Mahaparinirvan Diwas 2019: डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को, महापरिनिर्वाण दिवस पर जानें भारतीय संविधान के रचयिता से जुड़ी रोचक बातें

समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले तथा भारतीय संविधान के रचयिता कहे जाने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 6 दिसंबर 1956 को अंतिम सांस ली थी और उनकी पुण्यतिथि को महापरिनिर्वाण दिवस के तौर पर मनाया जाता है.

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (Photo Credits: Wikimedia Commons)

Mahaparinirvan Diwas 2019: भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (Dr. Babasaheb Ambedkar) एक ऐसे महान समाज सुधारक और नेता थे, जिन्होंने छुआ-छूत और जातिवाद जैसी सामाजिक कुरितियों को खत्म करने के लिए कई आंदोलन किए. यहां तक कि उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों, दलितों और समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए न्योछावर कर दिया. समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 6 दिसंबर 1956 को अंतिम सांस ली थी और उनकी पुण्यतिथि (Death Anniversary) को महापरिनिर्वाण दिवस (Mahaparinirvan Diwas) के तौर पर मनाया जाता है. डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के छोटे से गांव महू में हुआ था. वे अपने पिता रामजी मालोजी सकपाल और माता भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे.

डॉ. आंबेडकर एक ऐसे राजनेता थे जो ज्यादातर समय सामाजिक कार्यों में ही व्यस्त रहते थे, बावजूद इसके वे पढ़ने-लिखने के लिए समय निकाल ही लेते थे. इस साल 6 दिसंबर 2019 को उनकी 63वीं पुण्यतिथि मनाई जाएगी, जिसे महापरिनिर्वाण दिवस भी कहा जाता है. चलिए जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें.

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर से जुड़ी रोचक बातें-

1- 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में जन्में डॉ. भीमराव आंबेडकर का परिवार मराठी था, जिनका महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के आंबडवे गांव से ताल्लुक था. उनका जन्म महार जाति में हुआ था. उस दौरान इस जाति के लोगों को अछूत मानकर उनके साथ भेदभाव किया जाता था.

2- महार जाति का होने के कारण आंबेडकर को प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. उन्होंने स्कूल में अपना उपनाम गांव के नाम पर आंबडवेकर लिखवाया था. बताया जाता है कि उनके एक टीचर को उनसे बड़ा लगाव था, इसलिए उन्होंने उनके उपनाम को थोड़ा सरल करते हुए आंबेडकर कर दिया.

3- भीमराव आंबेडकर बचपन से ही पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे. वे एकमात्र एक ऐसे इंसान थे, जो मुंबई के एल्फिंस्टन रोड़ स्थित गवर्नमेंट स्कूल के पहले अछूत छात्र बनें. इसके बाद डॉ. आंबेडकर का चयन साल 1913 में अमेरिका के कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए हुआ. इस यूनिवर्सिटी से उन्होंने पॉलिटिकल साइंस में ग्रेजुएशन किया और एक शोध के लिए साल 1916 में उन्हें पीएचडी की उपाधि से सम्मानित किया गया.

4- डॉ. आंबेडकर ने कभी ट्यूटर तो कभी कंसल्टिंग का काम भी किया, लेकिन उन्हें हर मोड़ पर सामाजिक भेदभाव और छुआ-छूत का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. साल 1923 में उन्होंने 'द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी' नाम से अपना शोध पूरा किया, जिसके लिए उन्हें लंदन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टर्स ऑफ साइंस की उपाधि प्रदान की. इसके बाद 1927 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें पीएचडी की उपाधि मिली.

5- महार जाति का होने के कारण समाज में छुआ-छूत और भेदभाव का सामना करने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने दलित और समाज के पिछड़े वर्गों के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान दिलाने की वकालत की, जिसमें ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों ही कोई दखल न दे सकें. उनके संघर्षों के कारण ही दलित समुदाय को सीटों में आरक्षण और मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार मिला.

6- उन्होंने साल 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की और उसके अगले साल केंद्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 15 सीटें जीतने में कामयाब रही. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दलित समुदाय को हरिजन कहकर संबोधित करते थे, जिसकी आंडेबकर ने आलोचना की थी और जातिवाद, छूआ-छूत पर आधारित उन्होंने कई विवादित किताबें भी लिखीं.यह भी पढ़ें: Dr. Ambedkar Jayanti 2019: 14 अप्रैल को धूम-धाम से मनाई जाती है अंबेडकर जयंती, जानें उनकी जिंदगी से जुड़ी रोचक बातें

7- विवादास्पद विचारों के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और कांग्रेस द्वारा आलोचना किए जाने के बावजूद डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को आजाद भारत का पहला कानून मंत्री बनाया गया था. वे इतने प्रकांड विद्वान थे कि उन्हें 29 अगस्त 1947 को भारत के संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया.

8- 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में आयोजिक एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह में डॉ. आंबेडकर ने श्रीलंका के महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. उन्होंने साल 1956 में अपनी आखिरी किताब लिखी, जो बौद्ध धर्म पर आधारित थी और उसका नाम 'द बुद्ध एंड हिज धम्‍म' था. उनकी यह आखिरी किताब उनकी मृत्यु के बाद साल 1957 में प्रकाशित हुई थी.

गौरतलब है कि आखिरी किताब 'द बुद्ध एंड हिज धम्‍म' को लिखने के महज तीन दिन बाद ही 6 दिसंबर 1956 दिल्ली में उनका निधन हो गया. उनके निधन के बाद उनका अंतिम संस्कार मुंबई में बौद्ध धर्म की रीति-रिवाज के अनुसार किया गया. बताया जाता है कि उनके अंतिम संस्कार के समय करीब 10 लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी. तब से हर साल 6 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि को महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है.

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