
जर्मनी में एक महीने के भीतर नई सरकार का गठन होने की उम्मीद है. इससे ऐन पहले सैकड़ों अफगान नागरिकों को जर्मनी लाने की कवायद तेज हो गई है. कौन हैं ये अफगान और सरकार उन्हें जर्मनी क्यों ला रही है?जर्मन सरकार का एक विशेष विमान 16 अप्रैल को 138 अफगान नागरिकों के साथ लाइपजिग पहुंचा. ये सभी ऐसे अफगान नागरिक हैं, जिनके बारे में आशंका है कि तालिबान उन्हें निशाना बना सकता है. अफगान नागरिकों को लेकर आया विमान विमान पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से उड़ा था. फिलहाल इन्हें दो हफ्ते तक एक विशेष शिविर में रखा जाएगा और फिर जर्मनी के अलग-अलग राज्यों में भेजा जाएगा.
इस साल जर्मनी लाए अफगान नागरिकों की यह चौथी खेप है. इन चारों मौकों को मिलाकर साल 2025 में अब तक 599 अफगान जर्मनी लाए जा चुके हैं. जर्मन विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पाकिस्तान में अभी भी करीब 2,600 अफगान नागरिक ऐसे हैं, जो तालिबान के संभावित खतरे के कारण संवेदनशील सूची में रखे गए हैं और जर्मनी लाए जाने का इंतजार कर रहे हैं.
हालांकि, मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि इन सभी लोगों को जर्मनी आने की कानूनी अनुमति पहले ही दी जा चुकी थी और अब आगे कोई नया ग्रांट जारी नहीं किया जाएगा. मंत्रालय ने यह भी बताया कि जर्मनी लाए जाने से पहले हर एक व्यक्ति की विस्तृत जांच की गई.
जर्मनी में चाकू हमले के बाद प्रवासियों पर फिर बहस तेज
जांच का संदर्भ हालिया महीनों में जर्मनी में हुए उन हमलों से जुड़ा है, जिनमें अफगानी शरणार्थियों की भूमिका रही थी. इन हमलों के बाद जर्मनी में शरण देने संबंधी नीतियों और आपराधिक पृष्ठभूमि के रिफ्यूजियों को डिपोर्ट करने में हुई कथित चूक पर बहस तेज हुई. जर्मनी के संसदीय चुनावों में भी यह बड़ा मुद्दा रहा और कई शरणार्थियों को डिपोर्ट भी किया गया.
किन परिस्थितियों में अफगानिस्तान गया जर्मनी?
अफगानिस्तान में जर्मनी की उपस्थिति का संदर्भ 9/11 से जुड़ा है. सितंबर 2001 में आतंकवादी संगठन 'अल कायदा' ने अमेरिका के ट्रेड टावर समेत चार जगहों को निशाना बनाया. अफगानिस्तान में उस वक्त अल-कायदा का सबसे बड़ा ठिकाना था. जवाबी कार्रवाई के तहत अमेरिका ने नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) के आर्टिकल पांच का इस्तेमाल किया. साझा सुरक्षा की शर्त से जुड़ा यह अनुच्छेद किसी भी सदस्य पर हमले की स्थिति में बाकी सदस्यों की सैन्य भागीदारी सुनिश्चित करता है.
जर्मनी भी इस बहुराष्ट्रीय सैन्य गठबंधन का हिस्सा है और 9/11 के बाद उसने भी अपने सैनिक अफगानिस्तान भेजे. इसी क्रम में दिसंबर 2001 में एक गठबंधन 'इंटरनेशनल सिक्यॉरिटी असिस्टेंट फोर्स' (आईएसएएफ) बना. इसमें भी जर्मनी की मुख्य भूमिका रही. अगस्त 2003 में नाटो ने आईएसएएफ का नेतृत्व संभाला. इसके बाद भी अफगानिस्तान में मौजूद अलग-अलग देशों के संख्याबल के हिसाब से जर्मनी सबसे बड़े देशों में से एक था.
आईएसएएफ के दो प्रमुख उद्देश्य थे. पहला, नई अफगान सरकार को सुरक्षा मुहैया कराना और दूसरा, अफगान सुरक्षा बलों को नए सिरे से गठित कर उन्हें प्रशिक्षित करना, ताकि वो अफगानिस्तान की सुरक्षा में आत्मनिर्भर हों और फिर कभी आतंकवादियों को वहां सुरक्षित पनाह ना मिल सके. साल 2011 से धीरे-धीरे सुरक्षा का जिम्मा अफगान फोर्सेज के सुपुर्द किया जाने लगा. 2014 खत्म होते-होते ट्रांजिशन की प्रक्रिया पूरी हो गई और इसके साथ ही आईएसएएफ का मिशन भी पूरा हुआ.
अफगानिस्तान में जर्मनी की सैन्य और नागरिक भूमिका
हालांकि, अफगानिस्तान में अन्य देशों की उपस्थिति यहां खत्म नहीं हुई. जनवरी 2015 में नाटो की अगुआई में ही 'रेजॉल्यूट सपोर्ट मिशन' (आरएसएम) का गठन किया गया. यह नॉन-कॉम्बैट मिशन था, यानी इसकी गतिविधियां सीधे-सीधे युद्ध या हथियारबंद संघर्ष से नहीं जुड़ी थीं. इसका मकसद अफगान संस्थाओं और सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देना और जरूरी मदद मुहैया कराना था. पहले आईएसएएफ और फिर आरएसएम का भाग होने के नाते 2001 से 2021 तक जर्मनी की अफगानिस्तान में उपस्थिति रही.
