गोपालदास नीरज की 95वीं जयंती पर विशेष: आंसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा...
सैकड़ों सुपर हिट गाने लिखते हुए गोपालदास सक्सेना 'नीरज' बतौर फिल्मी गीतकार इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें एक के बाद एक तीन फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले. भारत सरकार ने दो-दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया. पहले ‘पद्मश्री’ तत्पश्चात ‘पद्मभूषण’. 4 जनवरी को सारा देश उनकी 95 वीं जयंती मना रहा है.
Gopaldas Neeraj Jayanti 2020: कारवां गुजर गया..., शोखियों में घोला जाये.., ए भाई जरा देख के चलो..., दिल आज शायर है…, ओ मेरी शर्मीली..., आज मदहोश हुआ जाये रे..., धीरे से जाना बगियन में…, जैसे सैकड़ों सुपर हिट गाने लिखते हुए गोपालदास सक्सेना 'नीरज' (Gopaldas Saxena Neeraj) बतौर फिल्मी गीतकार इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें एक के बाद एक तीन फिल्मफेयर अवॉर्ड (Film fare Award) भी मिले. लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध में उनकी संवेदनशील कवि की मूल पहचान कहीं दब-सी गयी थी. इस बात का एहसास जब स्वयं नीरज को हुआ, तो सारा नेम-फेम त्याग कर वह पुनः कवियों की मंडली में शामिल हो गये. 'नीरज' पहले व्यक्ति थे, जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया. पहले ‘पद्मश्री’ तत्पश्चात ‘पद्मभूषण’. 4 जनवरी को सारा देश उनकी 95 वीं जयंती (Gopaldas Neeraj's 95th Birth Anniversary) मना रहा है. इस अवसर पर आइए जाने कि गंगा नदी में श्रद्धालुओं द्वारा फेंके सिक्कों से परिवार की परवरिश करने वाला शख्स आखिर किन सीढ़ियों से चढ़ कर सफलता और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचा...
नौकरी-पढ़ाई साथ-साथ
गोपाल दास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के ‘संयुक्त प्रांत’ ( आज का उ.प्र.) के इटावा जिले के महेवा स्थित पुरावली में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के घर हुआ था. नीरज जब छह साल के थे तब पिता की मृत्यु हो गयी थी. पिता की अचानक हुई मृत्यु से पूरा परिवार मानों सड़क पर आ गया. उन दिनों उनका घर गंगा नदी के किनारे हुआ करता था. श्रद्धालु जब गंगा जी में सिक्के फेंकते तो नीरज उसे बटोरकर लाते और तब घर में चूल्हा जलता था. अपनी पढाई और परिवार की परिवरिश के लिए उन्हें छोटी-मोटी नौकरी भी करनी पड़ी. कभी इटावा की कचहरी में बतौर टाइपिस्ट तो कभी दुकानों में छोटे-मोटे कार्य करके परिवार की परवरिश करते. नौकरी करते हुए ही उन्होंने प्राइवेट परीक्षाएं देकर इंटर मीडियेट, बीए एवं एम.ए. तक की पढ़ाई की. नीरज मेधावी छात्र थे, इसीलिए तमाम समस्याओं को झेलते हुए भी हाई स्कूल से पोस्ट ग्रेजुएशन तक फर्स्ट क्लास फर्स्ट में उत्तीर्ण होते थे.
सम्मेलनों से सिनेमा तक
कवि सम्मेलनों में शानदार सफलता मिलने के साथ ही नीरज को फिल्मों में गीत लिखने के लिए बम्बई (मुंबई) फिल्म इंडस्ट्री से बुलावा आया. नीरज बंबई पहुंचे, पहली फिल्म थी, 'नई उमर की नई फसल'. इस फिल्म में उनके दो गीत थे, 'कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम.., दोनों गाने खूब लोकप्रिय हुए. धीरे-धीरे उनकी व्यस्तता बढ़ती गयी. अंततः उन्हें बंबई शिफ्ट होना पड़ा. ‘मेरा नाम जोकर’, ‘शर्मीली’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘गैंबलर’, ‘चंदा और बिजली’, ‘कन्यादान’, ‘सरस्वतीचंद्र’, जैसी अनेक फिल्मों के लिए उन्होंने कई लोकप्रिय गीत लिखे. उनके गीतों का ही जादू था कि 1970 के दशक में उन्हें लगातार तीन वर्षों तक सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. लेकिन फिल्मी चकाचौंध के बीच उन्हें अक्सर लगता कि वे कवि सम्मेलनों से महरूम होते जा रहे हैं, लिहाजा एक दिन उन्होंने फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये.
हास्य के दौर में गंभीर कवि की छवि
छोटी-मोटी नौकरी के दरम्यान नीरज को अपनी कविताओं के लिए मंच तो मिला, लेकिन चुनौतियां यहां भी कम नहीं थीं, क्योंकि नीरज गंभीर और श्रृंगार रस वाली कविताएं लिखते थे. जबकि उन दिनों काका हाथरसी और केपी सक्सेना जैसे हास्यरस वाले कवियों का वर्चस्व था. श्रोता भी हास्य कविताओं को ज्यादा तवज्जो देते थे. लेकिन नीरज ने यहां भी साहस नहीं छोड़ा. उन्हें अपने फन पर भरोसा था. आखिर वह समय भी आया, जब वे श्रोताओं के दिल की धड़कन बन गये. श्रोताओं को बस पता चलना चाहिए कि नीरज आ रहे हैं, फिर जो मजमा जमता कि आधी रात कब गुजर जाती, पता ही नहीं चलता था. नीरज के गीतों में श्रृंगाररस के साथ-साथ जीवन के प्रति नश्वरता के भाव भी मिलते थे. 1990 के बाद से उनकी कविताओं में दार्शनिक भाव भी मिलने लगे. उनकी कविताओं के भाव स्पष्ट होते थे,
आँसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा
जहां प्रेम की चर्चा होगी, मेरा नाम लिया जाएगा.