Dayanand Saraswati Jayanti 2024: नन्हीं वेश्या ने स्वामी जी की हत्या की कोशिश क्यों की? जानें दयानंद सरस्वती के जीवन के रोचक प्रसंग!
भारत आदिकाल से तपस्वियों और महापुरुषों की जन्म भूमि रही है. जिन्होंने अपने अनुभवों, ज्ञान और दिव्य शक्तियों से संपूर्ण संसार को अवलोकित किया. ऐसे ही महाज्ञानी व्यक्ति हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती, जो लिंग भेद, सती-प्रथा पशु बलि, जातिगत भेदभाव और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध करते रहे हैं.
भारत आदिकाल से तपस्वियों और महापुरुषों की जन्म भूमि रही है. जिन्होंने अपने अनुभवों, ज्ञान और दिव्य शक्तियों से संपूर्ण संसार को अवलोकित किया. ऐसे ही महाज्ञानी व्यक्ति हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती, जो लिंग भेद, सती-प्रथा पशु बलि, जातिगत भेदभाव और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध करते रहे हैं. आज स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती (5 मार्च) पर बात करेंगे स्वामीजी के संदर्भ में उनके जीवन के कुछ प्रेरक और ज्ञानवर्धक तथ्यों पर.
जीवन परिचय
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 19वीं सदी में फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को टंकारा में मोरबी (बंबई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (अब गुजरात में) हुआ था. पिता का किशनलाल तिवारी कर (Tax) कलेक्टर और माँ अमृता बाई आध्यात्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं. मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उस समय उनका नाम मूलशंकर रखा गया. समृद्ध परिवार से होने के कारण उनका बचपन ठाट बाट से बीता था. विद्वान बनने के लिए उन्होंने संस्कृत, वेद एवं शास्त्रों का गहन अध्ययन किया. यह भी पढ़ें : Vijaya Ekadashi 2024: शत्रुओं पर विजय प्राप्ति हेतु करें विजया एकादशी पर श्रीहरि-लक्ष्मी की पूजा! जानें इसका महात्म्य, मंत्र, पूजा-विधि एवं व्रत-कथा!
सत्यम् शिवम् के प्रति जिज्ञासा और गृहत्याग!
शिवभक्त मूलशंकर ने एक बार महाशिवरात्रि व्रत रखा था. शिव मंदिर में पूजा करते हुए उन्होंने शिवलिंग पर कुछ चूहों को उछल कूद मचाते देखा, उन्हें लगा कि यह वह शिव नहीं हो सकते, जिसकी कथा माँ बचपन में सुनाती थी. वह मंदिर से घर आ गये. उनके मन में सत्यम् शिवम् के प्रति जिज्ञासा जगी. उन्हीं दिनों छोटी बहन और चाचा की हैजा से हुई मृत्यु से विक्षिप्त उनके मन में जीवन-मृत्यु प्रति भी गहन जिज्ञासा उत्पन्न हुई. उनके निरंतर शांत रहने से परेशान माता-पिता ने उनका विवाह करने का फैसला किया, लेकिन मूलशंकर ने अपनी तमाम जिज्ञासाओं एवं सत्य की खोज में साल 1846 में घर त्याग दिया.
गुरु विरजानन्द की शरण में!
घर छोड़ने के पश्चात यात्रा करते हुए वह मथुरा के परम तपस्वी स्वामी विरजानन्द के आश्रम पहुंचे. गुरुवर ने उन्हें पाणिनि व्याकरण पातंजल योग सूत्र एवं वेद वेदांग का अध्ययन कराया. गुरु दक्षिणा पर गुरुवर ने अपनी इच्छा जताते हुए कहा, विद्या को सफल करके दिखाओ, परोपकार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो, यही मेरी दक्षिणा होगी.
आर्य समाज की स्थापना!
स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू सुधार आंदोलन के तहत साल साल 1875 में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से आर्य समाज की स्थापना की. आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास करते थे, तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, पशु बलि, झूठे कर्मकांड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे. इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने एवं वेद पढ़ने का अधिकार दिया था. स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ आर्य समाज का मूल ग्रंथ है. आर्य समाज का आदर्श वाक्य है
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्,
अर्थात विश्व को आर्य बनाते चलो
वेश्या ने स्वामी जी की हत्या की कोशिश क्यों की?
उम्र के अंतिम पड़ाव में स्वामीजी जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह के साथ थे. स्वामी जी महाराज को प्रवचन सुनाते थे. स्वामीजी को लगा कि महाराज नन्हीं नामक वेश्या के प्रभाव में राजकाज में गंभीर नहीं हैं. उन्होंने उन्हें समझाया. महाराज ने स्वामीजी की बात मान ली, लेकिन इससे वेश्या को काफी नुकसान हुआ. उसने कुक के सहयोग से स्वामीजी को दूध में कांच मिलाकर पिला दिया. स्वामीजी की हालत खराब हुई तो कालिया से रहा नहीं गया, उसने स्वामी जी को सच्चाई बता दिया. स्वामीजी ने उसे माफ करते हुए 5 सौ देकर कहा कि तुम पकड़े जाओगे तो सजा मिलेगी, यहां से भाग जाओ. स्वामीजी को जोधपुर अस्पताल में भर्ती किया गया. कहते हैं कि चिकित्सक भी स्वामीजी से चिढ़ता था, वह दवा के नाम पर स्वामीजी को विष देता था. अंततः 31 अक्टूबर 1883 को स्वामी जी की मृत्यु हो गई थी.