भारत में नियुक्ति से ज्यादा कठिन है जजों को हटाने की प्रक्रिया!
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर कुमार यादव के आपत्तिजनक बयानों के खिलाफ विपक्ष महाभियोग लाने की तैयारी में है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर कुमार यादव के आपत्तिजनक बयानों के खिलाफ विपक्ष महाभियोग लाने की तैयारी में है. क्या संसद में महाभियोग प्रस्ताव पारित हो पाएगा? इससे पहले क्या किसी जज को इस प्रक्रिया के जरिए हटाया गया है?इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर कुमार यादव अपने विवादित बयानों के कारण मुश्किल में फंसते नजर आ रहे हैं. एक ओर सुप्रीम कोर्ट ने उनके बयान का संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट से पूरी जानकारी तलब की है, तो दूसरी ओर संसद में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही है. यदि यह महाभियोग संसद के दोनों सदनों से पारित हो जाता है, तो उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा. हालांकि, यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है.
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राज्यसभा सदस्य और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग की मांग की और उसके बाद ही इसकी तैयारी शुरू हो गई. कपिल सिब्बल ने अपील की है कि महाभियोग के लिए सत्ता पक्ष के लोग भी साथ जुड़ें क्योंकि एक न्यायाधीश का ऐसा भाषण न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाता है.
कपिल सिब्बल ने कहा कि हाईकोर्ट के न्यायाधीश जैसे पद पर बैठे लोगों के ऐसे बयानों के कारण आम जनता का विश्वास न्यायपालिका के प्रति कमजोर हो सकता है, इसलिए उनके खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं है, क्योंकि उनका बयान हर तरह से नफरत फैलाने वाला है.
कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने 11 दिसंबर को कहा था कि महाभियोग के लिए संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में ही नोटिस दिया जाएगा. महाभियोग के लिए अब तक राज्यसभा के 30 से ज्यादा सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं. हाईकोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए लोकसभा के 100 या फिर राज्यसभा के कम-से-कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर की जरूरत होती है.
न्यायाधीश शेखर कुमार यादव के किस बयान पर आपत्ति?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव 8 दिसंबर को विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे. यह कार्यक्रम हाईकोर्ट परिसर में ही वीएचपी के विधि प्रकोष्ठ की ओर से आयोजित किया गया था. इस सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना है. इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा था कि हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश का कानून चलेगा.
उनका कहना था, "मुझे ये कहने में बिल्कुल गुरेज नहीं है कि ये हिंदुस्तान है. हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा. यही कानून है. परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिए. जहां पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं उसी को माना जाता है. कठमुल्ले, देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. उनसे सावधान रहने की जरूरत है."
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जस्टिस शेखर यादव के इन बयानों की आलोचना हो रही है. राजनीतिक दलों के अलावा कानूनी जानकारों ने भी उनके बयान पर सवाल उठाए हैं. सुप्रीम कोर्ट की जानी-मानी वकील इंदिरा जयसिंह ने इस बात पर हैरानी जताई है कि हाईकोर्ट के परिसर में किसी धार्मिक संगठन की बैठक कैसे आयोजित की गई और आयोजित भी की गई, तो उसमें हाईकोर्ट के जज कैसे शामिल हो गए. इस कार्यक्रम में इलाहाबाद हाईकोर्ट के ही एक और मौजूदा जज जस्टिस दिनेश पाठक भी शामिल हुए थे.
इंदिरा जयसिंह ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है, "एक मौजूदा न्यायाधीश के लिए अपने राजनीतिक एजेंडे पर एक हिंदू संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग लेना कितनी शर्म की बात है."
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को हटाने की प्रक्रिया
जस्टिस शेखर यादव के इन बयानों का सुप्रीम कोर्ट ने भी संज्ञान लिया है और अब संसद में उनके खिलाफ महाभियोग लाने की भी तैयारी हो रही है. दरअसल, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को संसद में महाभियोग के जरिये ही हटाया जा सकता है. संविधान के अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया और अनुच्छेद 218 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है. यह प्रक्रिया बहुत कठोर और जटिल है.
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दोनों ही न्यायालयों के जजों को संसद में महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है. महाभियोग भी तभी लाया जा सकता है, जब उनके खिलाफ भ्रष्टाचार, कदाचार या फिर अक्षमता जैसे आरोप लगते हैं. जजों को हटाने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल है. जजेज (इन्क्वॉयरी) ऐक्ट 1968 कहता है कि मुख्य न्यायाधीश या अन्य किसी जज को केवल अनाचार या अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है, लेकिन इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है.
किसी जज के खिलाफ महाभियोग संसद के किसी भी सदन यानी लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जा सकता है. प्रस्ताव यदि लोकसभा में पेश किया जा रहा है, तो उसमें लोकसभा के कम-से-कम 100 सदस्यों और यदि राज्यसभा में पेश किया जा रहा है, तो राज्यसभा के कम-से-कम 50 सदस्यों का समर्थन आवश्यक है.
