झारखंड विधानसभा चुनाव नतीजे 2019: बीजेपी ने दोहराई हरियाणा और महाराष्ट्र वाली गलती, रिजल्ट भी आये वैसे ही
महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी का पूरा कैम्पेन कश्मीर से धारा 370 हटाने के इर्द-गिर्द ही था. महाराष्ट्र में ख़ास कर किसानों की समस्या बड़ी थी जिसे शरद पवार ने भुनाया और बीजेपी बहुमत से दूर रही.
Jharkhand Assembly Elections 2019: साल 2019 के सबसे आखिरी विधानसभा चुनाव यानी झारखंड विधानसभा चुनावों के नतीजे सोमवार को घोषित हुए. इन चुनावों में लोगों ने सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान किया. झारखंड मुक्ति मोर्चा सूबे में 30 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी हैं, वहीं कांग्रेस के 16 और RJD की 1 सीट मिलाए तो महागठबंधन की 47 सीट हो रही हैं. 81 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 41 है. सूबे में सत्ता पर काबिज बीजेपी 25 सीटों पर सिमित रह गई. आजसू को 2 सीट मिली.
राज्य की जनता ने हेमंत सोरेन के नेतृत्व पर भरोसा किया और उनके गठबंधन के पक्ष में मतदान किया. मगर जितनी चर्चा महागठबंधन के जीत की हो रही है उतनी ही चर्चा बीजेपी के हार की भी चल रही है. 2019 आम चुनावों में विपक्ष को पस्त करने वाली बीजेपी 7 महीनों में ही कैसे फेल हो गई यह चर्चा का विषय बना हुआ है. आइये आपको बताते है कि बीजेपी की सबसे बड़ी चूक कहां हुई.
हाल ही में हुए हरियाणा और महारष्ट्र विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों को छोड़ राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा. दोनों ही राज्यों में पार्टी बहुमत से दूर रही (हालांकि, महाराष्ट्र में उनके गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ मगर शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली). हरियाणा में पार्टी दुष्यंत चौटाला के सहारे सरकार बनाने में कामयाब रही.
महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी का पूरा कैम्पेन कश्मीर से धारा 370 हटाने के इर्द-गिर्द ही था. महाराष्ट्र में ख़ास कर किसानों की समस्या बड़ी थी जिसे शरद पवार ने भुनाया और बीजेपी बहुमत से दूर रही.
इन सभी चुनावों से एक बात तो साफ़ हो गयी कि जनता देश के चुनावों में तो राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करती हैं मगर राज्य के चुनावों में वोटिंग लोकल इशू पर ही होती है. हेमंत सोरेन ने बिलकुल वही किया. उन्होंने बीजेपी के राष्ट्रिय मुद्दों का जवाब क्षेत्रीय मुद्दों से दिया जो जनता को पसंद आया. मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों पर वोटिंग की.
2015 के बिहार चुनावों में भी कुछ ऐसा ही देखा गया था जब बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रचार की कमान संभाली थी और राज्य के नेताओं को उतनी तरजीह नहीं दी गयी थी.