अरुणाचल प्रदेश की जनजातियों के लिए जीवनरेखा है झूलते पुल
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

अरुणाचल प्रदेश की तिब्बत से लगे सीमावर्ती इलाके में पहाड़ियां इतनी दुर्गम और खाई इतनी गहरी है कि वहां पारंपरिक ब्रिज बनाना कठिन है. यही वजह है कि लोहित नदी को पार करने के लिए दर्जनों स्थानों पर हैंगिंग ब्रिज बनाए गए हैं."लोहित नदी पर बना यह हैंगिंग ब्रिज हमारी लाइफ लाइन है. इसके बिना हम गांव से बाहर निकलने की कल्पना तक नहीं कर सकते."

अरुणाचल प्रदेश में तिब्बत से लगी सीमा पर पूर्वी छोर के पहले गांव काहो में रहने देश की सबसे छोटी जनजातियों में से एक मेयोर तबके के कुंदुन ऊंचन मेयोर बताते हैं कि यह ब्रिज नहीं होते तो वो लोग गांव की सीमा से बाहर ही नहीं निकल सकते थे. इस गांव में मेयोर जनजाति की आबादी महज 34 है. आसपास के कुछ अन्य गांवों में भी इस जनजाति के लोग रहते हैं.

अरुणाचल प्रदेश में लोहित जिला मुख्यालय में तेजू से सीमा के पहले गांव किबीथू और काहो की ओर बढ़ते ही पहाड़ी सड़क के साथ ही लोहित नदी आखिर तक चलती रहती है. यह ब्रह्मपुत्र की मुख्य सहायक नदी है. इसी नदी पर झूलते हुए पुलों की जो सिलसिला तेजू के बाद शुरू होती है वह काहो तक जारी रहता है. इनमें से ज्यादातर पुल ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए गए थे. यह इलाके सामरिक रूप से भी काफी अहम हैं. वर्ष 1962 में चीन की लड़ाई के समय यहां सबसे भयावह लड़ाई चली थी. उस युद्ध की याद में वालोंग में एक युद्ध स्मारक भी बना है.

इलाके में पहाड़ियां इतनी दुर्गम और खाई इतनी गहरी है वहां पारंपरिक ब्रिज बनाना लगभग असंभव है. इसी कारण से लोहित को पार करने के लिए दर्जनों स्थानों पर हैंगिंग ब्रिज बनाए गए हैं. उनमें से ज्यादातर ब्रिज पैदल चलने वालों के लिए हैं. लेकिन कुछ पर कार और चोटे वाहन बी चलते हैं. मिसाल के तौर पर जिला मुख्यालय अंजाव जाने के लिए भी ऐसा ही ब्रिज है. अंजाव लोहित के दूसरे किनारे पर एक पहाड़ी के ऊपर बसा है.

चीन के इतने पास

काहो गांव तेजू से करीब 240 किमी दूर है. यहां से चीनी कस्बा सामने नजर आता है. तेजू से आगे बढ़ते ही जगह-जगह भारतीय सेना और इंडो-तिब्बत बार्डर पुलिस के कैंप नजर आते हैं. काहो गांव लोहित के दूसरे किनारे पर है. गांव के लोग झूम खेती की परंपरा का पालन करते हैं. आम लोगों को इस गांव से आगे जाने की अनुमति नहीं है.

मेयोर जनजाति के लोग काहो के अलावा किबिथू और वालोंग तक फैले हैं. इस जनजाति के लोग सीमा पार तिब्बत के पठारी इलाकों में भी रहते हैं. इस जनजाति के लोगों ने 1962 की लड़ाई के दौरान भारतीय सेना की काफी मदद की थी. 1962 से पहले इस जनजाति के लोग सीमा व्यापार से जुड़े थे. लेकिन लड़ाई के बाद वह बंद हो गया.

यह इलाका बेहद दुर्गम है और यहां जीवन भी इन पहाड़ियों की तरह ही कठिन है. भारतीय सेना में काम कर चुके प्रेम कुमार तामंग बताते हैं कि पहले जब सड़क नहीं थी तो उनको हाउलियांग से चार दिन पैदल चल कर किबिथू में अपने घर पहुंचना पड़ता था. अब सड़क बनने के बाद धीरे-धीरे कुछ पर्यटक यहां पहुंचने लगे हैं. लेकिन किबिथू में अब भी ठहरने की कोई जगह नहीं है. काहो में एकाध होमस्टे जरूर खुले हैं. लेकिन वहां भी बेहद मामूली सुविधाएं ही उपलब्ध हैं. पर्यटकों की आवक बढ़ने पर इलाके के लोगों की आय का वैकल्पिक स्रोत पैदा होने की उम्मीद है.

