ऑस्ट्रेलिया में इस साल होने वाले जनमत संग्रह को लेकर स्थानीय राजनीति तो गरमा ही रही है, कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत जैसे देश भी इस जनमत संग्रह के नतीजों पर करीबी निगाह बनाये हुए हैं.ऑस्ट्रेलिया में होने वाले जनमत संग्रह को लेकर देश में खासी हलचल है. आदिवासियों को संसद में स्थायी जगह देने के मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष के लोग अपने-अपने कुनबे को बढ़ाने में लगे हुए हैं. लेकिन बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि इस जनमत संग्रह पर दुनियाभर की नजर है और भारत जैसे ऑस्ट्रेलिया के सहयोगियों की नतीजों में खासी दिलचस्पी हो सकती है, क्योंकि इसका असर भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों पर भी पड़ सकता है.
ऑस्ट्रेलिया में इसी साल होने वाले एक जनमत संग्रह में इस बात पर फैसला होना है कि ऐतिहासिक रूप से शोषित देश के मूल निवासियों को संसद में एक स्थायी समिति दी जाए ताकि वे उनसे जुड़े हर फैसले पर अपनी राय दे सकें.
इस समिति को 'वॉइस' नाम दिया गया है और देश का जनमत इस मुद्दे पर काफी हद तक बंटा हुआ है. सरकार वॉइस की स्थापना के समर्थन में अभियान चला रही है लेकिन एक बहुत बड़ा समुदाय उसका विरोध कर रहा है.
भारत की नजर नतीजों पर
कुबेरनाइन इनिशिएटिव नामक संस्था की संस्थापक-निदेशक और भू-राजनीतिक विश्लेषक अंबिका विश्वनाथ मानती हैं कि इस जनमत संग्रह के नतीजे तय करेंगे कि ऑस्ट्रेलिया के दोस्त उसे कैसे देखते हैं, और भारत उनमें से एक होगा.
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‘द कनवर्सेशन' पत्रिका में एक लेख में विश्वनाथ कहती हैं, "भारत यस या नौ कैंपेन के जरिये ऑस्ट्रेलिया के अंदरूनी मामलों में शामिल नहीं होगा लेकिन नतीजों का विश्लेषण जरूर करेगा. अपने अंदरूनी मामलों को लेकर भारत खासा दबाव झेल रहा है. लोगों को लग सकता है कि विभिन्न देशों के लिए मूल्यों और सिद्धांतों की परिभाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन अपने मूल निवासियों को संवैधानिक मान्यता ना देना समीकरण बदलने वाला हो सकता है.”
भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों और मीडिया की आजादीजैसे मुद्दों को लेकर ऑस्ट्रेलिया के नेता स्पष्ट शब्दों में तो नहीं लेकिन दबी आवाज में बोलते रहे हैं. ऐसे में विशेषज्ञों को लगता है कि यदि ऑस्ट्रेलिया अपने मूल निवासियों को अधिकार देने में नाकाम रहता है, तो उसकी कही बात का भारतीयों के लिए वजन कम हो सकता है.
भारतीयों की दिलचस्पी
दरअसल, यह जनमत संग्रह 60 हजार साल से ऑस्ट्रेलिया में रह रहे मूल निवासियों को संवैधानिक रूप से ज्यादा मान्यता और अधिकार देने के लिए है. 122 साल पुराने संविधान में उनका जिक्र तक नहीं है. इसलिए यह जनमत संग्रह आयोजित किया जा रहा है. ऑस्ट्रेलिया के संविधान में किसी भी बदलाव के लिए जनमत संग्रह अनिवार्य है.
ऑस्ट्रेलिया में तेजी से बढ़ता भारतीय समुदाय भी इस जनमत संग्रह को लेकर खासा उत्सुक है. एशियाई मूल के लोगों का एक संगठन मूल निवासियों के समर्थन में एकजुट हुआ है. ‘देसीज फॉर यस' नाम से यह संगठन ‘वॉइस टु पार्लियामेंट' के समर्थन में दक्षिण एशियाई मूल के ऑस्ट्रेलियाई लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहा है.
‘देसीज फॉर यस' के संस्थापकों का कहना है कि वे वॉइस के बारे में सूचनाओं को दक्षिण एशियाई समुदाय के लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं ताकि वे यस कैंपेन के समर्थन में वोट करें.
रेडिकल सेंटर रिफॉर्म लैब नामक संगठन की निदेशक और एक वकील डॉ. शिरीन मोरिस कहती हैं, "मूल निवासियों को संवैधानिक मान्यता की जरूरत के बारे में जागरूकता जितनी बढ़ेगी, उसका समर्थन उतना ही बढ़ता जाएगा. यह देखना अद्भुत है कि इतने सारे दक्षिण एशियाई ऑस्ट्रेलियाई इस अभियान का हिस्सा बनने के लिए साथ आ रहे हैं.”
भारत से तुलना
ऑस्ट्रेलियाई कॉलमनिस्ट और विश्लेषक डीजे टॉम वॉइस के लिए हो रहे जनमत संग्रह की तुलना भारत में मंडल कमीशन द्वारा लाये गये दलित आरक्षण से करते हैं और ऑस्ट्रेलिया को भारत से सीख लेने को भी कहते हैं.
‘स्पेक्टेटर' पत्रिका में लिखे एक लेख में टॉम कहते हैं कि वॉइस के मूल में ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा झेले जा रहे भेदभाव को दूर करना है, ठीक उसी तरह जैसे आरक्षण के जरिये दलितों के हालात बेहतर बनाने की कोशिश की गयी थी.
टॉम कहते हैं, "शुरुआत में भारत की नीति का मकसद दलितों के साथ ऐतिहासिक भेदभाव की गलती को सुधारना और सार्वजनिक शिक्षा व रोजगार में उन्हें आरक्षण देना था. फिर भी, उस कदम का जमकर विरोध हुआ, हड़तालें हुईं और लोगों ने खुद को आग तक लगा लगी. बहुत से लोग उस कदम को ‘उलटा भेदभाव' कहते हैं. ऑस्ट्रेलिया में भी आलोचकों का यही तर्क है और वे कहते हैं कि वॉइस लोगों को साथ लाने की जगह बंटवारे की वजह बन सकती है.”