यूपी बीजेपी में रार, क्या होगा आगे?

उत्तर प्रदेश में बीजेपी नेताओं - योगी बनाम केशव - के उस मुद्दे ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है जिसकी शुरुआत साल 2017 में योगी आदित्यनाथ के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के पहले शुरू हुई थी.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

उत्तर प्रदेश में बीजेपी नेताओं - योगी बनाम केशव - के उस मुद्दे ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है जिसकी शुरुआत साल 2017 में योगी आदित्यनाथ के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के पहले शुरू हुई थी. क्या होंगे इसके नतीजे?लोकसभा चुनाव में 303 सीटों से खिसक कर 240 सीटों पर पहुंचने के बाद पार्टी की हार की समीक्षा हो रही है लेकिन इन समीक्षा बैठकों के दौरान जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखते हुए बीजेपी के भविष्य को लेकर आशंकाएं सामने आने लगी हैं.

बीजेपी को लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा झटका उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में लगा. यूपी में 62 सीटों से घटकर वो 33 पर आ गई तो हार की जिम्मेदारी किस पर डाली जाए, इसे लेकर सवाल उठने लगे. दबे स्वर में सीधे तौर पर केंद्रीय नेतृत्व को भी घेरे में लेने की कोशिश हो रही है क्योंकि चुनाव में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वाराणसी सीट से महज डेढ़ लाख वोटों के मार्जिन से जीते हैं और बनारस से लगी तमाम सीटों पर बीजेपी हार गई.

आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर

तमाम लोग इसके पीछे यूपी सरकार की नीतियों को दोष दे रहे हैं. खासकर, कथित तौर पर बढ़ते भ्रष्टाचार और राज्य में नौकरशाही के हावी होने और यहां तक कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों के उत्पीड़न की वजह से. रविवार को लखनऊ में हुई बीजेपी की कार्यसमिति की बैठक के दौरान ये आरोप-प्रत्यारोप सतह पर आ गए. यहां तक कि सहयोगी दलों के नेताओं ने भी सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं.

पुलिसिया मुठभेड़ का जश्न मनाने वाला समाज

अपना दल की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल ने नौकरियों में ओबीसी आरक्षण को नजरअंदाज करने का सवाल उठाया तो राज्य सरकार में मंत्री और निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने ‘बुलडोजर नीति' को हार का प्रमुख कारण बताया. यही नहीं, कार्यसमिति की बैठक के दौरान डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का यह बयान खूब छाया रहा कि ‘संगठन सरकार से बड़ा होता है.' लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह कहकर उनके इस बयान की हवा निकाल दी कि ‘सरकार है तभी सब का सम्मान है.'

उम्मीदों पर चल गया 'बुलडोजर'

जहां तक बुलडोजर के इस्तेमाल की बात है तो बहुत से ऐसे लोग भी धीरे-धीरे इसकी चपेट में आने लगे जो पहले इसके इस्तेमाल पर तालियां बजाया करते थे. पहले कई मामलों में ज्यादातर बुलडोजर कार्रवाई मुसलमानों के मामलों में हुई तो इसे राजनीतिक तुष्टीकरण से देखा गया लेकिन धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया.

हाल ही में लखनऊ में अकबरनगर के पूरे इलाके में बुलडोजर चला दिया गया और सैकड़ों घर जमींदोज कर दिए गए. इससे पहले भी कई लोगों के घरों पर बुलडोजर चले हैं. किसी अपराध में नाम आ जाने पर भी कथित अवैध निर्माण के नाम पर घर ढहा दिए गए. यहां तक कि अदालत की टिप्पणियों के बावजूद इसका इस्तेमाल जारी रहा. बीजेपी समर्थक बुलडोजर को सरकार की ताकत के प्रतीक के तौर पर प्रचारित करते रहे लेकिन चुनावी हार और खराब प्रदर्शन के बाद अब इसे भी हार के प्रमुख कारणों में गिना जा रहा है.

यही नहीं, शायद अब सरकार को भी यह पता चल रहा है कि विध्वंसक कार्रवाइयां ज्यादा दिनों तक नहीं चलने वाली हैं. हाल ही में लखनऊ में कुकरैल नदी के किनारे रिवर फ्रंट से जुड़ी योजना को लेकर सैकड़ों घरों को फिर चिह्नित किया गया और ढहाने की तैयारी की जा रही थी लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोगों को आश्वासन दिया निजी जमीनों पर बने घर नहीं गिराए जाएंगे और दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई की जाएगी. चूंकि बड़ी संख्या में गिराए जा रहे घरों के मामले में यह बड़ा सवाल भी आया कि आखिर सालों से ये घर बनते कैसे चले गए.

नतीजों ने बदला मुख्यमंत्री का नजरिया?

मुख्यमंत्री के रुख में आए इस बदलाव को भी चुनावी नतीजों से ही जोड़कर देखा जा रहा है. लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल कहते हैं, "निश्चित तौर पर इस तरह के फैसले सरकार के खिलाफ जाते हैं. मकान वैध-अवैध कैसे हैं, ये तय करने का काम किसका है. तमाम विभागों में फैले भ्रष्टाचार के चलते सालों-साल ऐसे मकान बनते रहे तो इन्हें देखने की, जांच करने की जिम्मेदारी किसकी है? और अब अचानक बुलडोजर चलाकर गिरा देंगे तो लोग कहां जाएंगे?" शुक्ल का मानना है कि मुख्यमंत्री योगी ने इस खतरे को भांप लिया है कि सरकार को राजनीतिक फायदा और लोगों की नजरों में सहानुभूति तब बढ़ेगी जब ऐसी कॉलोनियों को बनने देने के दोषियों को पकड़कर सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करती है.

