जर्मनी की नई सरकार से कैसी उम्मीदें रखते हैं एशियाई देश
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

यूरोपीय संघ और अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं, और इसी बीच जर्मनी में नई सरकार आ रही है. विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोप और एशिया के बीच संबंधों में मजबूती लाने का यह सही समय है.जर्मनी का कंजर्वेटिव गठबंधन, क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स (सीडीयू) और उसकी बवेरियन सहयोगी पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) ने जर्मनी में हुए राष्ट्रीय चुनाव में जीत हासिल की. साफ है कि संसद में सबसे बड़ी पार्टी सीडीयू के नेता फ्रीडरिष मैर्त्स यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के अगले चांसलर होंगे. यह चुनाव यूरोपीय संघ और अमेरिका के तनावपूर्ण रिश्तों की छाया में हुए. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने रूस-यूक्रेन युद्ध पर अपनी नीतियों में बड़ा बदलाव किया है, उनके सहयोगी यूरोप में दक्षिणपंथियों का समर्थन कर रहे हैं, और अमेरिकी प्रशासन ने यूरोपीय आयातों पर नए शुल्क (टैरिफ) लगाने का प्रस्ताव भी दिया है. जिस कारण यूरोपीय संघ और अमेरिका के बीच मतभेद और बढ़ता जा रहा है.

इस तनाव के कारण यूरोपीय संघ में यह मांग तेज से बढ़ रही है कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भरता कम करे और नए वैश्विक साझेदार बनाने पर दोबारा विचार करे. फ्रीडरिष मैर्त्स ने कहा है कि यूरोप को अमेरिका पर "निर्भरता खत्म" करने की और यूरोपीय देशों के बीच रक्षा सहयोग को और मजबूत करने की सख्त जरूरत है.

चीन के लिए जर्मनी के चुनावी नतीजे क्या मायने रखते हैं?

नई जर्मन सरकार को ना सिर्फ ट्रंप प्रशासन के टकराव भरे रुख और रूस के आक्रामक व्यवहार से, बल्कि चीन के बढ़ते प्रभाव से भी निपटना होगा. चीन जर्मनी के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक है. 2024 में दोनों देशों के बीच 246.3 अरब यूरो (259 अरब डॉलर) का व्यापार हुआ.

जर्मनी और यूरोपीय संघ चीन को सिर्फ एक साझेदार ही नहीं, बल्कि एक प्रतिस्पर्धी और "प्रतिद्वंद्वी" भी मानते हैं. जब चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन जियान से जर्मनी के चुनावी नतीजों पर सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा कि चीन नई जर्मन सरकार के साथ संबंध मजबूत करने के लिए तत्पर है.

बॉन विश्वविद्यालय (जर्मनी) के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर शुएवु गु का मानना है कि नई जर्मन सरकार चीनी निवेश पर लगी पाबंदियों को ढीला कर सकती है और यूरोपीय संघ के साथ मिलकर चीन के साथ व्यापार और निवेश समझौते को आगे बढ़ा सकती है. गु ने कहा, "अगर अमेरिका के साथ व्यापारिक टकराव होता है, तो जर्मनी के पास चीन के साथ सहयोग बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होगा."

भारत में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं

जर्मन कंपनियां लंबे समय से चीनी बाजार पर केंद्रित रही हैं, लेकिन भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण उसका महत्व भी तेजी से बढ़ रहा है. 2024 में जर्मनी और भारत के बीच व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचकर 30.9 अरब यूरो हो गया.

2024 में जर्मन सरकार ने कई नए नियम बनाए, जिससे भारतीय कुशल कामगारों को जर्मनी जाने और वहां के बाजार की जरूरतें पूरी करने का मौका मिलेगा.

भारत के पूर्व राजदूत गुरजीत सिंह ने कहा कि जर्मनी और भारत के संबंधों को सीडीयू और एसपीडी, दोनों दलों ने मिलकर मजबूत किया है, इसलिए यह संबंध आगे भी मजबूत रहेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया तेजी से बदल रही है, और बड़ी शक्तियों के रिश्ते नई परिस्थितियों से प्रभावित होते रहे हैं. सिंह ने कहा, "भारत जर्मनी और यूरोप को मल्टी-पोलर व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण शक्ति मानता है. भारत को विश्वास है कि जर्मनी के साथ उसके रिश्तों को सभी दलों का समर्थन प्राप्त है, इसलिए किसी बड़े बदलाव की संभावना नहीं है."

ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के प्रमुख समन्वयक गुलशन सचदेवा का मानना है कि ट्रांस-अटलांटिक संबंधों में उथल-पुथल के बीच, मैर्त्स एक स्वतंत्र यूरोप की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. उन्होंने कहा, "रूस एक रणनीतिक चुनौती बना हुआ है, वहीं जर्मनी का चीन से मोहभंग बढ़ रहा है. इसके अलावा, मैर्त्स ने नाटो के भविष्य को लेकर आशंका जताई है और परमाणु प्रतिरोध नीति पर पुनर्विचार करने का सोच रहे हैं."

