ऑस्ट्रेलिया, जापान और युनाइटेड किंग्डम में हुए एक अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने पाया है कि महिलाएं बराबर वेतन के साथ-साथ बराबर सम्मान पाने के लिए भी संघर्ष कर रही हैंसिडनी यूनिवर्सिटी और ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक शोध के बाद पाया है कि महिलाओं का काम की एवज में पुरुषों से वेतन व सम्मान दोनों ही कम मिलते हैं. 2017 में हुए एक ऐसे ही अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए शोधकर्ताओं ने जब दोबारा अध्ययन किया तो पाया कि महिलाओं के वेतन और सम्मान के मामले में ऑस्ट्रेलिया में कम ही प्रगति हुई है. #MeToo आंदोलनों और कोविड महामारी के बाद कार्यक्षेत्रों में आए बड़े बदलावों का भी इन परिस्थितियों पर कोई ज्यादा असर नहीं हुआ है.
सिडनी यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर रे कूपर ने कहा कि इस शोध के नतीजे दिखाते हैं कि अपने पुरुष सहकर्मियों के समान वेतन और काम के मौके हासिल करने के संघर्ष में कामकाजी महिलाओं को निराशा ही हासिल हुई है.
उन्होंने कहा, "महिलाएं हमें बता रही हैं कि वे हर बार निचले दर्जे पर आंके जाने और मौके छीने जाने से तंग आ चुकी हैं. कानून जरूरी हैं लेकिन काफी नहीं हैं. हमें हमारी संस्थाओं में मौजूद व्यवस्थागत भेदभाव और संस्कृति के बारे में सोचना होगा जो महिलाओं को कम करके आंकते हैं और उनके साथ भेदभाव करते हैं. यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि उत्पादका बढ़ाने के लिए हमें इस पीढ़ी की युवा महिलाओं को ना सिर्फ कार्यक्षेत्र में लाना होगा बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे अपने काम में खुश हों और उनके योगदान की कीमत समझी जाए.”
सुरक्षित नौकरी की इच्छा
इस अध्ययन में ऑस्ट्रेलिया, यूके और जापान में 40 वर्ष से कम आयु के 1,000 पुरुषों और 1,000 महिलाओं के साथ बात की गयी. विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि तीनों देशों में भावनाओं और उम्मीदों में काफी समानताएं हैं. 71 प्रतिशत पुरुषों ने माना कि उनकी मौजूदा नौकरी में महिलाओं और पुरुषों की बात बराबर सुनी जाती है, जबकि महिलाओं में ऐसा 61 फीसदी को लगता था. 71 प्रतिशत पुरुषों ने इस बात पर सहमति जतायी कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर ही प्रमोशन के मौके मिलते हैं, जबकि महिलाओं में सहमति की दर 62 फीसदी थी.
शोधकर्ताओं में से एक ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर आड्रियान व्रोमन कहती हैं कि कोविड महामारी के बाद 40 साल से कम आयु के कर्मचारियों को बड़े बदलावों से गुजरना पड़ रहा है. वह कहती हैं, "हमारे सर्वेक्षण के मुताबिक नौकरी की सुरक्षा महिलाओं और पुरुषों, दोनों के लिए सबसे बड़ी चिंता है लेकिन इस सुरक्षा को हासिल करने में बहुत बड़ी चुनौतियां हैं.”
उम्रदराज कर्मचारियों के मुकाबले युवाओं के लिए कच्ची नौकरी पर रखे जाने की संभावना ज्यादा होती है, जिसकी वजह से उन्हें काम के निश्चित घंटे, बीमारी की छुट्टी या सालाना छुट्टी जैसी सुविधाएं नहीं मिल पातीं.
प्रोफेसर व्रोमन कहती हैं, "कोविड महामारी के दौरान आधे से ज्यादा कर्मचारियों पर घर से काम थोपा गया लेकिन उस अनुभव से 40 वर्ष से कम आयु के कर्मचारियों के लिए भविष्य की प्राथमिकताएं बदली हैं. महामारी से पहले 52 प्रतिशत पुरुषों और 62 प्रतिशत महिलाओं ने कभी घर से काम नहीं किया था.”
प्राथमिकताओं में फर्क
सर्वेक्षण के नतीजे कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में 40 वर्ष से कम आयु के 77 फीसदी लोग हफ्ते में कम से कम एक दिन घर से काम करना चाहते हैं. लेकिन अभी 44 प्रतिशत पुरुष और 38 फीसदी महिलाएं ही ऐसा कर पा रहे हैं. प्रोफेसर व्रोमन कहती हैं, "तंग लेबर मार्केट में ऐसी प्राथमिकताओं के गंभीर नतीजे हो सकते हैं. भविष्य में अधिकतर नौकरियां देखभाल और सेवा क्षेत्र में होंगी. इन सभी में लोगों को खुद जाकर काम करना होगा. अब नियोक्ताओं को सोचना होगा कि वे कैसे सप्लाई और डिमांड दोनों में संतुलन बना पाएंगे और कैसे युवाओं को काम में ज्यादा संतुलन दे पाएंगे.”
सिडनी यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर एलिजाबेथ हिल कहती हैं कि काम में सम्मान कम मिलने का असर यह होता है कि महिलाएं दफ्तरों में काम में कम भागीदारी करती हैं. शोधकर्ताओं में से एक प्रोफेसर हिल कहती हैं, "काम के लिए सम्मान की बात महिलाओं द्वारा उठाए जाने की संभावना ज्यादा थी. यह उनकी पहली इच्छा थी, नौकरी की सुरक्षा, लचीलापन और वेतन से भी ज्यादा.”
प्रोफेसर हिल के मुताबिक महिलाएं महंगाई को लेकर भी ज्यादा चिंतित होती हैं, खासकर जब वे परिवार शुरू करने के बारे में सोच रही हों. उन्होंने कहा, "ऐसी महिलाओं की संख्या पुरुषों से कहीं ज्यादा थी जो परिवार नियोजन में चाइल्ड केयर की सुविधा को ज्यादा ध्यान में रखती हैं. इससे पता चलता है कि देखभाल संबंधी ऐसे काम में पुरुषों और महिलाओं की उम्मीदों में कितना फर्क है, जिसके लिए कोई वेतन नहीं मिलता.”