एक छोटे-से विरोध की ‘चिंगारी’ बना देशव्यापी ‘चिपको आंदोलन’
इस आंदोलन का मुख्य केंद्र चमोली स्थित रेनी गांव था. वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे. यह खबर मिलते ही गांव के ही चंडी प्रसाद भट्ट ने लोगों को चेताया कि यदि पेड़ काटे गये तो पहाड़ों का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा.
एक छोटी-सी चिंगारी जब दावानल बनती है तो उसे रोक पाना नामुमकिन हो जाता है. ठीक ऐसे ही चमोली (उत्तराखंड) में पेड़ न काटने के छोटा सा विरोध आगे चलकर जब जन आंदोलन बन गया तो सरकार को बेबस होकर न केवल अपनी नीतियों में बदलाव लाना पड़ा बल्कि इसी से जुड़े पर्यावरण के प्रति भी सरकार को जागरुक किया. यह ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में विश्व भर में लोकप्रिय हुआ. 26 मार्च 1973 को शुरु हुआ ‘चिपको आंदोलन’ की हम 46वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. आइये जानें क्या था ‘चिपको आंदोलन’ और इससे जुड़े अन्य मुद्दे..
क्या है चिपको आंदोलन
इस आंदोलन का मुख्य केंद्र चमोली स्थित रेनी गांव था. वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे. यह खबर मिलते ही गांव के ही चंडी प्रसाद भट्ट ने लोगों को चेताया कि यदि पेड़ काटे गये तो पहाड़ों का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा. क्योंकि इससे पूर्व 1970 में आई भयंकर बाढ़ से जहां 400 कि०मी० का पूरा इलाका ध्वस्त हो गया, वहीं पांच बड़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बह जलप्रलय में बह गया. इससे 8.5 लाख एकड़ भूमि नष्ट हो गयी. साथ ही 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो चुका था.
फेल हुई सरकार की कूटनीति
15 मार्च को गांव वालों ने तो 24 मार्च को तो छात्रों ने भी रेनी जंगल की कटाई के विरोध प्रदर्शन किया. आंदोलन के बढ़ते स्वरूप को रोकने के लिए केंद्र की कांग्रेस सरकार ने एक चाल चली कि चमोली में सेना के लिए जिन-जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया, वे अपना मुआवजा ले जाएं. गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए, सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के बहाने जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुलाया. इसी समय ठेकेदार एवं वन अधिकारी जंगल में घुस गये. इस समय गांव में सिर्फ महिलाएं ही थीं. तब श्रीमती गौरादेवी 27 औरतें उन पेड़ों से चिपक गयीं जिसे काटने के लिए ठेकेदार आये थे.
पेड़ों को कटने से बचाने के लिए सरकार के खिलाफ यह आंदोलन बाद में ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से मशहूर हुआ. इस तरह 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई। इस आंदोलन के प्रणेता बने सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और गौरादेवी आदि इसे देशव्यापी आंदोलन बनाने के लिये दूसरे प्रदेशों में भी गये. इस आंदोलन की वजह से सुंदरलाल बहुगुणा को जहां ‘वृक्षमित्र’ की उपाधि मिली वहीं गौरा देवी 'चिपको विमन' के नाम से जानी जाने लगीं.
आंदोलन की सफलता का श्रेय मिला पुरुषों को
चिपको आंदोलन को ‘ईको-फेमिनिस्ट’ के नाम से भी जाना जाता है. लोग मानते हैं कि इस आंदोलन में महिलाएं सक्रिय नहीं होती तो यह कभी सफल नहीं होता. लेकिन इसका श्रेय सुंदरलाल बहुगुणा एवं चंडी प्रसाद भट्ट जी को मिला, जिन्हें चिपको आंदोलन के नाम पर रेमन, मैगसेसे, गांधी शांति पुरस्कार पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. यह ठीक है कि इऩ महापुरुषों ने भी इस आंदोलन में अपना सबकुछ झोंक दिया था, मगर जिन महिलाओं ने इस आंदोलन की जमीन तैयार की, उनके बारे में कोई क्यों नहीं जानता.
एक मशहूर एक्टिविस्ट वंदना शिवा ने अपनी पुस्तक ‘स्टेइंग अलाइव: वीमेन इकोलॉजी एंड सर्वाइवल इन इंडिया’ में चिपको आंदोलन के संदर्भ में लिखा है कि इनकी वजह से छोटा-सा विरोध एक बड़े आंदोलन में तब्दील हो सका. चिपको आंदोलन वस्तुतः मीरा बेन, सरला बेन, बिमला बेन, हिमा देवी, गौरा देवी, गंगा देवी, बचना देवी, इतवारी देवी, छमुन देवी जैसी महिलाओं का आंदोलन कहा जाता है. लेकिन चर्चाओं में केवल पुरुषों का नाम आता है.
आंदोलन की उपलब्धियां
चमोली से शुरु हुआ यह आन्दोलन 1980 में तब सुर्खियों में आया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए प्रतिबंध लगा दिया. बाद में यह आन्दोलन बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और मध्य भारत में विंध्य तक फैल गया. इस आंदोलन की विशेष उपलब्धियां यह रही कि जन-जन को पर्यावरण के प्रति सचेत कराया साथ ही केंद्रीय राजनीति का यह मुख्य एजेंडा बना. इस आंदोलन की वजह से भारत में 1980 का ‘वन संरक्षण अधिनियम’ और केंद्र सरकार में ‘पर्यावरण मंत्रालय’ शुरू करवाने में भी सफल रहा.