Holi 2019: कृष्ण जन्मभूमि ब्रज में बलराम-राधा के बीच खेली गई होली से लोकप्रिय हुई देवर-भाभी की होली, कैसे जानिए

कृष्ण की प्रिय नगरी ब्रज (मथुरा) में होली अपने पूरे शबाब पर आने लगी है. बसंत पंचमी से शुरु हुई होली की मस्ती में डूबने-उतराने के लिए दूर-दराज से श्रद्धालुओं और पर्यटकों का ब्रज पहुंचना शुरु हो गया है.

ब्रज की लट्ठमार होली (Photo Credits: Wikimedia Commons)

कृष्ण की प्रिय नगरी ब्रज (मथुरा) में होली अपने पूरे शबाब पर आने लगी है. बसंत पंचमी से शुरु हुई होली (Holi) की मस्ती में डूबने-उतराने के लिए दूर-दराज से श्रद्धालुओं और पर्यटकों का ब्रज पहुंचना शुरु हो गया है. बरसाने और नन्दगांव में ‘लट्ठमार होली’ (Lathmar Holi) का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद श्रीकृष्ण की जन्मस्थली ब्रज में भी बरसाने की हुरियानियों और ब्रज के हुरियारों के बीच बड़ी धूमधाम से ‘लट्ठमार होली’ की परंपरा निभाई जाती है. इस पर्व का आनंद उठाने के लिए ब्रज के घर की छतों, छज्जों, वृक्ष की शाखाओं, दीवारों आदि पर जहां देखो श्रद्धालु अटे पड़े नजर आते हैं. श्रीकृष्ण की जन्मस्थली होने के कारण ब्रज की यह भूमि अपनी दिव्यता के कारण हर किसी को आकर्षित करती है.

होली के बहाने ठिठोली

अगर कहा जाए की होली पर्व का जन्म ब्रज की भूमि से ही हुआ तो अतिशयोक्ति नहीं होगा. वस्तुतः बरसाना राधा के गांव के रूप में जाना जाता है. यहां से श्रीकृष्ण का नंदगांव महज 8 किमी की दूरी पर है. इन दोनों ही गांवों के बीच ‘लट्ठमार होली’ की प्रतिद्विंता सदियों से चली आ रही है. इसकी वजह यह बताई जाती है कि बरसाना श्रीकृष्ण का ससुराल है और कृष्ण हुरियारों (ग्वाल बालों) के साथ बरसाने होली खेलने जाते थे. वे जब राधा और उनकी सखियों से होली के बहाने हंसी ठिठोली करते तो राधा और गोपियां उन पर प्रेम पूर्वक लाठियों से प्रहार करती थीं. हुरियारे उनकी लाठियों के प्रहार को अपने ढाल पर रोककर अपना बचाव करते. बाद में होली की इस लीला को ‘लट्ठमार होली’ का नाम दिया गया. बताया जाता है कि बरसाने की हुरियारिनों की लाठी जिसके सिर पर लगता है, उसे सौभाग्यशाली माना जाता है. वर्तमान में होली खेलती हुरियारिनों को श्रद्धालु नेग में रुपये और गिफ्ट इत्यादि भेंट करते हैं.

क्यों लोकप्रिय है देवर-भाभी की होली

ब्रज की इस होली की एक खासियत यह भी है कि इसे ‘जेठ-बहु की होली’ भी कहा जाता है. वस्तुतः परिवार संस्कार के तहत जेठ और छोटे भाई की पत्नी के बीच एक विशेष संस्कृति के कारण वे एक दूसरे से दूर रहते हैं. कहा जाता है कि द्वापर युग में होली के दिन श्रीकृष्ण के बड़े भ्राताश्री बलराम ने राधा से भाभी देवर की तरह होली खेलने की इच्छा जताई. बलराम की यह इच्छा सुनकर राधा विचलित हो गयीं. उन्होंने श्रीकृष्ण को यह बात बताई. तब कृष्ण ने राधा को समझाते हुए बताया कि त्रेता युग में बलराम ही लक्ष्मण थे, जिसे सीता अपना सबसे प्रिय देवर मानती थीं, उसी दौर का ध्यान कर बलराम ने तुम्हारे साथ होली खेलने की इच्छा जताई होगी. तब राधा ने बलराम में अपने देवर का प्रतिबिंब मानकर उनके साथ होली खेली. इसके बाद से ही ब्रज ही नहीं पूरी दुनिया में देवर-भाभी की होली एक परंपरा के रूप में विकसित हो गयी. यह भी पढ़ें- Holi 2019: बांके बिहारी के रंगों से सराबोर होने की दीवानगी है रंगभरनी एकादशी

श्रीकृष्ण पर केसर-रंग डालने के बाद शुरू होती है ब्रज में होली

ब्रज में बसंत पंचमी से शुरु होकर फाल्गुन पूर्णिमा (40 दिनों) तक फागोत्सव का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस फागोत्सव का प्रारंभ समाज गायन से होता है. इस दिन ब्रज के हर कृष्ण मंदिर में ठाकुर जी की प्रतिमा पर गुलाल की फेंट बांधी जाती है. इसी शाम केसर घुले खुशबूवाले रंग को पिचकारी में भरकर पुरोहित जी द्वारा ठाकुर जी की प्रतिमा पर डाली जाती है. इसके बाद पुरोहित उसी रंग को टेसू और चंदन से तैयार रंग में मिलाकर ठाकुर जी की तरफ से मंदिर परिसर में एकत्र श्रद्धालुओं पर डालते हैं. मंदिर से शुरु हुई यह होली ब्रज के हर क्षेत्र में फैल जाती है. बांके बिहारी मंदिर में यह होलिकोत्सव रंगभरनी एकादशी से शुरु होकर पूर्णिमा तक चलती है. कहा जाता है कि धुलैंडी के दिन ठाकुर जी की ओर से श्रद्धालुओं पर रंग नहीं डाला जाता. क्योंकि इस दिन ठाकुर जी गुलाबी पोषाक में स्वर्ण-रजत निर्मित सिंहासन पर विराजमान होकर भक्तों को अबीर-गुलाल की होली खेलते हुए देखते हैं.

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