Madan Mohan Malaviya's Death Anniversary: युगपुरुष थे पं मदन मोहन मालवीय, जानें हैदराबाद के निजाम को कैसे सिखाया सबक और क्या कसक शेष रह गई पंडितजी के जीवन में
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी का जब भी जिक्र होगा पं. मदन मोहन मालवीय के बिना बात अधूरी ही रहेगी, क्योंकि इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए उन्हें नाकों चने चबाने पड़े थे, लोगों के तिरस्कार और अपमान झेलने पड़े थे. नहीं पंडितजी ने शिक्षा के क्षेत्र में और भी बहुत सारे काम किये हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे और अपने बड़े भाई का दर्जा देते थे.
Madan Mohan Malaviya's Death Anniversary: बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU)का जब भी जिक्र होगा पं. मदन मोहन मालवीय (Madan Mohan Malviya) के बिना बात अधूरी ही रहेगी, क्योंकि इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए उन्हें नाकों चने चबाने पड़े थे, लोगों के तिरस्कार और अपमान झेलने पड़े थे. BHU ही नहीं पंडितजी ने शिक्षा के क्षेत्र में और भी बहुत सारे काम किये हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे और अपने बड़े भाई का दर्जा देते थे. पंडितजी ने जीवन के 50 साल से ज्यादा का वक्त देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से संघर्ष में बिताया. उन्होंने हर आंदोलनों में हिस्सा लिया और बार-बार जेल गये. अफसोस बस इस बात का कि वे आजाद भारत की तस्वीर देखने से मात्र 9 महीने पहले 12 नवंबर 1946 में दुनिया को अलविदा कह दिया. आज देश इस महान स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, वकील और समाज सुधारक शख्सियत मदन मोहन मालवीय की 74वीं पुण्य तिथि मना रहा है. प्रस्तुत है उनके जीवन के कुछ अनमोल पल.
पं. मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में पं० ब्रजनाथ व मूनादेवी के यहां हुआ था. वह अपने माता-पिता की सात संतानों में पांचवें नंबर के पुत्र थे. पिता संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, और श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर अपनी आजीविका चलाते थे. उन्होंने म्योर कालेज (प्रयागराज) और इसके बाद कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की. कुछ समय तक उन्होंने बतौर शिक्षक कार्य किया, लेकिन उसके बाद एक समाचार-पत्र के संपादक बन गये. साल 1915 में पंडितजी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की स्थापना की. उस समय वह हिंदू महासभा के संस्थापक भी थे.
'सत्यमेव जयते' को दिलाया प्रचार-प्रसार
पंडितजी 5 'म' वाले नाम से भी खूब लोकप्रिय रहे हैं, यानी महा मना मदन मोहन मालवीय. 'महा मना' की उपाधि उन्हें महात्मा गांधी ने दिया था, जो पंडितजी को बड़े भाई जितना सम्मान देते थे. कहा जाता है कि पंडितजी ने 'सत्यमेव जयते' को लोकप्रिय बनाने की हर संभव कोशिश की. जो आगे चलकर न केवल राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बना, बल्कि राष्ट्रीय प्रतीक में भी अंकित किया गया. यद्यपि इस विषय पर चर्चा चलने पर वे निसंकोच बताते थे कि यह तो भारत के हजारों साल पहले लिखे महान ग्रंथ उपनिषद का वाक्य है. जो मेरे जीवन का मुख्य ध्येय बन गया. ज्ञात रहे कि सन 1918 के कांग्रेस अधिवेशन में पंडितजी ने पहली बार 'सत्यमेव जयते' का प्रयोग किया था. तब वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे.
'आजाद भारत' न देख पाने की कसक!
