क्यों बड़ी कामयाबी है बंदर की क्लोनिंग और इससे हमारा क्या फायदा?
प्राइमेट्स की क्लोनिंग काफी मुश्किल है.
प्राइमेट्स की क्लोनिंग काफी मुश्किल है. ज्यादातर मामलों में भ्रूण और नवजात शिशु की मौत हो जाती है. लेकिन अब चीन के शोधकर्ताओं को रीसेस बंदर का स्वस्थ क्लोन बनाने में कामयाबी मिली है. क्या यह जीन तकनीक में बड़ी सफलता है?करीब तीन दशक पहले क्लोनिंग तकनीक की मदद से पहली क्लोन भेड़ 'डॉली' दुनिया में लाई गई. यह पहला मौका था, जब शोधकर्ताओं को सोमैटिक सेल क्लोनिंग या सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर नाम की तकनीक में इतनी बड़ी सफलता मिली थी. यह साल 1996 की बात है. तब से लेकर अब तक शोधकर्ताओं ने 20 अन्य स्तनधारी प्रजातियों पर उस तकनीक का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है.
क्लोन किए गए स्तनधारी जानवर अक्सर अपनी मांसपेशियों या अन्य अंगों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते रहते हैं. इससे उनकी जिंदगी छोटी हो जाती है. क्लोन गाय के सबसे अधिक समय तक जीवित रहने की संभावना होती है. वहीं प्राइमेट्स के जन्म लेने और जीवित रहने की संभावना सबसे कम रही है. बंदर, एप, लंगूर, और यहां तक कि इंसान भी प्राइमेट जीव है.
साल 2018 की शुरुआत में बताया गया था कि दो क्लोन मकॉक बंदर 'जोंग जोंग' और 'ख्वा ख्वा' का जन्म हुआ है. इन दोनों का जन्म नवंबर 2017 में शंघाई स्थित चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के न्यूरोसाइंस संस्थान में हुआ था. अंतरराष्ट्रीय शोध समुदाय के बीच यह खबर काफी चर्चा में रही.
अब उसी संस्थान के कामयाबी की एक नई कहानी विज्ञान पत्रिका 'नेचर कम्युनिकेशंस' में प्रकाशित हुई है. इसके मुताबिक, संस्थान के शोधकर्ताओं ने एक रीसेस बंदर का क्लोन बनाया है. बताया गया है कि यह नर बंदर स्वस्थ और खुश है. अब उसकी उम्र 2 साल हो चुकी है.
क्या यह बड़ी सफलता है?
जर्मन प्राइमेट सेंटर के स्टेम सेल और भ्रूण शोधकर्ता रुइडिगर बेयर ने कहा, "उनका अध्ययन और तकनीक काफी खास है. यह जीन से जुड़ी दिलचस्प कहानी है. हालांकि मुझे नहीं लगता कि हम मौलिक रूप से जो नए प्रयोग देख रहे हैं, उनका विज्ञान के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाएगा.”
बेयर ने कहा कि चीन के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक का इस्तेमाल किया है, जिसे दुनिया की कुछ प्रयोगशालाओं में ही दोहराया जा सकता है. वह कहते हैं, "उन्होंने दो अलग-अलग तरह की कोशिकाओं वाला भ्रूण बनाया. इसमें एक हिस्सा क्लोन किए गए जीव का था और दूसरा क्लोन नहीं किए गए जीव का था. पूरी तरह से क्लोन किए गए भ्रूण को विकसित करना काफी कठिन था. इसका मतलब है कि यह तकनीक और भी जटिल थी.”
क्लोनिंग कैसे काम करती है?
क्लोनिंग में सबसे बड़ी चुनौती किसी भी जीव की सटीक आनुवांशिक नकल तैयार करना है. अगर सटीक आनुवांशिक कॉपी नहीं होगी, तो उस जीव का जिंदा रहना मुश्किल होगा. क्लोन किए गए अधिकांश जानवरों का स्वास्थ्य खराब होता है और उनका जीवन काल छोटा होता है.
इंसानों की तरह ही अन्य जीव और जानवर भी सोमैटिक सेल से बने होते हैं. इनमें प्रजनन से जुड़ी कोशिकाएं, जैसे शुक्राणु और अंडाणु सेल शामिल नहीं होते. सोमैटिक सेल की क्लोनिंग के दौरान शोधकर्ता नर्व सेल जैसे सोमैटिक सेल के न्यूक्लियस को एग सेल में प्लांट करते हैं. उस एग सेल का न्यूक्लियस पहले ही हटा दिया जाता है.
बेयर बताते हैं, "जब आप ऐसा करते हैं तो एग सेल, सोमैटिक सेल के न्यूक्लियस को फिर से सेट कर सकता है, ताकि पूरी संरचना इस तरह काम करे कि एग फर्टिलाइज हो जाए. इस प्रक्रिया के पूरा होने पर ही भ्रूण तैयार होता है.” इसके बाद फर्टिलाइज एग सेल विभाजित होने लगता है और अपनी खुद की सटीक नकल बनाने लगता है. जैसे-जैसे कोशिकाएं विभाजित होती हैं, वो खुद को एक-दूसरे से अलग करती हैं और उनके काम भी बंट जाते हैं. वो त्वचा, हृदय, मांसपेशी और नर्व सेल का आकार ले लेते हैं.
