमारे पास सीमित साधन हैं और हमें 1.4 अरब लोगों की जरूरतों का भी ख्याल रखना है."

भारत का लक्ष्य है कि 2030 तक 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता हासिल की जाए. साथ ही, भारत 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिल करने की योजना पर काम कर रहा है. यह लक्ष्य पश्चिमी औद्योगिक देशों के मुकाबले 20 साल बाद का है.

द्वीपीय देशों की गुहार

वहीं, छोटे द्वीपीय देशों ने कोर्ट से अपील की कि वह सख्त नियम तय करे ताकि बड़े प्रदूषणकारी देश जवाबदेह बनें. वानुआतु के अटॉर्नी-जनरल आर्नल्ड कील लफमैन ने कहा, "हमारे लोगों का अस्तित्व खतरे में है. घरेलू कानूनी रास्ते नाकाफी हैं. इसलिए हम यहां न्याय मांगने आए हैं."

उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन से मानवाधिकारों पर असर पड़ रहा है. लफमैन ने कहा, "देशों का दायित्व है कि वे पर्यावरण को नुकसान से बचाएं, उत्सर्जन कम करें और छोटे देशों की मदद करें."

अदालत को बताया गया कि 2023 तक समुद्र का स्तर औसतन 4.3 सेंटीमीटर बढ़ चुका है. कुछ क्षेत्रों में यह और ज्यादा है. इसके अलावा, औद्योगिक युग से अब तक वैश्विक तापमान 1.3 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है.

वानुआतु के राजदूत राल्फ रेगेनवानु ने कहा, "1990 से उत्सर्जन 50 फीसदी बढ़ गया है और इसका सबसे ज्यादा नुकसान छोटे देशों को हो रहा है."

फ्रांस ने आईसीजे से जलवायु कानून को "स्पष्ट और प्रभावी" बनाने की अपील की. फ्रांस के प्रतिनिधि डिएगो कोस्टा ने कहा, "यह अदालत दुनिया को एक साफ कानूनी दिशा दिखा सकती है."

फ्रांस का कहना है कि जलवायु संकट के कारण 2100 तक उनके देश का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. इससे 10 फीसदी जीडीपी घटने और 5 लाख घरों को समुद्र का खतरा होने का अनुमान है. फ्रांस 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनने और 2030 तक उत्सर्जन में 40 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य रखता है.

इतिहास का सबसे बड़ा मामला

आईसीजे के 15 जज इस ऐतिहासिक मामले पर सुनवाई कर रहे हैं. यह अदालत के 80 साल के इतिहास का सबसे बड़ा मुकदमा है. इस पर फैसला आने में महीनों या सालों लग सकते हैं.

हालांकि, यह फैसला बाध्यकारी नहीं होगा, लेकिन छोटे देशों को न्याय दिलाने और बड़े प्रदूषक देशों पर दबाव बनाने में मददगार साबित हो सकता है.

आईसीजे यह तय करेगी कि जलवायु और पर्यावरण को बचाने के लिए देशों की कानूनी जिम्मेदारियां क्या हैं और जो देश इन जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर रहे, उनके लिए कानूनी परिणाम क्या होंगे?

'पैसिफिक आइलैंड स्टूडेंट्स फाइटिंग क्लाइमेट चेंज' संगठन की प्रमुख सिंथिया होनिउही ने कहा कि जलवायु परिवर्तन पीढ़ियों के बीच के "पवित्र अनुबंध" को तोड़ रहा है.

उन्होंने कहा, "हमारी जमीन के बिना, हमारी पहचान मिट जाएगी. भविष्य की पीढ़ियां उन देशों के फैसलों पर निर्भर हैं, जो आज सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं."

इस समूह ने ही इस मामले की शुरुआत की थी और अब यह 100 से ज्यादा देशों और संगठनों का समर्थन पा चुका है.

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जलवायु बैठक में अमीर देशों ने हर साल 300 अरब डॉलर जुटाने का वादा किया था लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जरूरत 1,300 अरब डॉलर की है.

वानुआतु के प्रतिनिधि विशाल प्रसाद ने कहा, "हमारे लिए यह अस्तित्व का सवाल है. बड़े देश अपनी जिम्मेदारी निभाएं."

वीके/एए (रॉयटर्स, एएफपी)