भारत में नेशनल मेडिकल कमीशन ने पाठ्यक्रम से जुड़े नए दिशानिर्देश जारी किए हैं. इस लेस्बियन और सोडोमी को यौन अपराध माना गया है. साथ ही, वर्जिनिटी और हाइमन के कथित महत्व जैसे मुद्दे भी शामिल किए गए हैं.भारत में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने एमबीबीएस छात्रों के लिए योग्यता-आधारित चिकित्सा शिक्षा पाठ्यक्रम (सीबीएमई) की नई गाइडलाइंस जारी की हैं. 31 अगस्त को जारी किए गए नए दिशा-निर्देशों में ऐसे कुछ मुद्दों को शामिल किया गया है, जो मौजूदा दौर में एलजीबीटीक्यूए+ और महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी सोच को दर्शाते हैं. एनएमसी, मेडिकल के क्षेत्र में शिक्षा और शोध का शीर्ष नियामक है.
नई गाइडलाइंस के तहत, फॉरेंसिक मेडिसिन के पाठ्यक्रम में लेस्बियनिजम और सोडोमी को यौन अपराधों की श्रेणी में रखा गया है. दिशानिर्देश संख्या एफएम8.4 में व्यभिचार और अप्राकृतिक यौन अपराधों के तहत इन दोनों को शामिल किया गया है. साथ ही, वर्जिनिटी और हाइमन जैसे विषय भी फिर से पाठ्यक्रम में जुड़ गए हैं.
इनके अलावा, विकलांगता से जुड़ी सात घंटे की ट्रेनिंग हटा दी गई है. लैंगिक पहचान और यौन रुझान के बीच का अंतर अब मनोरोग विज्ञान के मॉड्यूल में शामिल नहीं होगा. क्वीयर लोगों के बीच सहमति से होने वाले सेक्स को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.
लैंगिक अधिकारों के लिए तैयार नहीं एनएमसी?
सीबीएमई पाठ्यक्रम पहली बार 2019 में आयोग ने लागू किया था. करीब पांच साल बाद नए बदलावों के साथ इसे दोबारा लाया गया है. कई जानकार, संस्थाएं और अधिकार समूह पाठ्यक्रम में रूढ़िवादी पक्षों को शामिल किए जाने का विरोध कर रहे हैं. विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर सत्येंद्र सिंह और 'ट्रांसजेंडर हेल्थ इन इंडिया' के सीईओ जॉ. संजय शर्मा ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और एनएमसी को चिट्ठी लिखी है. इसमें नए दिशानिर्देशों को क्वीयर और विकलांगता विरोधी बताया गया है. आलोचक इन्हें ट्रांसजेंडर अधिकारों पर आए सुप्रीम कोर्ट के नालसा जजमेंट 2014 और ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन ऐक्ट 2019 की अवमानना भी बता रहे हैं.
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संजय शर्मा, 'डॉक्टर्स विथ डिसेबिलिटीज' नाम के संगठन से जुड़े हैं. पाठ्यक्रम में हुए ताजा बदलाव पर बात करते हुए उन्होंने डीडबल्यू हिन्दी से कहा, "ये नई गाइडलाइंस हम डॉक्टरों के लिए भी एक चौंकाने वाली बात है. हम यह नहीं कह रहे कि आयोग उन बातों को शामिल करें, जो हम चाहते हैं. भारत में ट्रांसजेंडरों की सुरक्षा के लिए कानून है, विकलांग व्यक्तियों के लिए ऐक्ट है. आयोग बस उनका पालन करे, यह उसकी जिम्मेदारी भी है."
लैंगिक पहचानों पर अवैज्ञानिक और अपमानजनक रुख
संजय शर्मा ध्यान दिलाते हैं कि 2019 में जब पहली बार सीबीएमई आया, तब भी छात्रों और संबंधित पक्षों से कोई बात नहीं की गई थी. वह बताते हैं, "इस मुद्दे के साथ सबसे अधिक छात्रों का हित जुड़ा हुआ है, लेकिन ना ही 2019 में उनसे बात की गई, ना ही 2024 में. ना ही इसे बनाने में क्वीयर समुदाय से किसी विशेषज्ञ को शामिल किया गया. मैं जानता हूं कि मेडकल कॉलेजों के छात्र भी इस नई गाइडलाइन के विरोध में हैं. ये मुद्दे हमारी निजी पसंद का मसला नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी हैं."
2021 में मद्रास हाईकोर्ट ने एनएमसी को आदेश दिया था कि वह अपने पाठ्यक्रम से अवैज्ञानिक और एलजीबीटी+ समुदाय को अपमानित करने वाली चीजें हटाएं. हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद आयोग ने सभी मेडिकल कॉलेजों और संस्थानों को नया निर्देश दिया था. इसमें कहा गया कि सिलेबस में ऐसी किताबें ना शामिल की जाएं, जिनमें वर्जिनिटी और क्वीयर समुदाय से जुड़े अवैज्ञानिक, भेदभावपूर्ण और अपमानजनक बातें हों. अब करीब तीन साल बाद आयोग ने खुद उन्हीं चीजों को दोबारा सीबीएमई का हिस्सा बना दिया है.
