दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने के लिए भारी कीमत चुका रहे पाकिस्तानी फिल्मकार
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

पाकिस्तान में फिल्मकारों को न तो बेहतर मौके मिलते हैं और न उनके काम की कदर होती है. हालांकि, अब उन्हें वैश्विक स्तर पर सराहना मिल रही है, लेकिन इसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. आखिर इसकी वजह क्या है?सेंसरशिप से जुड़ी सख्त नीतियां और समाज का रूढ़िवादी तबका ऐसी बाधाएं हैं जिनकी वजह से पाकिस्तानी फिल्म निर्माताओं को रचनात्मक स्वतंत्रता नहीं मिल पा रही है. हालांकि, धीरे-धीरे ही सही, लेकिन अब पाकिस्तान के घरेलू फिल्म उद्योग में काफी बदलाव हो रहा है.

2012 में फिल्म निर्माता शरमीन ओबेद चिनोय की फिल्म ‘सेविंग फेस' ने सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री की कैटगरी में एकेडमी अवार्ड जीता था और शरमीन अपने देश के लिए ऑस्कर जीतने वाली पहली पाकिस्तानी बन गईं. यह फिल्म पाकिस्तान में एसिड हमलों की पीड़ितों पर आधारित थी.

इसके चार साल बाद उन्होंने 2016 में ऑनर किलिंग के विषय पर बनाई गई अपनी फिल्म "ए गर्ल इन द रीवर: द प्राइस ऑफ फॉरगिवनेस” के लिए दूसरा ऑस्कर हासिल किया. इन दिनों वह 2025 में रिलीज होने वाली अगली ‘स्टार वार्स' फिल्म के निर्देशन में व्यस्त हैं. शरमीन इस मुकाम तक पहुंचने वाली पहली महिला और अश्वेत व्यक्ति हैं.

युवा फिल्म निर्माता आसिम अब्बासी की फिल्म "केक” और वेब सीरीज "चुड़ैल्स” की भी समीक्षकों ने काफी प्रशंसा की है. फिलहाल वे ‘द फेमस फाइव' के एक एपिसोड का निर्देशन कर रहे हैं.

फिल्मों को लेकर बन रही सकारात्मक धारणा

इन उपलब्धियों के बाद स्थानीय आलोचकों और विश्लेषकों के समूह के बीच नई धारणा बन रही है कि पाकिस्तानी फिल्म को अंततः वैश्विक स्तर पर पहचान मिल गई है. हालांकि, सवाल यह है कि क्या ये उपलब्धियां देश में फिल्म निर्माण उद्योग की सही तस्वीर बयां कर रही हैं? आखिर यह उद्योग घरेलू स्तर पर अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए इतना संघर्ष क्यों कर रहा है?

शरमीन ने डीडब्ल्यू को बताया, "इतने सालों से फिल्म निर्माताओं को कई वजहों से पाकिस्तान में तय मापदंडों के मुताबिक ही काम करना पड़ रहा था. अब स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है. फिल्म निर्माताओं का समूह सीमाओं से परे पूरी दुनिया में अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहता है और खुद को साबित करना चाहता है.”

उन्होंने कहा, "यह बात सिर्फ निर्देशकों पर ही लागू नहीं हो रही, बल्कि अभिनेता और अभिनेत्रियों पर भी लागू हो रही है. इससे पता चलता है कि युवा पीढ़ी जहां कहीं भी संभव हो, अपनी कला का प्रदर्शन करने में दिलचस्पी दिखा रही है.”

वह आगे कहती हैं, "दुर्भाग्य से पाकिस्तान में फिल्म बनाना काफी कठिन काम है. वहां किसी तरह की आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती. सरकारी संरक्षण का अभाव है और सेंसरशिप है. फिल्म निर्माता ऐसी कहानियां बताना चाहते हैं जो खूबसूरत और महत्वपूर्ण हों. वे कह रहे हैं कि अगर उन्हें पाकिस्तान में अपनी कहानियों को बताने का मौका नहीं मिलेगा, तो वे देश के बाहर उन्हें बताएंगे.”

उन्होंने आगे कहा, "हम सभी ने देखा कि ‘जिंदगी तमाशा' और ‘जॉयलैंड' फिल्म को लेकर देश में कितना ज्यादा विवाद हुआ. मुझे लगता है कि फिल्म निर्माताओं को सम्मान मिलना चाहिए. उनकी कला की सराहना की जानी चाहिए. मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि मेरे कई साथी दुनिया भर में फिल्मों का निर्देशन कर रहे हैं.”

