संगीत सम्राट नौशाद अली के 8 क्लासिकल गानें जो दर्शाते हैं कि उनमें प्रयोग करने की अद्भुत क्षमता थी, जिसने हिंदी सिनेमा संगीत का पूरा परिदृश्य बदल दिया!
‘जब प्यार किया तो डरना क्या...’ विषम परिस्थितियों और विरोधों के बीच किसी गीत को प्रेम में पिरोने की कला सबके बस की बात नहीं होती. मुगल-ए-आजम फिल्म का यह गीत नौशाद साहब की इसी क्षमता को दर्शाता है, जो प्रेम में विश्वास नहीं खोने के लिए प्रेरित करता है.
‘जब प्यार किया तो डरना क्या...’ विषम परिस्थितियों और विरोधों के बीच किसी गीत को प्रेम में पिरोने की कला सबके बस की बात नहीं होती. मुगल-ए-आजम फिल्म का यह गीत नौशाद साहब की इसी क्षमता को दर्शाता है, जो प्रेम में विश्वास नहीं खोने के लिए प्रेरित करता है. इन्हीं कारणों से आज की पीढ़ी भी इस गाने को उतना ही पसंद करती है, जितना 60 के दशक में की जाती थी. नौशाद जी ने भारतीय संगीत को इतनी सहजता से प्रस्तुत किया कि हिंदी सिनेमा में एक क्रांति सी आ गई, जिसने सिनेमा संगीत के पूरे परिदृश्य को बदल दिया.
नौशाद अली का जन्म 25 दिसंबर 1919 को लखनऊ में हुआ था. छोटी उम्र से उन्होंने उस्ताद घुरबत अली, उस्ताद युसूफ अली, उस्ताद बब्बन साहब जैसों की उस्तादी में ना केवल हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखा, बल्कि संगीत रचना भी शुरू कर दिया था. 1930 में भारत में टाकीजों का सिलसिला शुरू हुआ था, नन्हें नौशाद को मानों कल्पनाओं के पर मिल गये. परिवार के विरुद्ध जाकर वह थियेटर से जुड़े, इतने में मन नहीं माना तो एक रात 1937 में अपनी कल्पनाओं को साकार करने लखनऊ से भागकर बंबई (अब मुंबई) पहुंच गए. वे बंबई तो पहुंच गये, मगर ठौर-ठिकाना नहीं होने से काफी रातें दादर पूर्व (मुंबई) ब्रॉडवे थियेटर के सामने फुटपाथ पर सोकर गुजारी. छोटी-मोटी विफलताओं के बीच मिली फिल्म ‘रतन’ के संगीत के बाद नौशाद साहब हिंदी सिनेमा के रतन बनकर उभरे. वे चाहते तो सैकड़ों फिल्में अपने नाम कर लेते, लेकिन काम से समझौता नहीं की जिद थी कि 64 साल के करियर में मात्र 67 फिल्में उनके खाते में दर्ज हुईं. नौशाद साहब की 16वीं पुण्य-तिथि (निधन 5 मई 2006) पर हम उनके 8 अमर गीतों की बात करेंगे, जिसके लिए नये-नये प्रयोग कर अपनी फिल्म के गानों को सदाबहार गानों के आवरण में ढक दिया.
* ‘सुहानी रात ढल चुकी ना जानें तुम कब आओगे…’ (दुलारी 1994)
फिल्म दुलारी के इस गीत ने नौशाद-मो रफी की एक एक अमर जोड़ी तैयार करने का बड़ा मंच दिया था. फिल्म तो बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर हिट हुई ही, मगर कालांतर में यह जोड़ी उससे भी बड़ी हिट साबित हुई.
