विदेशियों के लिए हिंदी बोलना लिखना अब आसान होगा
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

जिन लोगों ने हिंदी भाषी परिवेश में ज्यादा वक्त नहीं गुजारा उनके लिए ये भाषा सीखना हमेशा से ज्यादा मुश्किल होता है. उनके लिए एक पत्रिका शुरू हुई है. इस पत्रिका में विदेशी हिंदी भाषियों के रचना संसार की झलक दिखाई देगी.दुनियाभर के कई हिस्सों में अहिंदी भाषी लोग स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में हिंदी को बतौर भाषा पढ़-लिख रहे हैं. मगर कई बार उनके लिए एक ऐसे इंटरनेशनल मंच की कमी महसूस होती है, जो उन्हें एक साथ लाए. इसके लिए कई प्रोफेसरों ने साथ मिलकर एक पहल शुरू की है. दरअसल, अहिंदी भाषी देशों में हिंदी पढ़ने-लिखने वाले लोगों के लिए कई यूनिवर्सिटियों के शिक्षकों और छात्रों ने मिलकर एक मंच तैयार किया है. जिसके जरिए वे लोग खुद को हिंदी भाषा में अभिव्यक्त कर पाएंगे.

30 जुलाई को 'अंतर्देश' नाम की पत्रिका आधिकारिक रूप से लॉन्च होने जा रही है. यह एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय मंच होगा, जो सभी को साथ लाने के साथ ही अपने विचार और अपनी रचनाएं साझा करने की जगह देगा. इसके जरिए अहिंदी भाषियों के बीच न सिर्फ लिखित संवाद होगा बल्कि वे ऑडियो-विजुअल तरीकों से भी अपने को अभिव्यक्त कर पाएंगे. पत्रिका में सिर्फ एकेडेमिक कंटेट नहीं होगा, बल्कि यात्रा वृतांत से लेकर अपने मनपसंद विषयों पर लिखने की आजादी होगी है.

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पहली पत्रिका जापान केंद्रित

दिव्यराज अमिय जर्मनी के टुबिंगन विश्वविद्यालय और स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं. वे इस अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका की पहल करने वाले लोगों में शामिल हैं. उन्हें डीडब्ल्यू के साथ एक बातचीत में बताया, "अंतर्देश एक व्यवस्थित मंच है, जिसके जरिये हिंदी सीखने वाले लोग खुद को अभिव्यक्त कर पाएंगे." पत्रिका का पहला अंक करीब 200 पेज का है. आइडिया से लेकर इस जर्नल के लॉन्च होने में दो साल का वक्त लग गया. तैयारी पिछले साल में ही पूरी हो चुकी थी, लेकिन इसका आधिकारिक विमोचन अब किया जा रहा है.

दिव्यराज अमिय कहते हैं, "इसमें लघुकथा, कहानियां, यात्रा-वृतांत, लेख, समीक्षा और अन्य लगभग हर तरीके का विषय लिखा जा सकता है. हमारी पहली पत्रिका जापान केंद्रित है. जबकि हम अपना दूसरा अंक पूर्वी यूरोप के किसी देश से निकालने पर विचार कर रहे हैं." यह पत्रिका भारत से बाहर के देशों में हिंदी पढ़ने-लिखने वाले स्टूडेंट्स को जोड़ने का काम करेगी. उन्हें भाषा सीखने में मदद मिलेगी और वह अपने नजरिये को हिंदी में व्यक्त भी कर पाएंगे.

पत्रिका के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग

अलग-अलग देशों और विश्वविद्यालयों की स्थानीय टीमों द्वारा शुरू की जा रही ये पत्रिका रोटेशन के आधार पर काम करेगी. इसका मतलब है कि इसका प्रकाशन दुनिया के हर कोने से हो सकेगा, जहां अहिंदी भाषी लोग हिंदी में रुचि रखते हैं. इसका प्रकाशन नॉटनुल (Notnul) वेबसाइट पर किया जाएगा.

अंतर्देश के पहले अंक में कनाडा, चीन, जर्मनी, जापान, बुल्गारिया, पुर्तगाल और स्विट्ज़रलैंड से लेखकों ने योगदान दिया है. जर्मनी की माइंस यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाने वाली डॉ. सोनिया वेंगोबोर्स्की ने कहा कि हिंदी उर्दू मिलाकर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है. हालांकि, इनकी लिपियां अलग-अलग हैं. मगर दुनिया में एक बड़ी संख्या में लोग इसका इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में, यह पहल अहिंदी भाषी लोगों के लिए यह नया कांसेप्ट है.

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दुनियाभर से साथ आए शिक्षक

इस जर्नल के संस्थापक सदस्यों में शामिल हैं: लाइपजिग यूनिवर्सिटी के एडेल हेनिग-टेम्बे, बुल्गारिया के सोफिया विश्वविद्यालय के आनंद वर्धन शर्मा, इटली की तूरीन विश्वविद्यालय की एरिका कैरेंटी, चीन में बीजिंग फॉरेन स्टडीज़ यूनिवर्सिटी की ली यालान, जर्मनी के हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के राम प्रसाद भट्ट, ओसाका विश्वविद्यालय, जापान के वेद प्रकाश सिंह, लिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगाल के शिव कुमार सिंह, टोरेंटो विश्वविद्यालय, कनाडा की हंसा दीप, और दिव्यराज अमिया शामिल हैं.

पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डॉ. तोमिओ मिजोकामि जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं. वे कहते हैं, "ये सबसे पहला सुनियोजित प्रयास है जिसमें कई देशों के शिक्षक और छात्र मिलकर काम कर रहे हैं. 30 जुलाई को ऑनलाइन विमोचन कार्यक्रम में चर्चा भी होंगी, जिसमें दुनियाभर से विचारक और शिक्षक जुड़ेंगे. इसके जरिये इस पहल में और तेजी से सक्रियता आएगी."

संस्कृति में भाषा बहुत अहम

टोरंटो विश्वविद्यालय की हिंदी प्रोफेसर हंसा दीप ने बताया, "अंतर्देश पत्रिका के जरिये अहिंदी भाषियों को एक सार्वजनिक पटल मिलेगा, जिससे वो अपने हिंदी प्रेम को व्यक्त कर सकते हैं. यह पत्रिका विविधता से परिपूर्ण होगी. इसमें मनोरंजन से लेकर शैक्षिक लेख भी मिल जाएंगे." इस पहल की एक बड़ी खासियत ये होगी कि यह संस्कृतियों को जोड़ने वाली किसी पुल की तरह काम करेगा.

किसी भी संस्कृति में भाषा बहुत अहम होती है. नई पत्रिका के जरिए, अहिंदी भाषी लोग मूल हिंदी भाषी लोगों से संपर्क में रहकर गहरा जुड़ाव महसूस करेंगे. ऐसे में, अहिंदी भाषी को संस्कृति को पहचानना, समझना और आत्मसात करना ज्यादा आसान होगा. वो खुद को भाषा के और ज्यादा करीब समझेंगे. पत्रिका पर अपने अनुभव साझा करने के अलावा अहिंदी भाषी लोग नयी भाषा सीखने में आने वाली कठिनाइयों को भी साझा कर पाएंगे.