Chanakya Niti: तीर्थयात्रा करने से मनुष्य का कलुषित ह्रदय पवित्र नहीं हो सकता! जानें चाणक्य का स्नेह और यश के प्रति नजरिया!
आचार्य चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य भी कहा जाता है, प्राचीन भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के महान विद्वान् थे. उनकी नीतियों का सार मुख्य रूप से उनके मुख्य ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मिलता है. चाणक्य का मानना था कि एक शासक को हमेशा चतुर और सावधान रहना चाहिए.
आचार्य चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य भी कहा जाता है, प्राचीन भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के महान विद्वान् थे. उनकी नीतियों का सार मुख्य रूप से उनके मुख्य ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मिलता है. चाणक्य का मानना था कि एक शासक को हमेशा चतुर और सावधान रहना चाहिए. उन्हें अपने दुश्मनों की पहचान और उनके नापाक इरादों को समझना आवश्यक है. उन्होंने समाज में हर व्यक्ति की भूमिका को महत्व दिया. उनका मानना था कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए. यहां चाणक्य की एक प्रमुख नीति की बात इस श्लोक के माध्यम से की जा रही है. यह भी पढ़ें : Diwali 2024 Cleaning: दिवाली पर अपने घर को चमकाने के लिए अपनाएं ये 5 स्पेशल किचन सफाई टिप्स
‘लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकै
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणै: सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनै:
सद्विद्या यदि कि धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ‘
अर्थात
लोभ सबसे बड़ा अवगुण है, पर निंदा सबसे बड़ा पाप है, सत्य सबसे बड़ा तप है और मन की पवित्रता सभी तीर्थों में जाने से उत्तम है. सज्जनता सबसे बड़ा गुण है, यश सबसे उत्तम अलंकार (आभूषण) है, उत्तम विद्या सबसे श्रेष्ठ धन है और अपयश मृत्यु के समान सर्वाधिक कष्टकारक है.
उपयुक्त श्लोक में चाणक्य संबोधित करते हुए कहते हैं कि यदि मनुष्य लोभी है तो उसे दुर्जनों की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि लोभ ही उसका सबसे बड़ा शत्रु होता है, जो उसे नाश की ओर धकेलता है. निंदक एवं चुगलखोर को पातकों से कुछ लेना-देना नहीं होता. निंदा-कर्म करके वे स्वयं पातकों का कार्य संपन्न करते हैं. सत्य से बड़ा कोई तप नहीं होता. सत्य का तेज देह के सभी विकार नष्ट कर डालता है. इसलिए जीवन में सत्य धारण करनेवाले को तप की कोई आवश्यकता नहीं होती. यदि मनुष्य का मन मैला तथा अपवित्र है तो तीर्थ-यात्रा करके भी उसका कलुषित हृदय पवित्र नहीं होता. इसके विपरीत जिसका हृदय पवित्र और शुद्ध है, उसे तीर्थ-यात्रा की आवश्यकता ही नहीं होती. हृदय में स्नेह हो तो समस्त गुण उसके समक्ष गौण हैं, जबकि यश के समक्ष आभूषणों की चमक भी क्षीण है. विद्या अर्जित करने के बाद मनुष्य जीवन के सत्य को जान लेता है. आत्मा-परमात्मा का भेद तथा ब्रह्म-दर्शन उसके लिए सहज हो जाते हैं. ऐसा मनुष्य सांसारिक मायाजाल से मुक्त हो जाता है. इसलिए उसे विषय-वासनाओं में धकेलनेवाले धन की कोई आवश्यकता नहीं.