लोकसभा चुनाव तो केंद्र सरकार के काम-काज की परीक्षा थी, जबकि यूपी सरकार के काम की परीक्षा तो 2027 में होगी जब विधान सभा चुनाव होंगे. ऐसे में डिप्टी सीएम केशव मौर्य के बयान को जिस तरह आम कार्यकर्ताओं की आवाज के तौर पर प्रचारित किया गया और फिर उनका दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष और दूसरे नेताओं से मुलाकात को देखते हुए यह कहा जा रहा है कि यूपी में योगी बनाम मोदी-शाह की लड़ाई एक बार फिर सतह पर आ गई है. चुनाव से पहले भी टिकट वितरण को लेकर योगी की नाराजगी की काफी चर्चा थी.

केशव मौर्य जो भी बयान दे रहे हैं या जो कुछ भी कर रहे हैं, उसके पीछे केंद्रीय नेतृत्व की सहमति बताई जा रही है. ज्ञानेंद्र शुक्ल कहते हैं, "खेमेबाजी और खींचतान बीजेपी में चलती रहती है. कल्याण सिंह के समय में भी ऐसा होता था. हालांकि इन चीजों के नतीजे बीजेपी के लिए अच्छे नहीं रहे हैं और यदि इस समय भी ऐसा हो रहा है तो जाहिर है यह पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है लेकिन वो स्थिति दोहराती हुई दिखाई दे रही है.”

उत्तर प्रदेश में 2017 से चल रही है खींचतान

ज्ञानेंद्र शुक्ल आगे कहते हैं, "केशव की नाराजगी तो पहले से ही थी. 2017 के चुनाव के दौरान प्रदेश अध्यक्ष थे. उनके समर्थक मानते थे कि उनकी बड़ी भूमिका थी पार्टी को जिताने और सरकार बनवाने में. हालांकि उससे पहले लक्ष्मीकांत वाजपेयी की भी बड़ी भूमिका रही थी 2014 में लोकसभा में 72 सीटें दिलाने में. लेकिन दोनों ही नेता नेपथ्य में डाल दिए गए.

2017 से 2022 तक भी खींचतान दिखाई दे रही थी. पार्टी के सौ से ज्यादा विधायक धरने पर बैठ गए थे. लेकिन 2022 में जब योगी के नेतृत्व में दोबारा सरकार बन गई, केशव प्रसाद मौर्य चुनाव भी हार गए तो स्थितियां बदल गईं. हालांकि केशव के समर्थक सीधे तौर पर आरोप लगाते रहे कि उन्हें हराया गया. योगी की भूमिका पर भी सवाल उठे लेकिन नेताओं-कार्यकर्ताओं की नाराजगी के बावजूद नतीजे अच्छे आ रहे थे तो योगी का दबदबा बना रहा. पर अब जबकि 2024 में नतीजे ठीक नहीं आए हैं तो सवाल योगी पर भी उठ रहे हैं.”

यूपी में बीजेपी सरकार पर जो सबसे बड़े सवाल उठ रहे हैं और जिसे हार के प्रमुख कारणों में से एक गिना जा रहा है वो है- बेलगाम नौकरशाही. पार्टी के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों से लेकर एमपी और एमएलए तक ये आरोप लगा रहे हैं. पिछले कुछ दिनों में कई नेताओं ने तो खुले तौर पर ये बातें कही हैं. ज्ञानेंद्र शुक्ल भी इसे हार के प्रमुख कारणों में बताते हैं, "इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफसरों से पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी है. और देखा जाए तो ये बीजेपी की सरकारों का तरीका भी रहा है- नौकरशाही पर निर्भरता. एक तरह से इसे गुजरात मॉडल भी कह सकते हैं. पहले भी लोग शिकायत करते थे. कोई अभी की बात नहीं है. विधायक जब धरने पर बैठे थे तब भी सबसे बड़ा आरोप यही था कि नौकरशाही हावी है.”

लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके समर्थक हार का ठीकरा सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय नेतृत्व के सिर पर फोड़ने के मूड में हैं. बताया जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ के पीछे संघ परिवार भी है. योगी आदित्यनाथ ने साफ कहा है कि ‘अति आत्मविश्वास' हार के प्रमुख कारणों में से रहा है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, यह अति आत्म विश्वास सीधे तौर पर उस जगह निशाना लगा रहा है जहां से एक ही चेहरे पर चुनाव लड़ने की रणनीति बनी और जिस एक चेहरे पर लड़ने का फैसला हुआ.

ऐसी स्थिति में यूपी में योगी आदित्यनाथ को हटाकर किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनाना तो फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है लेकिन सरकार और संगठन में बदलाव के संकेत जरूर मिल रहे हैं. ज्ञानेंद्र शुक्ल के मुताबिक, "कोई बड़े बदलाव की उम्मीद तो नहीं है. क्योंकि बीजेपी के पक्ष में लोकसभा चुनाव के नतीजे होते तो कुछ हो भी सकता था लेकिन इस समय तो केंद्र में भी मजबूत सरकार नहीं है. इसलिए सरकार के स्तर पर तो नहीं लेकिन प्रदेश अध्यक्ष के स्तर पर शायद बदलाव हो. दूसरे, बीजेपी के पास संघ और सहयोगियों के चहेते के रूप में फिलहाल योगी आदित्यनाथ का कोई विकल्प भी नहीं है.”

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