अप्रैल 2021 में अमेरिका के नेतृत्व में सभी सहयोगियों ने फैसला किया कि वे एक महीने के भीतर आरएसएम फोर्सेज को अफगानिस्तान से बाहर निकाल लेंगे. इसके बाद तालिबान और अफगान बलों के बीच छिड़े संघर्ष में तालिबान को नाटकीय तेजी से बढ़त मिली. इसी पृष्ठभूमि में सितंबर 2021 की शुरुआत में यह मिशन खत्म कर दिया गया.
किन अफगानों को जर्मनी लाया जा रहा है?
साल 2021 में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता में वापसी की. इसी पृष्ठभूमि में जर्मनी ने अफगान नागरिकों के लिए एक खास कार्यक्रम शुरू किया. इसके तहत, साल 2001 में अफगानिस्तान पर हुए हमले के बाद जर्मन सेना या नागरिक संस्थानों की मदद करने वाले अफगानों को मदद मुहैया कराई जाती है. ये ऐसे लोग हैं, जिनके बारे में आशंका है कि बदले की कार्रवाई में तालिबान उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है.
इनमें कई पृष्ठभूमि के अफगान शामिल हैं. मसलन, अफगानिस्तान में सक्रिय जर्मन संस्थानों में काम करने वाले पूर्व कर्मचारी और उनके रिश्तेदार. इनके अलावा ऐसे अफगान, जिनके कामकाज या एक्टिविजम के कारण तालिबान उन्हें निशाना बना सकता है. मसलन, ऐसे वकील या पत्रकार, जिन्होंने मानवाधिकार और लोकतंत्र से जुड़े मुद्दों पर आवाज उठाई. इसी क्रम में 2021 से अब तक बड़ी संख्या में अफगान नागरिकों को जर्मनी लाया जा चुका है.
क्या जर्मनी की नई सरकार यह कार्यक्रम रोक देगी?
जर्मनी में क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन (सीडीयू) के नेतृत्व में नई सरकार का गठन होने जा रहा है. अनुमान है कि मई की शुरुआत में सरकार का गठन हो सकता है. आप्रवासन और शरणागतों पर सीडीयू का रवैया सख्त है. जर्मनी के संसदीय चुनाव में भी उसने इसे अपना प्रमुख मुद्दा बनाया और सत्ता में आने पर नीति में कड़ाई लाने का वादा किया था.
नई सरकार के रुख में भी यही रुझान नजर आ रहा है. हाल ही में जारी गठबंधन समझौते में कहा गया है कि नई सरकार इस कार्यक्रम को खत्म करना चाहती है. समाचार एजेंसी डीपीए के अनुसार मसौदे में बताया गया है, "हम वॉलंटरी फेडरल एडमिशन प्रोग्राम्स (जैसे कि अफगानिस्तान) को खत्म करेंगे और इस तरह का कोई नया कार्यक्रम नहीं लाएंगे."
नई सरकार के आधिकारिक गठन से पहले अभी पिछली सरकार ही कार्यकारी भूमिका में है. इसमें विदेश मंत्रालय ग्रीन पार्टी के पास है. ग्रीन्स, वॉलंटरी फेडरल एडमिशन प्रोग्राम की समर्थक है और संबंधित अफगान नागरिकों की सुरक्षा के प्रति जर्मनी के दायित्व का समर्थन करती है. नई सरकार के आने से पहले अफगानों को जर्मनी लाने में जो तेजी दिख रही है, उसे कई विशेषज्ञ ग्रीन पार्टी के इसी आग्रह से जोड़कर देख रहे हैं. माना जा रहा है कि ग्रीन पार्टी चाहती है कि सरकार बदलने से पहले जितना हो सके, उतने अफगानों को जर्मनी ले आए.
आप्रवासियों की ज्यादा आबादी का मतलब ज्यादा अपराध नहीं
पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में भी अफगान शरणार्थी निशाने पर हैं. वह अफगान शरणार्थियों को देश से बाहर डिपोर्ट कर रहा है. उसकी योजना 30 लाख अफगानों को डिपोर्ट करने की है. पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री तलाल चौधरी ने एलान किया कि मई 2025 से ऐसे अफगानों को भी डिपोर्ट किया जाएगा, जो किसी पश्चिमी देश जाने के लिए पाकिस्तान में रह रहे हैं. ऐसे में जर्मनी आने का इंतजार कर रहे अफगानों पर पाकिस्तान छोड़कर जाने का दबाव बढ़ सकता है.
इस बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में जर्मन विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा, "हम पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ नजदीकी संपर्क में हैं और तालमेल बिठा रहे हैं और हम उन लोगों की मदद के लिए प्रतिबद्ध हैं, जिन्हें जर्मनी आने देना हमारी बाध्यता है."