* ‘आज गावत मन मैरो…’ (बैजू बावरा 1952)
सही मायने में बतौर संगीतकार नौशाद के लिए यह फिल्म एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि परदे की जोड़ी बहुत स्टार नहीं थी. लेकिन फिल्म रिलीज होने से पहले ही बैजूबावरा नौशाद जी की अमर फिल्मों में एक बन चुकी थी. देश के अधिकांश थियेटरों में यह फिल्म 100-100 सप्ताह चली. इस फिल्म ने नौशाद का सात समंदर पार तक पहुंचा दिया.
* ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे…’ (मुगल-ए-आजम 1958)
यूं तो नौशाद साहब ने इससे पूर्व भी तमाम हिट शास्त्रीय गीत-संगीत रचे थे, लेकिन इस गाने में उन्होंने अपनी पूरी कुशलता का उपयोग करते हुए जिस तरह से लता मंगेशकर के साथ 100 कोरस का इस्तेमाल कर गाने को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया, वह अवर्णनीय कहा जायेगा.
* ‘नैन लड़ जइहें तो मनवा कि मनवा मा…’ (गंगा जमुना)
हर तरह के गानों को सैल्यूलाइड पर उतारने में माहिर नौशाद साहब ने इस फिल्म में जिस तरह से लोक संगीत को संगीत की मुख्यधारा में जोड़कर अमर बनाया, वैसा उदाहरण कम ही देखने को मिलता है. इस गाने के संदर्भ में स्व. दिलीप कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि नौशाद साहब ने धुन ही ऐसी रची थी, कि लोकेशन पर स्पीकर पर गाना बजते ही पैर थिरकने लगते थे, हमारे लिए कोरियोग्राफर को ज्यादा मेहनत करने की जरूरत ही नहीं पड़ी.
* चले आज तुम जहां से, हुई जिंदगी पराई (उड़न खटोला, 1955)
दिलीप कुमार अभिनीत उड़न खटोला नौशाद साहब की एक और संगीत प्रधान फिल्म थी. इस फिल्म में भी नौशाद जी ने उम्दा प्रयोग किये थे. यह मो रफी की पहला सोलो गाना था, जिसमें उनकी संपूर्ण प्रतिभा उभर कर आई. जानकार तो यहां तक बताते हैं कि नौशाद जी ने इस गाने में राग भीम पलासी बेहतर तरह से उभारने के लिए मो रफी से इस गाने को सात बार गवाया था.
* 'दिल की महफ़िल सजी है, चले आइये…' (साज़ और आवाज़, 1966)
नौशाद जी के साथ रफी जी की गजब की केमिस्ट्री थी. वे एक दूसरे के विकल्प ही थे. इस युगल ने लोकगीत से लेकर भजन और क्लासिकल तक हर तरह के गाने गाये. यह गीत इस बात का एक और उदाहरण है कि नौशाद कितनी अच्छी तरह रफ़ी की बहुमुखी प्रतिभा का उपयोग करना जानते थे और गीत में उस प्रभावशाली प्रभाव को सामने लाना जानते थे.
* 'अपनी आजादी को हम…'(नेता, 1964)
नौशाद जी की धुनों में जो पारंपरिक क्लासिक शैली होती है, उसकी तुलना में उन्होंने एक प्रयोग किया था कि इस देश-भक्ति गीत में उन्होंने पश्चिमी आर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था, जो बैक ग्राउंड में आसानी से सुनी जा सकती है. उनका यह प्रयोग कितना सफल रहा बताने की जरूरत नहीं.
* ‘नज़रिया की मारी मरी मरी गुइयां...’ (पाकीज़ा, 1972)
पाकीजा के अगर संगीत पक्ष को देखा जाये तो यह फिल्म कई कारणों से एक क्लासिक फिल्म थी. इसके अधिकांश गाने गुलाम मोहम्मद द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन कहा जाता है कि बाद में नौशाद को फिल्म के गानों में आवश्यक सुधार लाने के लिए कहा गया था. 'नजरिया की मारी..' इस गाने में उन्होंने जो ठुमरी पीस जोड़ी, उसे संगीत श्रोताओं ने काफी सराहा.