उत्तरी तिब्बत से आए लोगों का बसेरा

काहो गांव अंजाव जिले के किबिथू सर्किल या उपजिले के तहत है. यहां के लोग रोजमर्रा की जरूरतों के लिए किबिथू पर ही निर्भर हैं. अगर किबिथू में कुछ नहीं मिला तो 40 किमी दूर वालोंग तक जाना पड़ता है. किबिथू से काहो जाने के लिए लोहित पर मोटर लायक एक हैंगिंग ब्रिज जरूर है. लेकिन वह रास्ता काफी घूम कर जाता है. इसके उलट लोहित पर बने हैंगिंग ब्रिज के जरिए इन दोनों गांवों के बीच के दूरी महज दस मिनट में तय की जा सकती है. प्रेम कुमार डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "मेयोर जनजाति के लोग मूल रूप से उत्तरी तिब्बत से यहां आए थे. यह दुनिया की सबसे कम आबादी वाली जनजातियों में से एक है."

बदल रही है देश के पहले गांव किबिथू की तस्वीर

उनका कहना है कि हैंगिंग ब्रिजों ने इस दुर्गम इलाके में रहने वाले लोगों का जीवन काफी हद तक आसान बना दिया है. सड़क मार्ग से दोनो गावों के बीच आवाजाही करने के लिए वाहन की जरूरत है. यहां बहुत कम लोगों के पास अपने वाहन हैं. उस रास्ते से पैदल आने पर कम से कम तीन घंटे लग जाते हैं. लेकिन हैंगिंग ब्रिज के जरिए लोग दस मिनट में एक से दूसरे गांव में पहुंच सकते हैं. एंथ्रोपोलाजिस्ट सुकुमार महंत डीडब्ल्यू से कहते हैं, वर्ष 2002 की जनगणना के मुताबिक मेयोर जनजाति की आबादी महज तीन सौ थी. फिलहाल यह साढ़े आठ सौ के करीब है.

हाल ही में जाव जिले के उपायुक्त के पद से हटे तालो जेरांग डीडब्ल्यू से कहते हैं, "इस दुर्गम इलाके में बने हैंगिंग ब्रिज स्थानीय जनजातियों के लिए लाइफ लाइन हैं. इसके बिना एक से दूसरी जगह आने-जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती. इसकी वजह यह है कि इलाके की दुर्गम पहाड़ियां लोहित नदी की वजह से दो हिस्सों में बंटी हैं. स्थानीय लोगों को रोजमर्रा के काम से अक्सर इस नदी के आर-पार जाना पड़ता है. जिले में ऐसे छोटे-बड़े कम के कम तीन दर्जन ब्रिज हैं." उनका कहना है कि किबिथू और काहो को जोड़ने वाले हैंगिंग ब्रिज के इलावा वालोंग में बने ब्रिज की गिनती दुनिया के सबसे खूबसूरत झूलते पुलों में की जाती है.वोट देने में आगे लेकिन वोट मांगने में पीछे हैं अरुणाचल की औरतें

इतिहासकार केसी पुल डीडब्ल्यू से कहते हैं, "अरुणाचल प्रदेश में हैंगिंग ब्रिजों की भरमार है. इनमें से कुछ ब्रिज तो सौ साल से भी ज्यादा पुराने हैं. यह नहीं बने होते तो यह इलाका दशकों तक पूरी दुनिया से कटा रहता. इसकी वजह यह है कि लोहित नदी के तेज बहाव के कारण उसको नाव या किसी और तरीके से पार करना असंभव है."

सामरिक तौर पर भी इन पुलों की भूमिका काफी अहम है. कई इलाकों में सेना के जवान भी इन ब्रिजों के जरिए ही पैदल अग्रिम चौकियों तक पहुंचते हैं. किबिथू में अग्रिम चौकी पर तैनात सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी भी नाम नहीं छापने की शर्त पर इस बात की पुष्टि करते हैं.