इसके बाद प्रस्ताव को राज्यसभा के सभापति या लोकसभा स्पीकर के सामने पेश किया जाता है. सभापति या स्पीकर प्रस्ताव की प्रारंभिक जांच के लिए एक जांच समिति का गठन करते हैं. समिति में सुप्रीम कोर्ट के एक जज, हाईकोर्ट के एक चीफ जस्टिस और एक विधि विशेषज्ञ शामिल होते हैं. समिति जज के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच करती है और अपनी रिपोर्ट देती है. यदि समिति की रिपोर्ट में आरोप सही पाए जाते हैं, तो संसद में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया जाता है.
प्रस्ताव पेश होने के बाद भी उसका पारित होना इतना आसान नहीं है क्योंकि प्रस्ताव पारित होने के लिए दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है. हां, यदि दोनों सदन इसे दो-तिहाई बहुमत से पास करते देते हैं, तो इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है. फिर राष्ट्रपति की मंजूरी से संबंधित जज को उनके पद से हटा दिया जाता है.
क्या पहले भी इस प्रक्रिया के तहत किसी जज को हटाया गया?
स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज तक एक भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है. यानी, किसी भी जज को महाभियोग के जरिए नहीं हटाया गया है. साल 1991 में देश के इतिहास में पहली बार किसी जज को महाभियोग का सामना करना पड़ा, जब सुप्रीम कोर्ट के जज वी रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर महाभियोग लाया गया.
उनके खिलाफ साल 1990 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के आधार पर पद से हटाने के लिये महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था. यह प्रस्ताव लोकसभा में पास नहीं हो सका.
दूसरी बार महाभियोग कोलकाता हाई कोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ लाया गया. उनपर साल 1983 के एक मामले के आधार पर कदाचार के आरोप में महाभियोग लाया गया था. उक्त अवधि में वह वकील थे. उन्हें रुपयों की हेरा-फेरी और कोलकता की एक अदालत के सामने तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने के आरोप में दोषी ठहराया गया था.
यह भारत में महाभियोग का अकेला ऐसा मामला है, जो राज्यसभा में पारित होकर लोकसभा तक पहुंचा था. हालांकि, लोकसभा में इसपर मतदान होने से पहले ही सौमित्र सेन ने इस्तीफा दे दिया था. राष्ट्रपति को भेजे अपने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा था कि वह किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के दोषी नहीं हैं.
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर भी महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया. उनपर विपक्षी दलों ने दुर्व्यवहार का आरोप लगाया, लेकिन राज्यसभा के तत्कालीन सभापति ने उसे खारिज कर दिया.
इसके अलावा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एस.के. गंगले, गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे.बी. पार्दीवाला और आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सी.वी नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही की प्रक्रिया शुरू हुई थी, लेकिन पूरी नहीं हो पाई.
जजों की नियुक्ति अपेक्षाकृत कहीं आसान है
यहां दिलचस्प बात यह है कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी जटिल नहीं है, बल्कि इसकी तुलना में बेहद आसान है. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति एक कोलेजियम के जरिए होती है. हाईकोर्ट के जज के लिए वकालत में 10 साल का अनुभव होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के लिए जरूरी है कि उम्मीदवार हाईकोर्ट में कम-से-कम 5 साल तक या तो जज रह चुका हो या फिर हाईकोर्ट में कम-से-कम 10 साल तक वकालत की हो. राज्यों की न्यायिक सेवाओं के जरिए आने वाले जज भी हाईकोर्ट में जज बन सकते हैं, लेकिन ये सब तय होता है कोलेजियम से.
कोलेजियम में भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का पैनल होता है. यही कॉलेजियम सभी राज्यों में हाईकोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति भी करता है. कोलेजियम ही यह फैसला भी लेता है कि हाई कोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सुप्रीम कोर्ट भेजे जाएंगे.
जहां तक जजों के आचरण का सवाल है, तो इसका स्पष्ट रूप में कहीं लिखित उल्लेख नहीं है. जजेज इन्क्वॉयरी ऐक्ट 1968 में भी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है. ऐसे में शेखर यादव के ये भाषण उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही का पर्याप्त आधार बनते हैं या नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट कवर करने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार प्रभाकर कुमार मिश्र कहते हैं, "दरअसल, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वो ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिसकी इजाजत संविधान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा नहीं देता है. हालांकि, इसके खिलाफ स्पष्ट रूप से कुछ लिखा नहीं है. वो इसलिए नहीं है कि व्यवस्था बनाने वालों के दिमाग में आया नहीं होगा कि वो ऐसा कर भी सकते हैं. जिसके ऊपर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई है, ये समझा गया होगा कि वो तो इसका पालन करेगा ही. सारी चीजें लिखी ही नहीं जातीं."
जस्टिस शेखर यादव पहले भी अपने बयानों के कारण चर्चा में आ चुके हैं. साल 2021 में गोकशी से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था कि "मौजूदा हालात को देखते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए और गाय की सुरक्षा को हिंदू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए." जस्टिस शेखर यादव यह दावा भी कर चुके हैं कि गाय एक मात्र पशु है जो ऑक्सीजन छोड़ती है.