Subhash Chandra Bose Jayanti 2023: नेताजी ने जब अंग्रेज प्रोफेसर को थप्पड़ जड़ा! जानें नेताजी के जीवन की कुछ अहम् स्मृतियां!
‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. ‘आजादी दी नहीं ली जाती है’, और ‘यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं’ जैसे प्रेरक और ज्वलंत नारे देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने जीवन काल में अनेक बार ब्रिटिश हुकूमत को चुनौतियां दी.
‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. ‘आजादी दी नहीं ली जाती है’, और ‘यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं’ जैसे प्रेरक और ज्वलंत नारे देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने जीवन काल में अनेक बार ब्रिटिश हुकूमत को चुनौतियां दी. कांग्रेस में अंतर्विरोधों के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ आजाद हिंद फौज का गठन किया, और आजाद भारत का एक अंतरिम सरकार भी बनाया. लेकिन अचानक रहस्यमय ढंग से वे गायब हो गये. नेताजी कहां गये वे जीवित हैं या नहीं. आजादी के 76 साल भी आज भी रहस्यमय बना हुआ है. स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को देखते हुए उनके जीवन के अविस्मरणीय मोड़ यहां स्मृति स्वरूप प्रस्तुत हैं.
सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक के कायस्थ परिवार (पिता जानकीनाथ बोस एवं माँ प्रभावती) के घर में हुआ था. पिता कटक के मशहूर वकील थे. अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था. उनकी 14 संतानें, (6 बेटियाँ 8 बेटे) थीं. कटक में प्राइमरी शिक्षा के बाद 1909 में रिवेंसा कॉलेज में दाखिला लिया, एवं 15 वर्ष की आयु में विवेकानंद साहित्य का अध्ययन किया. 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे, एक ब्रिटिश प्रोफेसर से झगड़ा हुआ. इसके बाद उन्हें ब्रिटिश हुकूमत से घृणा हो गई और आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. यह भी पढ़ें : Magh Gupt Navratri 2023: कल से शुरू हो रहा है माघ गुप्त नवरात्रि? जानें इसका महत्व, शुभ-मुहूर्त एवं पूजा विधि!
गांधीजी एक अंतर्विरोध से दुखी नेताजी ने छोड़ा कांग्रेस!
नेताजी 1938 में कांग्रेस के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए. 1939 में गांधीजी अबुल कलाम आजाद को त्रिपुरी अधिवेशन में बतौर अध्यक्ष चुनना चाहते थे. उनके अनुसार मुस्लिम अध्यक्ष बनने से सांप्रदायिक सौहार्द हेतु अच्छा संदेश जाता, मगर नेताजी ने अध्यक्ष पद हेतु स्वयं खड़े हो गये. कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने अबुल कलाम को खड़ा किया. अबुल कलाम गांधीजी के दबाव के बावजूद नेताजी के खिलाफ खड़ा नहीं होना चाहते थे. वह नेताजी की लोकप्रियता से परिचित थे, तब गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष पद लेने के लिए कहा. नेताजी को गांधीजी का यह अंतर्विरोध पसंद नहीं आया. उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पार्टी से इस्तीफा दे दिया.
नेताजी ने प्रोफेसर को जड़ा थप्पड़!
सुभाष चंद्र बोस पर बाल्यकाल से धर्म एवं अध्यात्म का गहरा प्रभाव था. शोषितों एवं गरीबों के प्रति उनके मन में हमेशा श्रद्धा भाव रहे हैं. स्वामी विवेकानंद की आदर्शवादिता एवं कर्मठता से प्रभावित सुभाष चंद्र उनके साहित्य के प्रति उनकी जिज्ञासा तीव्र हुई. स्कूली शिक्षा (कटक) के बाद 1915 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया. 1916 में अंग्रेज प्रोफेसर द्वारा भारतीयों के लिए अभद्र भाषा के प्रयोग पर सुभाष चंद्र ने उन्हें तमाचा जड़ दिया. उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया. 1917 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी के हस्तक्षेप से उन्हें पुनः कॉलेज में प्रवेश मिला. यहीं से उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफरत एवं असंतोष की आग सुलगी, और वे सरकार की आंखों के किरकिरी बन गये.
क्या थी आजाद हिंद फौज?
कांग्रेस छोड़ने के बाद नेताजी ने स्वराज्य के लिए ‘आजाद हिंद’ की अस्थायी सरकार बनाने का निर्णय लिया. इसमें ब्रिटिश सेना से जापानी सेना द्वारा पकड़े युद्ध के भारतीय कैदियों को भर्ती किया गया था. 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में अर्जी-हुकूमत-ए-आजाद-हिंद (स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की. इस अंतरिम सरकार के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और युद्ध मंत्री स्वयं नेताजी बने. इस सरकार को नौ देशों ने मान्यता दी थी. नेताजी आजाद भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ भी बने. इस फौज में महिलाओं के लिए ‘झांसी रानी रेजीमेंट’ का गठन किया था. आजाद हिंद फौज ने बंगाल की खाड़ी अंडमान और निकोबार के द्वीपों पर विजय प्राप्त की. उनके नाम क्रमशः ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ रखा गया.
नेताजी को दिया गया भारत-रत्न क्यों वापस लिया गया?
साल 1992 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मरणोपरांत भारत-रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका के आधार पर यह पुरस्कार वापस ले लिया गया. तर्क यह दिया गया कि सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु का कोई पुख्ता स्वरूप नहीं था, ना ही नेता जी का परिवार उन्हें मृत मानता है. उन्होंने भारत-रत्न अवार्ड स्वीकारने से मना कर दिया गया. इतिहास में यह अकेला ऐसा मामला है, जब भारत-रत्न पुरस्कार वापस लिया गया हो.
सावरकर के पक्षधर थे नेताजी?
आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर एवं ‘जय हिंद’ के उद्घोषक नेताजी और सशस्त्र क्रांति वाहक वीर सावरकर के विचारों में काफी समानता थी. नेताजी का नारा था, ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ और वीर सावरकर का युवाओं के लिए संदेश था, ‘हिंदू युवकों, तरुणियों के केशों में घूमने वाली तुम्हारी उंगलियां जब बंदूक की ट्रिगर पर घूमेंगी, तभी हिंदुस्तान जागेगा’. कहते हैं कि नेताजी की सावरकर से तीन मुलाकातें हुई थीं. पहली भेंट एक गुप्त स्थान पर, दूसरी मीटिंग कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद 4 मार्च 1938 को मुंबई में नेताजी ने सावरकर से कांग्रेस से जुड़ने की अपील की. तीसरी मुलाकात 22 जून 1940 को पुनः मुंबई में हुई. दोनों के बीच जापान में रह रहे रासबिहारी बोस पर बात हुई. कहा जाता है कि सावरकर ने इस भेंट में रासबिहारी बोस और उनके मध्य हुए गुप्त-पत्र के बारे में बात की थी.