सचदेवा का मानना है कि "यह स्थिति भारत को यूरोप के साथ मजबूत साझेदारी बनाने के लिए प्रेरित कर सकती है, जिससे भारत को एक अधिक स्वतंत्र यूरोपीय विदेश नीति का लाभ मिल सकता है."

क्या मैर्त्स तालिबान के साथ प्रवासन पर काम कर सकते हैं?

चुनावी अभियान के दौरान फ्रीडरिष मैर्त्स ने जर्मनी के शरणार्थी कानूनों में बड़े बदलाव करने का वादा किया था. हाल के हमलों में प्रवासियों का नाम आने से जनता में नाराजगी बढ़ी है. इस स्थिति का फायदा कट्टर-दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी को मिला, जिसने हालिया चुनाव में 20.8 फीसदी वोट हासिल किए. यह उसका अब तक का सबसे मजबूत प्रदर्शन रहा.

मैर्त्स ने सीमा सुरक्षा कड़ी करने और अस्वीकृत शरणार्थियों को तेजी से निर्वासित करने का संकल्प लिया है, चाहे वह अफगानिस्तान के ही क्यों न हों. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा कि अगली सरकार को अफगान शरणार्थियों की वापसी के लिए तालिबान से बातचीत के लिए तैयार रहना होगा.

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फ्रीडरिष-आलेक्जांडर यूनिवर्सिटी में प्रवासन शोधकर्ता मोजीब अतल कहते हैं कि मैर्त्स को गठबंधन सहयोग की जरूरत तो है, लेकिन नई जर्मन सरकार में प्रवासन कानून सख्त होने की संभावना है.

हालांकि, कुछ अफगानिस्तान विशेषज्ञों का मानना है कि तालिबान से बातचीत करने का मतलब होगा उनको वैधता देना. जबकि तालिबान शासन ने कई मानवाधिकार उल्लंघन किए हैं, जैसे अफगान महिलाओं को शिक्षा और सार्वजनिक जीवन से दूर करना.

एक निर्वासित अफगान महिला अधिकार कार्यकर्ता और शिक्षा प्रचारक वजमा टोखी कहती हैं कि "तालिबान से बातचीत का विचार बेहद चिंताजनक है."

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डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "यह अफगान महिलाओं, कार्यकर्ताओं और शरणार्थियों के साथ धोखा होगा, जिन्होंने जर्मनी से मानवाधिकारों की रक्षा की उम्मीद की थी. यह उन सभी के साथ विश्वासघात है, जिन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया, कष्ट सहे और सब कुछ खो दिया." टोखी का कहना है कि "किसी भी वार्ता में मानवाधिकारों, खासकर महिलाओं के अधिकारों की सख्त शर्तें होनी चाहिए. इससे कम कुछ भी उनके उत्पीड़न में भागीदार बनने जैसा होगा."

क्या यह मजबूत संबंध बनाने की शुरुआत हो सकती है?

ईरान की सरकारी मीडिया ने जर्मनी के चुनावी नतीजों को व्यापक रूप से कवर किया, खासकर एएफडी पार्टी के बढ़ते समर्थन पर जोर दिया. सोशल मीडिया पर कई ईरानी यूजर्स ने लिखा कि वे नई जर्मन सरकार से तेहरान पर सख्त रुख अपनाने की उम्मीद कर रहे हैं. कुछ लोगों ने इस बात को भी उजागर किया कि मैर्त्स ने इस्राएली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को जर्मनी आने का न्योता दिया, जबकि गाजा में कथित युद्ध अपराधों को लेकर अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने उनके खिलाफ अरेस्ट वारंट जारी किया है. इस कदम को ईरान के इस्लामिक शासन के खिलाफ एक कड़ा संदेश माना जा रहा है.

यूनिवर्सिटास इंडोनेशिया में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रोफेसर इवी फित्रियानी का मानना है कि नई जर्मन सरकार के तहत बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं है. वे कहती हैं, "यूरोप में जर्मनी एक महत्वपूर्ण साझेदार रहा है, खासकर व्यापार और पर्यावरण से जुड़े मामलों में. अब लक्ष्य होगा कि अच्छे रिश्ते बने रहें और नए व्यापारिक अवसर खोले जाएं."

फित्रियानी ने कहा, "पहले यूरोप अमेरिका के करीब था, लेकिन ट्रंप की अलगाववादी नीतियों के कारण अब एशिया और यूरोप के बीच मजबूत रिश्ते बनाने का अवसर हो सकता है." उन्होंने आगे कहा, "अच्छे संबंध हमेशा व्यापार से शुरू होते हैं. जर्मनी के लिए व्यापार सबसे अहम है, जबकि एशिया को निवेश, तकनीक और व्यापारिक साझेदारों की जरूरत है. यह एक सुनहरा मौका हो सकता है."