बूढ़ा होता जर्मनी चाहता है ज्यादा महिलाएं नौकरी में आएं
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

जर्मनी में हर साल 4 लाख लोग लेबर फोर्स से बाहर हो रहे हैं. खाली हुई जगहें भरने के लिए देश में कामगार नहीं हैं. ऐसे में सरकार और भी ज्यादा महिलाओं को नौकरी में लाने के लिए कोशिशें कर रही है.तेजी से बूढ़ी होती आबादी के बीच जर्मनी इस बात पर ध्यान दे रहा है कि इस अमीर देश में लोगों को कैसे कामकाजी आबादी यानी लेबर फोर्स में जोड़ा जाए, खासकर महिलाओं को. जुलाई महीने में सरकार ने ओवरटाइम और देरी से रिटायरमेंट के लिए टैक्स छूट समेत कुछ प्रोत्साहन दिए हैं. इसके अलावा 2 अरब यूरो का निवेश दफ्तरों में बच्चों की देखभाल से जुड़ी व्यवस्थाओं में किया जाएगा ताकि ज्यादा महिलाएं काम कर सकें.

विशेषज्ञ मानते हैं कि बावजूद इसके, पुराने सामाजिक कायदों और टैक्स सिस्टम से जुड़ी परेशानियों को हल करने में यह कदम काफी नहीं हैं.

यही दो बड़ी चुनौतियां हैं जो महिलाओं को दफ्तरों के बजाए घरों में रोक कर रख रहे हैं. फ्रैंकफर्ट की गोएथे यूनिवर्सिटी में मैक्रोइकोनॉमिक्स एंड डेवलपमेंट की चेयर प्रोफेसर निकोला फुक्स शुएंडेल्न कहती हैं, "मेरी नजर में सबसे बड़ा मौका था यह सोचना कि हम कैसे महिलाओं को काम ज्यादा करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं."

प्रवासी कामगार बने राजनीतिक सवाल

जर्मनी की बूढ़ी होती आबादी के हिसाब से यहां की लेबर फोर्स से हर साल 4 लाख लोग बाहर हो रहे हैं. इसे चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की सरकार भी लंबे समय में जर्मनी के लिए एक खतरा मानती है. विदेशी कामगारों की दशकों से जर्मन अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका रही है. शॉल्त्स की गठबंधन सरकार ने विदेशी स्किल्ड वर्करों के लिए जर्मनी आना आसान बनाया है. साथ ही शरणार्थियों को वर्क परमिट देकर उन्हें लेबर फोर्स का हिस्सा बनाया है.

2025 में जर्मनी में संसदीय चुनाव होने हैं. फिलहाल आप्रवासन विरोधी धुर-दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड (एएफडी), सर्वेक्षणों में दूसरे नंबर पर नजर आ रही है. ऐसे में विदेशी कामगारों से जुड़ी राजनीति नए आकार ले सकती है. जाहिर है कि जर्मनी को नए विकल्पों के लिए तैयार रहना होगा, जो एक मुश्किल चुनौती है.

जर्मनी में एक कामगार के औसतान सालाना 1,343 घंटे काम करता है. यह 38 विकसित अर्थव्यवस्थाओं के संगठन ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कॉपरेशन (ओईसीडी) के अन्य सदस्यों के मुकाबले सबसे कम है. इंस्टीट्यूट फॉर इंप्लॉयमेंट रिसर्च में रिसर्चर एन्त्सो वेबर कहते हैं, "भले ही जर्मनी में महिलाओं और छात्रों का लेबर मार्केट में योगदान ज्यादा है, लेकिन वे ज्यादातर पार्ट-टाइम काम में होते हैं. इसलिए जर्मनी का प्रति कामगार घंटों का औसत कम दिखाई देता है."

महिलाएं ज्यादा काम कर रहीं, फिर कहां परेशानी?

यूरोपीय यूनियन के आंकड़े दिखाते हैं कि लेबर फोर्स में जर्मनी की महिलाओं की भागीदारी 47% है. जो ईयू के औसत 28% से कहीं ज्यादा है. इसका एक कारण दशकों पुराना है. 1958 में पश्चिमी जर्मनी ने शादीशुदा लोगों के लिए एक टैक्स छूट शुरू की थी, जहां शादी और परिवार के बारे में बताना होता था.

एक शादीशुदा जोड़े पर एक इकाई की तरह टैक्स लगाया जाता है. इससे हुआ यह कि बहुत सी महिलाएं अपने पार्टनर के मुकाबले कम टैक्स भरने वाली श्रेणी में आ गईं. साथ ही ऐसे जोड़े जहां पुरुष ज्यादा कमाने वाला है, वहां महिलाओं को काम करने के लिए प्रोत्साहन कम हो गया.

दूसरा कारण 'मिनी जॉब' यानी पार्टटाइम या कम घंटे का काम भी है, जिन्हें 2000 के दशक में हुए श्रम सुधारों के दौरान लाया गया. इसके तहत अगर किसी भी नौकरी में महीने के 538 यूरो से कम आमदनी होती है तो ऐसी स्थिति में कोई टैक्स नहीं देना होता.

