नयी दिल्ली, 25 सितंबर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सर्वोच्च नैतिक आधार रखने वाले न्यायाधीश न्याय देने की व्यवस्था में जनता के विश्वास का निर्माण करने में लंबा सफर तय करते हैं और न्यायिक अधिकारी की साख और पृष्ठभूमि के बारे में आम आदमी की धारणा ‘‘महत्वपूर्ण’’ है।
न्यायालय ने कहा कि किसी भी स्तर पर न्यायिक अधिकारी के पद पर ‘‘सबसे सटीक मानक’’ लागू होते हैं।
न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा की पीठ ने राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर यह फैसला दिया। याचिकाकर्ता ने उस फैसले के खिलाफ यह अर्जी दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि वह सिविल न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने के योग्य नहीं है।
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीश राज्य के सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक का निर्वहन करते हैं यानी नागरिकों से जुड़े विवादों का हल करते हैं और सिविल न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट का पद ‘‘उच्च महत्व’’ का होता है क्योंकि देश में सबसे ज्यादा मुकदमे निचले स्तर पर ही दायर किए जाते हैं।
पीठ ने 16 सितंबर को दिए अपने आदेश में कहा, ‘‘किसी भी स्तर पर न्यायिक अधिकारी के पद पर सबसे सटीक मानक लागू होते हैं। इसकी वजहें स्पष्ट हैं। न्यायिक पद पर बैठा व्यक्ति राज्य के सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक का निर्वहन करता है यानी कि देश के लोगों से जुड़े विवादों को हल करता है। सर्वोच्च नैतिक आधार रखने वाले न्यायाधीश न्याय देने की व्यवस्था में जनता के विश्वास का निर्माण करने में एक लंबा सफर तय करते हैं।’’
मामले के तथ्यों का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि व्यक्ति के खिलाफ कुछ प्राथमिकियां पहले दर्ज की गयी और समझौते के आधार पर उसे बरी किया गया। पीठ ने कहा कि दो प्राथमिकियों में अंतिम रिपोर्ट दाखिल की गयी और ‘‘बाइज्जत बरी’’ होने की अनुपस्थिति में आपराधिक मामलों में किसी अधिकारी की कथित संलिप्तता से न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास कम हो सकता है।
पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय इस पद पर सबसे योग्य व्यक्ति की सिफारिश करने के लिए बाध्य है। उसने कहा, ‘‘किसी सिविल न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट का पद न्याय प्रणाली की पिरामिड संरचना में सबसे निचले क्रम का होने के बावजूद के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण होता है। चरित्र को केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा प्रमाणित करने तक सीमित होने के रूप में नहीं समझा जा सकता है।’’
न्यायालय ने कहा कि ज्यादातर मामले उच्चतम न्यायालय तक नहीं पहुंचते और सिविल न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के जरिए ही आम आदमी का न्याय प्रणाली से संपर्क होता है। न्यायिक अधिकारी की साख और पृष्ठभूमि के बारे में आम आदमी की धारणा ‘‘महत्वपूर्ण’’ है।’’
राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर ने नवंबर 2013 में एक अधिसूचना जारी करते हुए सिविल न्यायाधीश (जूनियर डिवीजन) के पद पर भर्ती के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे और इस व्यक्ति ने इस पद पर आवेदन दिया था।
जब इस व्यक्ति की पृष्ठभूमि की जांच की गयी तो उसने खुद कुछ आपराधिक मामलों में फंसाए जाने के बारे में सूचना दी। जुलाई 2015 में उच्च न्यायालय की समिति ने उसके नाम की सिफारिश न करने का फैसला दिया।
इसके बाद इस शख्स ने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसने उसे राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर के पंजीयक के समक्ष अर्जी देने की छूट दी। बाद में उच्च न्यायालय की निचली न्यायिक समिति ने फिर से इस मामले पर विचार किया और उसकी अर्जी खारिज कर दी।
इसके बाद उसने उच्च न्यायालय के एक समक्ष एक और याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने कहा कि जब उसने पद पर भर्ती के लिए ऑनलाइन आवेदन दिया था, तो उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला लंबित नहीं था।
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि उसके खिलाफ दर्ज चार मामलों में से दो जांच के बाद झूठे पाए गए और अन्य दो मामलों में अपराध मामूली चोटों के थे, जिसमें पक्षों के बीच समझौता कर लिया गया और उसे बरी कर दिया गया।
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह व्यक्ति अनुसूचित जनजाति का है और समिति का फैसला, निर्णय की भावना के ‘‘अनुरूप नहीं’’ है।
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