क्या बीरेन सिंह के जाने से शांत हो पाएगा मणिपुर?
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

अपने खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव में हार लगभग तय देखकर बीरेन सिंह ने मणिपुर के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है. लेकिन क्या इससे दो साल से लगी हुई आग बुझ पाएगी?मई, 2023 से ही जातीय हिंसा की चपेट में रहा पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर अब मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के साथ ही राजनीतिक अनिश्चितता के भंवर में फंसता नजर आ रहा है. रविवार देर शाम तेजी से बदले नाटकीय घटनाक्रम के बाद अब राज्य में सबसे बड़ा सवाल यह है कि यहां बीरेन सिंह की जगह किसी और को कुर्सी सौंपी जाएगी या फिर पहले की तरह राष्ट्रपति शासन लागू होगा.

साथ ही यह भी पूछा जा रहा है कि क्या इससे बीते करीब 21 महीनों से जारी हिंसा पर अंकुश लगाने में कामयाबी मिलेगी. लेकिन फिलहाल इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है.

इस बीच, सोमवार से होने वाले विधानसभा का वह बजट अधिवेशन भी स्थगित कर दिया गया है जिसमें बीरेन सिंह सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जाना था और कथित रूप से बीजेपी के करीब डेढ़ दर्जन विधायक भी इसका समर्थन करने वाले थे.

मणिपुर की हिंसा

मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई तबके को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की हाईकोर्ट की सिफारिश के बाद 3 मई 2023 को राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गई थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, उस हिंसा में अब तक ढाई सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है जबकि सैकड़ों करोड़ की संपत्ति जल कर राख हो गई है. इसके अलावा 50 हजार से ज्यादा लोग विस्थापन का शिकार होकर मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड के राहत शिविरों में अनिश्चित जिंदगी गुजार रहे हैं. हिंसा शुरू होने के बाद से ही बीरेन सिंह सरकार पर मैतेई संगठनों को मदद करने के आरोप लगते रहे हैं. अभी हाल में वायरल एक ऑडियो क्लिप में बीरेन सिंह कथित रूप से एक मैतेई संगठन को सरकारी हथियारों की लूट में मदद करने का दावा करते सुनाई दे रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उस क्लिप की फोरेंसिक जांच का आदेश दिया है.

मणिपुर राज्य पर्वतीय और घाटी यानी दो इलाकों में बंटा है. मैतेई बहुल घाटी इलाके में विधानसभा की 40 सीटें हैं और नागा-कुकी बहुल पर्वतीय इलाके में 20 सीटें. लेकिन हिंसा शुरू होने के बाद से ही पर्वतीय इलाके के विधायक, जिनमें दो मंत्रियों समेत बीजेपी के सात विधायक भी शामिल हैं, बीरेन सिंह को घेरे हुए थे.

लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि बड़े पैमाने पर होने वाली हिंसा के बावजूद बीरेन सिंह अपनी कुर्सी से चिपके थे और बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी उनका खुल कर समर्थन कर रहा था? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मई, 2023 में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच जातीय हिंसा शुरू होने के बाद भी बीरेन सिंह पर इस हिंसा को भड़काने के आरोप लगते रहे. उन पर मैतेई संगठनों को हथियार मुहैया कराने तक के आरोप लगे. बीरेन सिंह के खिलाफ सबसे गंभीर आरोप सशस्त्र मैतेई संगठन आरामबाई टेंग्गोल की मदद करने का लगा है.

इसके बावजूद केंद्र सरकार खासकर मैतेई समुदाय के बीच उनकी भारी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उनको कुर्सी से हटाने का खतरा नहीं मोल लेना चाहती थी. लेकिन धीरे-धीरे यह साफ होने लगा था कि मैतेई और कुकी समुदाय के बीच इतनी कड़वाहट पैदा हो गई है, जिसे पाटना संभव नहीं है.

क्या बीरेन सिंह को उनके खिलाफ लग रहे आरोपों या पार्टी में विरोध की वजह से हटाया गया है? इस सवाल पर प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष ए शारदा देवी ने डीडब्ल्यू से कहा, "बीजेपी विधायकों में कहीं कोई मतभेद नहीं है. बीरेन सिंह ने राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया है. वो यहां शांति और सामान्य स्थिति बहाल करने के पक्षधर हैं."

