तिल बराबर हड्डी ने की इंसान को दो पैरों पर खड़ा होने में मददः शोध
गठिये के मरीजों में पाई जाने वाली तिल बराबर हड्डी के बारे में वैज्ञानिकों को अहम जानकारियां मिली हैं.
गठिये के मरीजों में पाई जाने वाली तिल बराबर हड्डी के बारे में वैज्ञानिकों को अहम जानकारियां मिली हैं. उनका अनुमान है कि इसने इंसान के चार से दो पांवों पर खड़ा होने में मदद की होगी.वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इंसान के घुटने की उस छोटी सी हड्डी की मानव विकास में अहम भूमिका रही होगी, जिसके कारण आज बहुत से लोग खड़े होने और चलने से भी अक्सर नाकाम हो जाते हैं. आमतौर पर गठिया से पीड़ित लोगों में पाई जाने वाली इस हड्डी के बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि इसने इंसान को चार पैरों से सीधा खड़े होकर चलने में मदद की.
इस हड्डी का नाम लैटरल फैबेला है, जो आकार में तिल के बराबर होती है और लगभग 39 प्रतिशत लोगों में पाई जाती है. अन्य लोगों में यह होती भी नहीं है. इस हड्डी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन इसे ‘ऑस्टियोआर्थराइटिस‘ जैसी बीमारियों से जोड़ा गया है, जो गठिये का एक प्रकार है. इसमें जोड़ों के ऊतक धीरे-धीरे खराब हो जाते हैं और चलना-फिरना बेहद दर्दनाक हो जाता है.
लैटरल फैबेला घुटने के पीछे की पेशी में छिपी होती है. किंग्स कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने पाया है कि यह हड्डी इंसानों में एक अनोखे तरीके से विकसित हुई है, खासकर वानर जाति जैसे कि लीमर्स, लोर्सिस, टार्सियर्स और बंदरों की तुलना में.
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किंग्स कॉलेज लंदन में इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डॉ. माइकल बर्थाउम का मानना है कि मानव विकास के दौर में लैटरल फैबेला में हुए बदलावों ने इंसान को चार पैरों से दो पैरों पर खड़े होने में मदद की होगी. उन्होंने कहा, "हमारे अध्ययन से पता चलता है कि यह हड्डी वान प्रजाति में अलग-अलग तरीकों से विकसित हो सकती है, और इंसानों में इसका विकास खास तरह से हुआ है, जो सभी होमोनॉएड्स (एक समूह जिसमें चिंपांजी, ओरंगुटान, बोनोबो और इंसान शामिल हैं) के शुरुआती दौर से शुरू हुआ होगा."
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डॉ. बर्थाउम ने बताया, "विकास के शुरुआती दौर में इस हड्डी का नया इस्तेमाल ऑस्ट्रेलोपिथेकस जैसे मानवों को चार पैरों से सीधे खड़े होकर चलने में मदद कर सकता था."
हालांकि कई दशकों से इस पर शोध किया जा रहा है लेकिन वैज्ञानिक अब तक यह नहीं समझ पाए हैं कि कुछ लोगों में यह हड्डी क्यों होती है और दूसरों में नहीं.
आज के समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक आम है. लगभग एक सदी पहले यह हड्डी केवल 11 फीसदी लोगों में पाई जाती थी, जबकि अब 39 फीसदी लोगों में देखी जाती है. इससे संकेत मिलता है कि यह हड्डी इंसानों में फिर से उभर रही है.
डॉ. बर्थाउम का कहना है, "पिछले 100 सालों में लोग बेहतर पोषित हुए हैं, और इसलिए वे अधिक लंबे और भारी होते हैं. इससे इस हड्डी के बनने की संभावना बढ़ जाती है."
वानरों से अलग विकास
इस अध्ययन को 'प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी' नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है. डॉ. बर्थाउम और लंदन की साउथबैंक यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग विभाग में पढ़ाने वाले उनके सहयोगी नेली ए फ्रागोसो वर्गास ने 93 वानर प्रजातियों के घुटनों पर हुए शोध का विश्लेषण किया.
उन्होंने पाया कि जिन वानरों में ये हड्डियां पाई जाती हैं, उनके पूर्वजों में भी इनके होने की संभावना 50 गुना अधिक होती है. इसके अलावा उन्होंने यह भी खोजा कि दो गिब्बन प्रजातियों के अलावा लैटरल फैबेला लगभग सभी विशाल वानरों में मौजूद नहीं होती. वहीं इंसानों में केवल लैटरल फैबेला पाई जाती है, जबकि अन्य प्राइमेट्स में यह जोड़ी में विकसित होती है.
डॉ. बर्थाउम ने कहा कि यह खोज "एक्साप्टेशन" नामक एक विकास प्रक्रिया की ओर इशारा करती है, जिसमें एक अंग या हड्डी किसी विशेष संदर्भ में विकसित होती है लेकिन समय के साथ उसका उपयोग बदल जाता है. मसलन, पहले किसी अंग का विकास किसी अन्य उद्देश्य के लिए हुआ हो सकता है, लेकिन समय के साथ उसे किसी अन्य काम में सहायक पाया गया और इस तरह वह अंग नए कार्य के लिए अनुकूलित हो गया.
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हालांकि, ऑस्टियोआर्थराइटिस वाले लोगों में इस हड्डी के होने की संभावना दोगुनी होती है, लेकिन विशेषज्ञ अभी तक इसका कारण नहीं समझ पाए हैं. डॉ. बर्थाउम ने कहा कि इस संबंध में और शोध करना जरूरी है और "प्रारंभिक परिणाम उत्साहजनक हैं."
वीके/सीके (डीपीए)