हालांकि हर कोशिका के न्यूक्लियस में जीन से जुड़ी जानकारी एक समान होती है, लेकिन हर जीन को ‘पढ़ा' नहीं जाता है. उदाहरण के लिए, लेगो मैनुअल में दिए गए निर्देशों या तस्वीरों की तरह जीन की कल्पना करिए. अगर आप किसी एक पन्ने को छोड़कर आगे बढ़ जाएं, तो आखिर में आप बॉक्स में मौजूद तस्वीर से कुछ अलग बनाते हैं. इसी तरह अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं का निर्माण होता है.
इस तकनीक की मदद से एग सेल, प्रत्यारोपित किए गए सोमैटिक सेल न्यूक्लियस को फिर से प्रोग्राम करता है, ताकि सभी जीन को पढ़ने की अनुमति दी जा सके. यह ठीक उसी तरह से होता है, जैसे आप अपने फोन को डिफॉल्ट या फैक्ट्री सेटिंग्स पर रीसेट करते हैं. इसके बाद कोशिका नए सिरे से काम करना शुरू कर देती है. क्लोनिंग की सफलता दर कम रहने की ओर इशारा करते हुए बेयर ने कहा, "यह प्रक्रिया हमेशा अच्छी तरह से काम नहीं करती है.”
क्या प्राइमेट्स की क्लोनिंग ज्यादा मुश्किल है?
जब सफलता दर की बात आती है, तो मौजूदा अध्ययन भी कोई अपवाद नहीं है. इस शोध के दौरान भी 484 भ्रूणों में से सिर्फ एक ही जीवित पैदा हुआ था. बेयर कहते हैं कि यह पता लगाना मुश्किल है कि नई तकनीक या बेहतर संयोग के कारण यह कामयाबी मिली.
बेयर बताते हैं, "सैद्धांतिक रूप से स्तनधारियों की तुलना में प्राइमेट का क्लोन बनाना मौलिक तौर पर ज्यादा कठिन नहीं है. दुनिया में बहुत कम संस्थान हैं, जो प्राइमेट्स के साथ ऐसे प्रयोग कर सकते हैं. इसलिए मेरे हिसाब से बंदरों की क्लोनिंग को कठिन इसलिए माना जा रहा है कि हमारे पास इनकी क्लोनिंग से जुड़ा अनुभव कम है.”
बेयर आगे जोड़ते हैं, "अनुसंधान के लिए बंदरों को रखना, चूहों को पालने की तुलना में ज्यादा मुश्किल और खर्चीला काम है. इसलिए चूहों की तुलना में बंदरों पर कम अनुसंधान किए जाते हैं.”
आखिर बंदर का क्लोन ही क्यों?
बंदरों की क्लोनिंग में इसलिए दिलचस्पी दिखाई जा रही है कि वे जैविक तौर पर इंसानों से काफी ज्यादा मिलते-जुलते हैं. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि अल्जाइमर और पार्किंसंस रोग के इलाज से जुड़े अनुसंधान में बंदरों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाएगा.
मसलन, अगर शोधकर्ता आनुवांशिक रूप से क्लोन किए गए बंदरों के समूहों पर प्रयोग करते हैं और इससे मिले नतीजों की तुलना सामान्य बंदरों पर किए गए उसी तरह के प्रयोग से करते हैं, तो उनका मानना है कि इससे उन्हें इलाज से जुड़े बेहतर नतीजे मिल सकते हैं. इन नतीजों का इस्तेमाल इंसानों के लिए किया जा सकता है. यह सिर्फ चूहों पर किए गए प्रयोग से ज्यादा कारगर साबित होगा.
बेयर बताते हैं, "पीएचडी शोधकर्ता के तौर पर मैं कल्पना नहीं कर सकता था कि कोई बंदरों का भी क्लोन बनाना चाहेगा. यह मेरे लिए खतरे के निशान की तरह था. बंदर भी इंसानों जैसे ही होते हैं. उन्हें भी दर्द होता है.” हालांकि बेयर ने यह भी कहा कि वह अब चीजों को अलग नजरिए से देखते हैं और ऐसी स्थितियां हैं, जिनमें बंदरों की क्लोनिंग करना उचित हो सकता है. जैसे, असाध्य बीमारियों के लिए जिनमें काफी पीड़ा झेलनी पड़ती है.
जीन थेरपी को विकसित करने का एक लक्ष्य यह भी है कि जो लोग देख नहीं पाते, सुन नहीं पाते, जिन्हें हृदय रोग है या जिनका पाचन तंत्र सही से काम नहीं करता, उनका इलाज किया जा सके. हालांकि इन सब के बीच एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या बंदरों की क्लोनिंग से हमें इलाज खोजने में मदद मिलेगी? किसी को भी इसका जवाब नहीं पता है. खुद बेयर भी इस बात को स्वीकार करते हैं.