वैश्विक स्तर पर मिल रही पहचान

पाकिस्तानी फिल्म निर्माताओं को वैश्विक स्तर पर मिल रही पहचान से उत्साहित फिल्म वितरक और प्रदर्शक नदीम मांडवीवाला ने कहा, "‘द लेजेंड ऑफ मौला जट्ट' ने दुनिया भर के बॉक्स ऑफिस पर शानदार कारोबार किया. इसके बावजूद हमें लगता था कि हम विदेशों में कुछ नहीं कर पाएंगे, लेकिन बदलता माहौल फिल्म निर्माताओं के लिए निश्चित तौर पर उत्साहजनक है.”

हालांकि, मांडवीवाला का यह भी कहना है कि इस बदलाव के पीछे कई कारक शामिल हैं. उन्होंने कहा, "हमें अधिक फिल्में बनाने के लिए सब कुछ करने की जरूरत है. आर्थिक सफलता से हमें मदद मिलेगी. फिल्में बनाने वाले 10 निर्देशकों में से एक अक्सर हमें खुश होने का मौका देते हैं.”

शरमीन भी मांडवीवाला की बातों से सहमत दिखती हैं. वह कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि हमारी फिल्मों को इतनी लोकप्रियता मिलने के बावजूद फिल्म उद्योग में सुधार होने की उम्मीद है. हालांकि, इससे ज्यादा से ज्यादा फिल्म निर्माता प्रोत्साहित होंगे और वे अपना रास्ता खुद बना सकेंगे, लेकिन इससे शायद ही पूरे फिल्म उद्योग पर कोई प्रभाव पड़ेगा.”

फिल्म कारोबार के विशेषज्ञ अली जैन स्थानीय बॉक्स ऑफिस की निराशाजनक हालत बयां करते हैं. वह कहते हैं, "संघर्ष बढ़ गया है. कोरोना महामारी से इस उद्योग पर काफी असर पड़ा है. वहीं भारतीय फिल्मों को पाकिस्तान में रिलीज करने की अनुमति नहीं होने से भी काफी असर हुआ है. मल्टीप्लेक्स बनने की वजह से पिछले चार वर्षों में सिनेमाघरों की संख्या कम हो गई है. 2024 में बड़े बैनर वाली कोई भी नई फिल्म रिलीज नहीं होने वाली है. यह कारोबार अब पूरी तरह हॉलीवुड फिल्मों पर निर्भर हो गया है. मुझे नहीं पता कि यह स्थिति कब तक बनी रहेगी.”

अस्तित्व बचाए रखने की कोशिश

मांडवीवाला ने कहा, "सरकार ने 2019 में अपनी नीति बदल दी और भारतीय फिल्मों को देश में रिलीज होने से रोक दिया, तब से हम प्रगतिशील मोड से सर्वाइवल मोड में आ गए हैं. जब तक हम इसका कोई विकल्प नहीं ढूंढते या भारतीय फिल्मों को दिखाने की अनुमति नहीं दी जाती, यह सर्वाइवल मोड जारी रहेगा. बात यह है कि पाकिस्तानी उर्दू बोलते और समझते हैं. यह वह भाषा भी है जिसमें भारतीय फिल्में बनती हैं और लोग इसे समझते हैं.”

अभिनेता अदनान शाह टीपू "मौला जट्ट” की कमाई से खुश थे, लेकिन स्थानीय फिल्मों की गुणवत्ता को लेकर चिंतित भी थे. उन्होंने कहा, "मैंने हमेशा कहा है कि कॉन्टेंट को बेहतर बनाने की जरूरत है. एक बात यह भी है कि फिल्में देखने की लागत इतनी ज्यादा हो गई है कि आम जनता के लिए इतना पैसा खर्च करना मुश्किल है. किसी मध्यम वर्गीय परिवार का व्यक्ति 750 रुपये का टिकट कैसे खरीद सकता है. जब तक आप अपनी फिल्में आम आदमी तक नहीं पहुंचाएंगे, चीजें नहीं सुधरेंगी.”

हॉलीवुड और बॉलीवुड में मौजूद विविधता और पाकिस्तान में इसकी कमी पर बात करते हुए मांडवीवाला ने कहा, "पुराने दिनों में हम सुनते थे कि एक खास तबका ही फिल्में देखने आता है, इसलिए फिल्मों में गाने को शामिल करना जरूरी था. 80 फीसदी दर्शक फ्रंटबेंचर्स थे यानी कम पैसे खर्च करके फिल्म देखने वाले लोग थे. अब यह स्थिति बदल गई है. अब शिक्षित लोग भी फिल्में देखते हैं. इसलिए, जनता को यह तय करने दें कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या नहीं.”

रिपोर्ट: मोहम्मद सलमान, कराची से