लेकिन शारदा देवी के इस दावे पर सवाल उठ रहे हैं. कुकी नेता एच. थांगलियाट सवाल करते हैं कि आखिर 21 महीने बाद शांति की बात कहां से सूझी. अगर उन्होंने हिंसा शुरू होने के बाद ही इस्तीफा दे दिया होता तो राज्य में सैकड़ों बेकसूरों को अपनी जान से हाथ नहीं धोना पड़ता.

अब आगे क्या?

मणिपुर में अब दो ही राजनीतिक विकल्प मौजूद हैं. पहला बीरेन सिंह की जगह किसी और को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपना या फिर कुछ महीनों के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करना. लेकिन बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से कहते हैं, "बीरेन सिंह और पार्टी की साख बचाने के लिए ही केंद्रीय नेतृत्व ने तत्काल उनके किसी विरोधी को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय इंतजार करने का फैसला किया है. बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद राज्य में कुछ जगह मैतेई संगठनों ने प्रदर्शन किया है. इसलिए केंद्र सरकार फूंक-फूंक कर कदम उठाना चाहती है."

दूसरी ओर, विपक्षी कांग्रेस और कुकी संगठनों ने बीरेन सिंह की जगह किसी और को कुर्सी सौंपने की बजाय केंद्र से यहां राष्ट्रपति शासन लागू कर अपने हाथों में नियंत्रण लेने की अपील की है. कई कुकी संगठनों के साझा मंच ‘कुकी जो काउंसिल' (केजेडसी) के प्रवक्ता गिंजा वुआलजांग ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैतेई तबके ने हमें अलग कर दिया है. उसके बाद हमारे समुदाय के सैकड़ों लोगों का खून बह चुका है. अब बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद भी पहले जैसी स्थिति बहाल होना संभव नहीं है. हमें हर हाल में अलग प्रशासन चाहिए. अब यही एकमात्र राजनीतिक समाधान है."

कुकी-जो काउंसिल के अध्यक्ष एच. थांगलियाट डीडब्ल्यू से कहते हैं, "बीरेन सिंह की जगह अगर मणिपुर घाटी से मैतेई समुदाय को दूसरा कोई नेता भी मुख्यमंत्री बनता है तो राज्य की समस्या जस की तस ही रहेगी. अब केंद्र को राज्य का नियंत्रण अपने हाथों में ले लेना चाहिए."

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कीशम मेघचंद्रा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "बीरेन सिंह को बहुत पहले ही इस्तीफा देना चाहिए था. अब 21 महीनों तक बड़े पैमाने पर जारी हिंसा के बाद सदन में हार तय जान कर ही उन्होंने इस्तीफा दिया है. लेकिन बीजेपी सरकार के सत्ता में रहते राज्य में जमीनी परिस्थिति सुधरने की उम्मीद कम ही है. ऐसे में राष्ट्रपति शासन के जरिए केंद्र का हस्तक्षेप जरूरी हो गया है."

फंस गई बीजेपी

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल, बीरेन सिंह या पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को इस बात का अनुमान नहीं था कि मामला इतना बिगड़ जाएगा कि सत्ता हाथ से निकलने की नौबत आ जाएगी. विपक्ष ने 10 फरवरी को शुरू होने वाले विधानसभा के बजट अधिवेशन के दौरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने को नोटिस दिया था.

जानकारों के मुताबिक, बीजेपी के कम से कम डेढ़ दर्जन विधायक, जो कई महीनों से नेतृत्व परिवर्तन की मांग कर रहे थे, इस अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन करने का मन बना चुके थे. इसकी आहट मिलने के बाद बजट अधिवेशन से ठीक पहले बीरेन सिंह अपने कुछ भरोसेमंद लोगों के साथ अचानक दिल्ली पहुंचे और वहां पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत कई शीर्ष नेताओं के साथ मुलाकात की. वहां से लौटते ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शिखा मुखर्जी कहती हैं, "मैतेई बहुल इंफाल घाटी में घटती लोकप्रियता, इस्तीफे की मांग में विपक्ष की ओर से बढ़ते दबाव और पार्टी में तेज होते असंतोष के कारण ही केंद्रीय नेताओं की सलाह पर बीरेन सिंह ने इस्तीफा देने का फैसला किया. सोमवार से शुरू होने वाले बजट अधिवेशन के दौरान विपक्ष की ओर से प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव ने केंद्रीय नेतृत्व के लिए फैसला लेना आसान बना दिया. इसमें बीरेन सिंह सरकार की हार तय मानी जा रही थी."

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से कहते हैं, "फिलहाल यह साफ नहीं है कि आगे क्या होगा. लेकिन राष्ट्रपति शासन की उम्मीद कम ही है."