जर्मनी में करीब 43 लाख महिलाएं 'मिनी जॉब' करती हैं. अगर वह अपने काम के घंटे बढ़ाती हैं तो तनख्वाह जरूर बढ़ेगी, लेकिन उन्हें टैक्स और सामाजिक योगदान भी देना पड़ेगा. यानी उनके वेतन से पैसा कटना शुरू हो जाएगा.

इसके अलावा एक तीसरा कारण भी है. अन्य देशों की तरह जर्मनी में भी चाइल्ड केयर के लिए व्यवस्थाएं बेहतरीन नहीं हैं. यहां करीब 4 लाख नौकरियां हैं जो इस सेक्टर में खाली पड़ी हैं.

कैपिटल इकोनोमिक्स के चीफ यूरोप इकोनमिस्ट एंड्रयू केनिन्घम कहते हैं कि "पार्ट टाइम काम करने वाले अभिभावकों के लिए स्कूल से पहले और बाद में बच्चों की देखभाल करने के लिए उपलब्ध जगहों की कमी उनके काम के घंटे बढ़ाने में एक बड़ी रुकावट हो सकती है."

नए बदलावों से क्या फायदा होगा?

कुछ जानकारी चिंता जताते हैं कि नए तरीके अनजाने में महिलाओं के लिए और बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं. अगर फुल टाइम वर्करों, जिनमें ज्यादातर पुरुष ही होते हैं, को कुछ छूट दी जाती है तो वही अपने काम के घंटे बढ़ाएंगे. वेबर कहते हैं, "अगर पुरुष अपने फुल-टाइम काम में दो या तीन घंटे भी जोड़ते हैं तो परिवार की आमदनी में महिला का योगदान और भी कम हो जाएगा."

इन आर्थिक कारणों के अलावा आते हैं सामाजिक और सांस्कृतिक कारण, जिन्हें दूर करना उतना ही मुश्किल साबित हो सकता है. बहुत से शोध बताते हैं कि यूरोप में अगर लोगों को कम कम करने का मौका मिले, तो वह कम काम करना चाहेंगे. ऐसे में औसतन 38,000 यूरो प्रतिवर्ष की कमाई वाले जर्मन वर्कर, ईयू के औसत 28,200 यूरो की कमाई वाले वर्करों के मुकाबले कम काम करना थोड़ी आसानी से चुन सकते हैं.

इसके अलावा रूढ़िवादी सामाजिक कायदे, खासकर पश्चिमी जर्मनी में, मानते हैं कि बेहतर होगा अगर बच्चे की देखभाल उसकी मां करती है. जहां एक तरफ पश्चिमी जर्मनी में 45% महिलाएं फुल-टाइम काम करती हैं जहां स साम्यवादी जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक का एक असर है, वहीं पश्चिमी जर्मनी में सिर्फ 19% महिलाएं ही वर्किंग मदर हैं.

लेबर पैकेज में नियोक्ताओं को प्रोत्साहन राशि दी गई है ताकि वे अपने उन कर्मचारियों को बोनस दे सकें जो पार्ट-टाइम काम के घंटे बढ़ाते हैं. लेकिन अर्थशात्रियों को आशंका है कि इससे शायद ही वे महिलाएं अपने फ्री-टाइम के ऊपर काम को तवज्जों दें जिनकी आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी है.

पेंशन कितनी मिलेगी, यह भी सवाल

38 साल की जेनिफर हार्ट सरकारी सलाहकार हैं. बच्चे के जन्म के बाद उन्होंने फुल टाइम के बजाए 50% काम करना चुना. जब बच्चा डेढ़ साल का हो गया तो काम का समय बढ़ाकर 32 घंटे प्रति सप्ताह किया. लेकिन इस दौरान उन्हें काफी कम तनख्वाह मिली, जिसका एक मतलब यह भी है कि पेंशन के लिए उनका योगदान भी कम हो रहा है.

जर्मनी में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले एक तिहाई पेंशन ही मिलती है. इसे 'जेंडर पेंशन गैप' कहते हैं. 65 या उससे ऊपर की हर पांचवी महिला पर जर्मनी में गरीबी का खतरा है. सांख्यिकी विभाग के मुताबिक, इसी आयुवर्ग के पुरुषों में यह संकट सिर्फ 17.5% है.

हार्ट कहती हैं कि "उनका बच्चा अभी छोटा है, इसलिए काम के घंटे बढ़ाना उनके लिए मुमकिन नहीं है. पार्ट टाइम काम एक विकल्प है जो मैंने मेरे बच्चे के साथ ज्यादा वक्त बिताने के लिए और डे-केयर से जुड़े जरूरी प्रबंध करने के लिए चुना है. मुझे शक है कि टैक्स इस चीज का हल दे पाएगा.

आरएस/एनआर (रॉयटर्स)