नयी दिल्ली, 3 जुलाई : सरकार की महत्वाकांक्षी अप्रत्यक्ष कर प्रणाली ‘माल एवं सेवा कर’ (जीएसटी) को लागू हुए पांच साल हो गए हैं. यह कर व्यवस्था एक जुलाई, 2017 की मध्यरात्रि से लागू हुई थी. जीएसटी की पांचवीं वर्षगांठ के मौके पर इस कर प्रणाली के संबंध में कर विशेषज्ञ सत्येंद्र जैन एंड एसोसिएट्स के सत्येंद्र जैन से ‘’ के पांच सवाल और उनके जवाब:
प्रश्न : जीएसटी को लागू हुए पांच साल हो गए हैं. एक कर विशेषज्ञ के रूप में इसके अब तक के सफर को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर : जीएसटी के पांच साल के दौरान अनुपालन बेहतर हुआ है, लेकिन सरकार ने इसमें बहुत बदलाव किए हैं. इसलिए सरकार के सुगमता के दावे से उलट, यह प्रणाली जटिल साबित हुई है. जीएसटी को लेकर सरकार पांच साल बाद भी ‘लर्निंग फेज’ में है. सरकार में बैठे विशेषज्ञों को बैठकर एक बार में इस प्रणाली में बदलावों के बारे में विचार करना चाहिए. बार-बार होने वाले बदलावों से कुछ हासिल नहीं होने वाला. आज हालत यह है कि पेशेवर कर विशेषज्ञ जब तक इस प्रणाली के किसी पहलू को समझते हैं, तब तक उसमें दूसरा बदलाव हो जाता है. ऐसे में व्यापारियों और आम उपभोक्ताओं की स्थिति का अंदाज लगाया जा सकता है. सरकार का ध्यान सिर्फ कर संग्रह पर है, लेकिन उसे इसके अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए. तभी यह कर प्रणाली सुगम बन पाएगी.
प्रश्न : आम उपभोक्ताओं की दृष्टि से बात करें, तो उनके लिए यह कर प्रणाली कैसी साबित हुई है?
उत्तर : ऐसा नहीं लगता कि आम उपभोक्ताओं को इससे बहुत राहत मिली है. यह प्रणाली ईमानदारी से कर चुकाने वाले छोटे कारोबारियों के लिए अधिक लाभकारी रही है. लेकिन, ऐसा देखने में आया है कि सरकार द्वारा किसी वस्तु के लिए कर की दर घटाने का लाभ उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचा. मसलन कारोबारी इनपुट कर क्रेडिट (आईटीसी) तो ले लेते हैं, लेकिन उपभोक्ताओं तक इसका लाभ नहीं पहुंचाते. बहुत कम उपभोक्ताओं को इस बात की जानकारी होगी कि वे कोई सामान खरीद रहे हैं, तो उस पर उन्हें कितना जीएसटी देना पड़ रहा है.
प्रश्न : पैकेटबंद आटे से लेकर पनीर और पेंसिल छीलने वाले शार्पनर पर भी जीएसटी लगाया जा रहा है. क्या इससे महंगाई से परेशान लोगों की दिक्कतें और नहीं बढ़ी हैं?
उत्तर : किसी भी सरकार का प्रमुख दायित्व लोगों का सामाजिक कल्याण होना चाहिए. कम से कम शिक्षा और लोगों के भोजन से जुड़ी वस्तुओं पर कर लगाते समय सरकार को इस बात का विचार करना चाहिए. यूरोपीय देशों में शिक्षा मुफ्त है, लेकिन हमारे यहां शिक्षा तो छोड़िए, इससे जुड़े छोटे-छोटे सामान पर भी कर लगता है. इसी तरह भोजन और स्वास्थ्य सुविधाएं आती हैं. इस दिशा में सरकार को सोचने की जरूरत है. सरकार कर नहीं हटा सकती, तो उसे कम से कम आम लोगों के जीवन की बेहतरी के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य पर सब्सिडी के जरिये राहत देनी चाहिए.
प्रश्न : विपक्ष जीएसटी के कई स्लैब को लेकर लगातार सरकार पर हमलावर है. हाल में कांग्रेस के नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि जीएसटी के ‘जन्म से ही इसमें खामियां’ हैं. विपक्ष जीएसटी में कर के स्लैब कम करने की मांग कर रहा है. क्या जीएसटी में कर का एक ही स्लैब होना चाहिए?
उत्तर : जिस समय जीएसटी को लाया गया था, उस समय इसके पीछे एक देश और एक कर की भावना थी. जीएसटी को लागू करने से पहले इसके एक ही स्लैब की बात हो रही थी. उस समय चर्चा थी कि जीएसटी के लिए 16 प्रतिशत का एक कर स्लैब होगा. हालांकि, यह भी एक सचाई है कि भारत में कर की एक दर सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं होगी. यानी आप महंगी गाड़ियों और स्कूटी, दोनों पर एक दर से कर नहीं लगा सकते. लेकिन, इसका भी समाधान है. सरकार कुछ उत्पादों पर सब्सिडी दे सकती है, जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों पर किया जा रहा है. अंतत: तो जीएसटी के लिए एक कर स्लैब को लागू किया ही जाना है. यह भी पढ़ें : शिवाजीराव पाटिल शिवसेना के उपनेता पद पर बरकरार : पार्टी सचिव ने ‘सामना’ की रिपोर्ट के बाद कहा
प्रश्न: केंद्र सरकार और राज्यों की दृष्टि से जीएसटी कैसा रहा है?
उत्तर: केंद्र सरकार के लिए तो यह कर प्रणाली वाकई काफी अच्छी रही है. सरकार का जीएसटी राजस्व लगातार बढ़ रहा है. जून में भी सरकार का जीएसटी संग्रह 1.44 लाख करोड़ रुपये रहा है. महामारी से अर्थव्यवस्था के उबरने के बाद इसमें और सुधार देखने को मिलेगा. आगे इसका फायदा आयकर संग्रह में भी देखने को मिलेगा. जीएसटी से सरकार को यह लाभ हुआ है कि ज्यादा से ज्यादा कारोबारी अब कर दे रहे हैं. अब ज्यादातर कारोबार पक्के बिल के साथ हो रहा है. उधर राज्यों की बात करें, तो वे इससे अधिक संतुष्ट नजर नहीं आते. राज्यों को जीएसटी के लागू होने पर राजस्व में होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए क्षतिपूर्ति व्यवस्था अब समाप्त हो गई है. जीएसटी परिषद ने अभी तक इसे आगे बढ़ाने का निर्णय नहीं लिया है. इस मामले में राज्यों की मांग जायज लगती है, क्योंकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन पांच में से दो साल से अधिक वक्त तक देश में कोरोना वायरस महामारी का प्रकोप रहा है.
राज्यों को उनकी आबादी के हिसाब से कर में हिस्सा मिलता है, इसलिए वे संतुष्ट नहीं होते. दिल्ली जैसे कुछ राज्य अधिक कर जुटाते हैं, लेकिन आबादी कम होने की वजह से उनकी कर में भागीदारी कम रहती है.