देश की खबरें | इस तथ्य के प्रति सचेत रहना होगा कि विवाह की अवधारणा विकसित हो गई है: उच्चतम न्यायालय

नयी दिल्ली, नौ मई उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि उसे इस तथ्य के प्रति सचेत रहना होगा कि विवाह की अवधारणा विकसित हो गई है और उसे इस मूल चीज को स्वीकार करना चाहिए कि विवाह स्वयं संवैधानिक संरक्षण का हकदार है क्योंकि यह केवल वैधानिक मान्यता का मामला नहीं है।

प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने समलैंगिक विवाह के लिए कानूनी मान्यता की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह तर्क देना "दूर की कौड़ी" होगा कि संविधान के तहत शादी करने का कोई अधिकार नहीं है, जो (संविधान) स्वयं में ‘‘परंपराभंजक’’ है।

मध्य प्रदेश की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि विषमलैंगिक युगलों को रीति-रिवाज, व्यक्तिगत कानून और धर्म के अनुसार शादी करने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि यह जारी रहा है और यह उनके अधिकार की नींव है।

उन्होंने न्यायालय से बार-बार आग्रह किया कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे को विधायिका पर छोड़ दिया जाए।

पीठ में न्यायमूर्ति एस के कौल, न्यायमूर्ति एस आर भट, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति हिमा कोहली भी शामिल हैं।

न्यायालय ने मामले में आठवें दिन की सुनवाई के दौरान कहा, ‘‘राज्य के कई अन्य हित हैं इसलिए यह विवाह के पहलुओं को नियंत्रित करता है। लेकिन हमें इस मूल प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए कि विवाह अपने आप में एक ऐसी चीज है जो संवैधानिक संरक्षण का हकदार है और यह केवल वैधानिक मान्यता का मामला नहीं है।’’

इस मुद्दे पर विचार करते हुए कि क्या किसी व्यक्ति को शादी करने का अधिकार है, पीठ ने कहा कि इसे इस आधार के साथ शुरू करना होगा कि कोई अयोग्य अधिकार नहीं है।

पीठ ने कहा कि स्वतंत्रता के साथ बोलने का अधिकार, साहचर्य का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार और जीवन का अधिकार अयोग्य नहीं है और इसलिए, "कोई अयोग्य और पूर्ण अधिकार नहीं है"।

न्यायमूर्ति भट ने कहा कि अंतर-जातीय विवाह की अनुमति नहीं थी और अंतर-धार्मिक विवाह 50 साल पहले अनसुना था।

उन्होंने कहा, "संविधान अपने आप में परंपराभंजक है क्योंकि पहली बार आप अनुच्छेद 14 लाए हैं। इसलिए यदि आप अनुच्छेद 14, 15 और सबसे महत्वपूर्ण 17 लाए हैं, तो वे परंपराएं टूट गई हैं।"

अनुच्छेद 14 जहां कानून के समक्ष समानता से संबंधित है, वहीं अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के निषेध से संबंधित है। संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता के उन्मूलन से संबंधित है।

न्यायमूर्ति भट ने कहा, "अगर वे परंपराएं टूटी हैं, तो जाति के मामले में हमारे समाज में क्या पवित्र माना जाता है? हमने एक सचेत विराम दिया और कहा कि हम इसे नहीं चाहते हैं। हम संविधान में अस्पृश्यता का उन्मूलन करने और इसे गैरकानूनी घोषित करने की हद तक चले गए हैं।"

उन्होंने कहा, "लेकिन साथ ही हमें इस तथ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए कि शादी की अवधारणा विकसित हो गई है, जो आपने खुद कहा था।"

द्विवेदी ने तर्क दिया कि बदलाव विधायिका द्वारा लाए गए हैं जो निश्चित रूप से रीति-रिवाजों को बदल सकते हैं।

उन्होंने कहा, "वर्षों से विवाह एक सामाजिक संस्था बन गया है। ऐसा नहीं है कि रातोंरात कुछ हो रहा है और दो लोग अचानक आ रहे हैं और कह रहे हैं कि यह एक विवाह है। इसलिए, यह एक लंबा समय रहा है जब विवाह की संस्था समाज के विकास के परिणामस्वरूप उभरी है।"

द्विवेदी ने कहा कि बहुत सारे विकास हुए हैं और मुद्दा यह है कि ये सभी सुधार विधायिका द्वारा महिलाओं और बच्चों के हित में किए गए थे और वे मौलिक पहलू, विवाह की सामाजिक संस्था के मौजूदा मूल पहलू को नहीं बदलते हैं।