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इसपर डॉ. सत्येंद्र कहते हैं, "उस वक्त भी आयोग ने कहा था कि ऐसी किताबों को शामिल ना किया जाए, जिसमें क्वीयर समुदाय के खिलाफ रूढ़िवादी या अवैज्ञानिक बातें शामिल हैं. आयोग खुद क्यों नहीं ऐसा पाठ्यक्रम लाता है, जिसमें ये मुद्दे शामिल हों. ये नए निर्देश दिखाते हैं कि आयोग बदलावों को लेकर कितना कठोर है."
देश के कानून को नजरअंदाज करते हैं नए दिशानिर्देश
लैंगिक पहचानों व अधिकारों से जुड़े पूर्वाग्रह और भ्रांतियां दूर करने के लिए सबसे बड़ा बदलाव तब आया था, जब 1973 में अमेरिकन साइकैट्री एसोसिएशन ने होमोसेक्शुअलिटी को मानसिक विकारों की सूची से हटाया. इसके बाद 1990 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को मानसिक बीमारियों की अंतरराष्ट्रीय सूची से हटाया.
मेडिकल पाठ्यक्रमों और इस क्षेत्र में क्वीयर समुदाय को लेकर मौजूद पूर्वाग्रह उनके स्वास्थ्य अधिकारों के लिए एक बड़ी रुकावट हैं. इसलिए ये कदम क्वीयर और वंचित समुदायों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने की दिशा में सबसे जरूरी माने गए. इसके बावजूद आज भी मेडिकल क्षेत्र पूरी तरह क्वीयर और दूसरे विविध पहचानों से आने वाले लोगों के लिए पूरी तरह समावेशी नहीं बन पाया है. यह क्षेत्र आज भी महिला और पुरुष की बाइनरी पर ही आधारित है.
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डॉ. संजय शर्मा कहते हैं, "हमारा पूरा मेडिकल सिस्टम एक बाइनरी सिस्टम है. इसमें शामिल ज्यादातर लोग भी उसी महिला-पुरुष की बाइनरी वाली सोच रखते हैं. मेडिकल पाठ्यक्रमों में जेंडर और सेक्शुअलिटी से जुड़े मुद्दे शामिल नहीं हैं. राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की जो नई गाइडलाइन आई है, उसे बनाने वाले लोगों ने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस शायद इसी बाइनरी वाली सोच के दायरे में की है. बदलते वक्त के साथ उन्होंने अपनी जानकारी को अपडेट नहीं किया. इन मुद्दों पर मेडिकल साइंस कितना आगे बढ़ चुका है, कितनी ही संवेदनशील और वैज्ञानिक जानकारियां हमारे आस-पास हैं."
हाइमन का कथित महत्व पढ़ाना महिला विरोधी
आयोग ने पाठ्यक्रम में वर्जिनटी और हाइमन के कथित महत्व को भी शामिल किया है. आयोग की गाइडलाइन में 'डिफ्लोरेशन' शब्द का भी इस्तेमाल किया गया है. ये ऐसे मुद्दे हैं, जिनपर पहले से ही समाज में अवैज्ञानिक और रूढ़िवादी सोच गहराई तक पैठी हुई है. कुआंरेपन को लेकर चले आ रहे अस्वस्थ और विकृत विचारों ने वर्जिनिटी टेस्ट की नींव भी रखी. कुआंरेपन की जांच को डब्ल्यूएचओ मानवाधिकार हनन मानता है. भारत समेत कई देशों में इस दकियानूसी अवधारणा पर रोक लगाने के लिए अदालतों ने फैसले सुनाए हैं.
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डॉ. संजय शर्मा इस दृष्टिकोण से भी नए दिशानिर्देशों को मानवाधिकार हनन मानते हैं. वह कहते हैं, "अगर कोई इस जमाने में भी ऐसी गाइडलाइंस बना रहा है, तो इसका साफ मतलब है कि उसे अपने देश के कानून के बारे में भी वहीं पता है. ना ही वे देश के कानून और संबंधित अधिनियमों का ध्यान रख रहे हैं, ना ही विज्ञान का. विज्ञान तो विविधिता में भरोसा करता है. ये दिशानिर्देश राष्ट्रीय स्तर पर एक शर्म का विषय हैं."
डॉ. सत्येंद्र और डॉ. संजय, दोनों कहते हैं कि अगर एनएमसी ये दिशानिर्देश वापस नहीं लेता, तो वे 'वर्ल्ड फेडेरेशन ऑफ मेडिकल एजुकेशन' को भी चिट्ठी लिखेंगे. पाठ्यक्रम में जोड़ी जा रही संबंधित चीजें फेडरेशन के मानकों के खिलाफ भी हैं. ऐसे में अगर एनएमसी ने सुधार नहीं किया, तो वे फेडरेशन से उसकी मान्यता रद्द करने की भी मांग करेंगे.