पंडितजी ने कांग्रेस के कई अधिवेशनों की अध्यक्षता की. वर्ष 1909, 1913, 1919 और 1932 के कांग्रेस के विभिन्न अधिवेशनों में वे बतौर कांग्रेस अध्यक्ष शामिल हुए. उन्होंने 'सविनय अवज्ञा' और 'असहयोग आंदोलन' में प्रमुख भूमिका निभाई. पंडितजी भारत की आजादी को लेकर निश्चिंत थे. उन्होंने एक बार महात्मा गांधी से सुद्दढ़ शब्दों में कहा भी था कि 'इन फिरंगियों को अब जाना ही होगा'. लेकिन उन्होंने बड़े कसक भरे शब्दों में अपनी व्यथा भी सुनाई थी, कि मैं 50 वर्षों से ज्यादा समय से कांग्रेस के साथ सक्रिय कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहा हूं, बहुत संभव है कि मैं ज्यादा दिन तक न जियूं. तब मैं एक दिली कसक लेकर दुनिया को अलविदा कहूंगा कि मैं आजाद भारत का दर्शन नहीं कर सका. काश ऐसा ना हो! लेकिन शायद पंडितजी को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था. स्वतंत्रता मिलने के एक मात्र 9 माह पूर्व पंडित मदन मोहन मालवीय का वाराणसी (बनारस) में निधन हो गया.
काशी में विश्वविद्यालय का सपना!
पंडितजी वैसे तो प्रयागराज में पैदा हुए और पले-बढ़े, लेकिन बनारस से उनका विशेष मोह और निजी जुड़ाव रहा है. वे बनारस में एक विश्व स्तर का विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते थे. हालांकि यह बहुत खर्चीला और मुश्किल काम था. लेकिन पंडितजी ने यह बीड़ा भी उठाया. यह अलग बात है कि इसके लिए उन्हें अथक संघर्षों का सामना करना पड़ा. लोगों के लांछनों और प्रताड़ना को बर्दाश्त करना पड़ा. हालांकि ऐसे कई लोगों को उन्होंने रास्ता भी दिखाया.
हैदराबाद के निजाम को सिखाया सबक!
बीएचयू के निर्माण के लिए मदद की आस लेकर पंडितजी ने देश भर में भ्रमण किया. इस सिलसिले में एक दिन वह हैदराबाद के निजाम के पास पहुंचे. पंडितजीने निजाम को बताया कि वह बनारस में एक विश्वविद्यालय बनवा रहे हैं, उसके लिए सहयोग की अपेक्षा है. निजाम ने न केवल उनकी खिल्ली उड़ाते हुए मदद से स्पष्ट इंकार कर दिया, बल्कि बड़ी दुष्टतापूर्ण शब्दों में कहा कि दान में देने के लिए उनके पास सिर्फ जूती है, आप ले जा सको तो ले जाओ. पंडितजी को निजाम की बात अच्छी नहीं लगी, लेकिन उन्होंने उसे सबक सिखाने का फैसला किया. उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह कहते हुए निजाम की जूती उठा ली कि निजाम की जूती बाजार में निलाम करने से अच्छी कीमत मिल जाएगी. निजाम तो पंडितजी की बातों की गूढ़ता को नहीं समझ सका, मगर कुछ दरबारियों ने निजाम को पंडितजी का आशय समझाया, कि वह बाजार में आपकी जूती नहीं आपके नाम को निलाम करेंगे.
तब निजाम ने तत्काल पंडितजी को बुलवा कर जूती वापस लिया और मोटी रकम देकर विदा किया. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए पंडितजी ने पेशावर से कन्याकुमारी तक का चक्कर काटा और लगभग 1 करोड़ 64 लाख रुपये चंदा इकट्ठा किया. कुछ लोगों ने जमीन, कुँआ, जैसी स्थाई संपत्ति भी दान की. बताया जाता है कि 1915 में पांच लाख गायत्री मंत्रों के जाप के साथ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का भूमि पूजन हुआ, और तत्काल यूनिवर्सिटी निर्माण का काम प्रारंभ हुआ. आज बीएचयू दुनिया के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थानों में एक है. 24 दिसंबर 2015 को पंडितजी को मरणोपरांत भारत-रत्न से सम्मानित किया गया.