सोलह संस्कारों में क्यों सर्वोत्तम है ‘विवाह संस्कार’? जानें 7 फेरों और 7 वचनों की रोचक गाथा
हिंदू धर्म में ‘संस्कार’ को सशक्त भारतीय संस्कृति का मूल आधार माना गया है. हमारे सामाजिक जीवन में चौंसठ कलाएं और सोलह संस्कार बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. गर्भाधान से अंत्येष्टि तक सभी सोलह संस्कारों में 'विवाह संस्कार' को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया गया है. जबकि ‘गृहस्थ धर्म’ सोलह संस्कारों को पूर्णता प्रदान करता है.
Marriage Ceremony: हिंदू धर्म में ‘संस्कार’ को सशक्त भारतीय संस्कृति का मूल आधार माना गया है. हमारे सामाजिक जीवन में चौंसठ कलाएं और सोलह संस्कार (Sixteen Rites) बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. गर्भाधान से अंत्येष्टि तक सभी सोलह संस्कारों (Solah Sanskar) में 'विवाह संस्कार' (Marriage) को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया गया है. जबकि ‘गृहस्थ धर्म’ सोलह संस्कारों को पूर्णता प्रदान करता है. प्राचीन बुद्धिजीवियों ने बहुत सोच-समझकर विवाह के लिए इन परंपराओं की नींव रखी थी. विवाह संस्कार की संपूर्ण प्रक्रिया के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं. दांपत्य के भावी जीवन रूपी भवन का भविष्य 'विवाह संस्कार' पर निर्भर करता है.
सनातन धर्म में 8 किस्म के विवाहों का है विधान
हमारे वैदिक धर्म में ‘शक्ति’ और ‘शिव’ में ही स्त्री और पुरुष की संकल्पना की गयी है. इनके अनन्य प्रेम से ही सृष्टि का विकास होता है और इसका माध्यम है विवाह. विष्णु धर्मसूत्र में आठ प्रकार के विवाहों ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजाप्रत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस और पिशाच विवाह का उल्लेख है. माता-पिता की स्वीकृति से किया गया ‘ब्राह्म विवाह’ (वैदिक विवाह) को सर्वोत्तम माना गया है. ‘दैव विवाह’ में वर द्वारा यज्ञ करने के बाद यज्ञकर्ता को 'कन्यादान' का विधान है, ‘आर्ष विवाह’ में कन्या के पिता को गाय-बैल देकर वर द्वारा विवाह की परंपरा निभाई जाती है. ‘प्रजाप्रत्य विवाह’ में आम विवाह यानी ‘ब्राहम विवाह’ का ही अनुकरण करते थे. कन्या को खरीद कर किया गया विवाह ‘असुर विवाह’ कहलाता है. माता-पिता की स्वीकृति बिना लड़के-लड़की द्वारा स्वेच्छा से किये गये प्रेम-विवाह को ‘गंधर्व विवाह’ कहते हैं. युद्ध में जीतकर इच्छा के खिलाफ किया गया विवाह ‘राक्षस विवाह’, और कन्या को धोखा देकर किया गया विवाह ‘पैशाच विवाह’ कहलाता है. इसे सबसे घृणित माना जाता है. यह भी पढ़ें: क्या आप जानते हैं हिंदू धर्म में होती है कुल 8 तरह की शादियां, जानिए सबका महत्व
वैदिक विवाह
वैदिक रीति से किये गये विवाह को आदर्श विवाह कहते हैं. मान्यतानुसार नाते-रिश्तेदारों की उपस्थिति में अग्नि को साक्षी मानते हुए वधु-वर 7 फेरे लेते हैं. शुरू के चार फेरे में कन्या आगे और वर पीछे चलता है, इसके बाद वर कन्या पीछे हो जाती है. इस विवाह की खासियत यह है कि माता-पिता भले ही कन्या-दान कर दें, भाई अपने सारे रश्म निभा दे, लेकिन जब तक वर के साथ सात फेरे चलते हुए कन्या अपनी स्वीकृति न दे दे, शादी पूरी नहीं होती.
सात फेरेः हर फेरों का है महत्व
'मैत्री सप्तपदीन मुच्यते...' अर्थात एक दूसरे के बंधन में बंधकर सात फेरे चलने के बाद दो अनजान व्यक्ति एक सूत्र में बंध जाते हैं. इसीलिए ताउम्र सात फेरों की प्रतिष्ठा एवं प्रधानता को वैदिक रूप से स्वीकार किया गया है.
सप्तपदी में पहला फेरा भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा फेरा शक्ति, संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा फेरा धन प्रबंधन के लिए, चौथा फेरा आत्मिक सुख के लिए, पांचवां फेरा पशुधन संपदा के लिए, छटा फेरा हर ऋतुओं में सही रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें फेरे में कन्या अपने पति का अनुसरण करते हुए ताउम्र साथ चलने का वचन लेती है, तथा जीवन पर्यंत पति के हर कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है. यह भी पढ़ें: Marriage Muhurat 2020: विवाह के लिए चुनें शुभ मुहूर्त, जानें क्यों नहीं होते खरमास में शुभ कार्य!
सात वचनों का बंधन
शास्त्रों में अंतिम अधिकार कन्या के पक्ष में ही रखा गया है. औरत बनने से पूर्व वधु वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सहमति, समयानुकूल व्यवस्था तथा उसकी सहेलियों के सामने अपमानित न करने के सात वचन कन्या वर से कराती है. इसी तरह कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचनों का पालन करने की शपथ लेती है. वह स्वीकारती है कि वह मन, कर्म और वचन के प्रत्येक स्तर पर पत्नी के रूप में हर कदम पर पति के साथ रहेगी. आज अग्निदेव के समक्ष हम साथ-साथ फेरे लेते हैं. हमारे जीवन के हर कदम पर सप्तऋषि (मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलह, केतु, पौलस्त्य और वशिष्ठ) हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करें तथा सदैव हमारी रक्षा करें.