उन्होंने तर्क दिया, "शादी का मुख्य पहलू क्या है? आप गुजारा भत्ता, रखरखाव, कुछ आधार पर तलाक प्रदान कर सकते हैं और आप यह प्रदान कर सकते हैं कि अंतर-जातीय विवाह हों, लेकिन अंततः विवाह विषमलैंगिक विवाह ही रहते हैं।"

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, "इस हद तक कहना कि संविधान के तहत शादी का कोई अधिकार नहीं है, दूर की कौड़ी होगा।"

विवाह के मूल तत्वों का उल्लेख करते हुए, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि यदि कोई इन घटक तत्वों में से प्रत्येक को देखता है, तो उनमें से प्रत्येक संवैधानिक मूल्यों द्वारा संरक्षित है।

उन्होंने कहा, "विवाह ने ही दो व्यक्तियों के साहचर्य के अधिकार को स्वीकार किया। विवाह इसके साथ एक परिवार की धारणा, एक परिवार इकाई का अस्तित्व है क्योंकि दो लोग जो विवाह में एक साथ आते हैं, एक परिवार का गठन करते हैं, कुछ ऐसा जो सीधे तौर पर इसके अस्तित्व या संवैधानिक मूल्य संबंधी मान्यता है।’’

उन्होंने कहा कि विवाह का एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक संतानोत्पत्ति है।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘यद्यपि समान रूप से हमें इस तथ्य से परिचित होना चाहिए कि विवाह की वैधता या सामाजिक स्वीकृति केवल इस कारण से संतानोत्पत्ति पर निर्भर नहीं है क्योंकि हो सकता है कि लोग संतानोत्पत्ति न करना चाहते हों, लोगों में बच्चे पैदा करने की क्षमता या स्थिति न हो या ऐसी उम्र में शादी हुई हो जब उनके बच्चे नहीं हो सकते। लेकिन हम आपकी बात मानते हैं कि संतानोत्पत्ति विवाह का एक महत्वपूर्ण पहलू है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता।’’

उन्होंने कहा कि एक और मुद्दा, जो एक विवादित मुद्दा है, यह है कि क्या विषमलैंगिकता विवाह की संस्था का एक आंतरिक या मूल तत्व है।

द्विवेदी ने कहा कि मुख्य उद्देश्य एक सामाजिक उद्देश्य के लिए पुरुष और महिला का एकीकरण है क्योंकि समाज के साथ-साथ नस्ल को भी बनाए रखने की जरूरत है।

उन्होंने तर्क दिया, "सामान्यता यह है कि आज हमारी आबादी 44 करोड़ से बढ़कर 1.4 अरब हो गई है, यह उन कुछ खास लोगों की वजह से नहीं है जो संतान पैदा करने का फैसला नहीं करते या संतान पैदा करने में असमर्थ हैं।"

द्विवेदी ने कहा, "विषमलैंगिक विवाह इस पर निर्भर नहीं करते हैं, कोई भी संविधान इसे छीन नहीं सकता। यह हमारे मनुष्य होने के कारण एक प्राकृतिक अधिकार है। उस अधिकार से इनकार करने का मतलब देश को मरने देना है। यही इसका महत्व है।"

मामले में दलीलें बुधवार को भी जारी रहेंगी।

उन्होंने कहा कि संसद विवाह को फिर से परिभाषित कर सकती है या कुछ अलग तरीके से युगलों के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित कर सकती है और अदालत को यह घोषणा जारी नहीं करनी चाहिए कि समलैंगिक जोड़े विवाह के मामले में विषमलैंगिकों के बराबर हैं।

दलीलों के दौरान, पीठ ने जमीयत-उलमा-ए-हिंद की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और याचिकाओं का विरोध करने वालों में से एक का प्रतिनिधित्व करने वाले अरविंद दातार की दलीलें भी सुनीं।

सिब्बल ने कहा कि वह सुनवाई की शुरुआत में "बहुत चिंतित" हुए जब याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील ने कहा कि संसद इस बारे में कुछ नहीं करने जा रही, इसलिए शीर्ष अदालत को इस संबंध में कोई घोषणा करनी चाहिए।

उन्होंने कहा, "मुझे डर है कि यह एक बहुत ही खतरनाक बात है। शुरुआत में कहा गया कि हम (याचिकाकर्ता) संसद के आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं करते, यह उम्मीद नहीं करते कि संसद इस तरह का कानून पारित करेगी और इसलिए, आपको यह करना चाहिए। मैं कहता हूं कि यह बहुत खतरनाक रास्ता है।’’

सिब्बल ने कहा कि अपने आप ही यह कहना कि संसद द्वारा कानून पारित किए जाने की संभावना नहीं है, एक "गलत कदम" होगा।

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