Vindhyavasini Puja 2020: कौन हैं मां विंध्यवासिनी! जानें इनका महत्व, पूजा विधि और कथा!
ज्येष्ठ मास शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन मां विंध्यवासिनी की विशेष पूजा का विधान है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मां विंध्यवासिनी की पूजा की यह विशेष तिथि इस वर्ष 2020 को 28 मई को है. मान्यता है कि मां का निवास विंध्याचल पर्वत पर है, और वर्तमान में उप्र के मिर्जापुर जिले के समीप मां विंध्यवासिनी की शक्तिपीठ है.
Vindhyavasini Puja 2020: ज्येष्ठ मास शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन मां विंध्यवासिनी की विशेष पूजा का विधान है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मां विंध्यवासिनी की पूजा की यह विशेष तिथि इस वर्ष 2020 को 28 मई को है. मान्यता है कि मां का निवास विंध्याचल पर्वत पर है, और वर्तमान में जिले के समीप मां विंध्यवासिनी की शक्तिपीठ है. धर्मशास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का विस्तृत उल्लेख है. शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को ‘सती’ तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी माना गया है. आध्यात्मिक कथाओं में इनके कई नाम, कृष्णानुजा, वनदुर्गा आदि उल्लेखित हैं.
ऐसे करें पूजा प्रतिष्ठान
इस दिन प्रात:काल स्नान-ध्यान कर नया वस्त्र पहनें. पूजा स्थल पर मां विंध्यवासिनी साधना यंत्र प्रतिष्ठापित करे. यंत्र के सामने सात सुपारी रखें. इसके बाद घी का दीपक एवं धूप प्रज्जवलित करें. अब रक्षासूत्र से सोने के बारीक तार को विंध्येश्वरी यंत्र पर लपेटते हुए मन ही मन में उस मन्नत के पूरे होने की प्रार्थना करें, जिसके लिए अपने मां विंध्यवासिनी का अनुष्ठान रखा है. विंध्येश्वरी माला से मंत्र का लगभग 45 माले का 11 दिन तक जाप करें. साधना 11 दिनों तक नियमित रूप से की जाती है. यह भी पढ़े: Chinnamasta Jayanti 2020: कौन हैं देवी छिन्नमस्ता! जिनकी मध्यरात्रि में पूजा-अनुष्ठान से सिद्ध होती हैं सरस्वती, और शत्रु होते हैं परास्त
मां विंध्यवासिनी की पूजा का महत्व!
सनातन धर्म में मां विंध्यवासिनी की पूजा का विशेष महत्व है. मान्यता है कि यदि कोई श्रृद्धालु पूरे विधि-विधान से मां विंध्यवासिनी की पूजा करता है, तो उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं. विंध्याचल पर्वत पर निवास करनेवाली मां विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती का रूप धारण करने वाली, मधु और कैटभ नामक राक्षसों का संहार करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं. मान्यताओं के अनुसार जो भी व्यक्ति मां विंध्यवासिनी की तपस्या करता है उसे तमाम सिद्धियां प्राप्त होती हैं. मां विंध्यवासिनी अलग-अलग संप्रदाय के लोगों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं और अपने अलौकिक प्रकाश के साथ विंध्याचल पर्वत पर विराजमान रहती हैं. विंध्याचल पर्वत को हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है.
श्रीमद्देवी भागवत के दशम स्कन्द कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरंभ करते हुए स्वयंभुमनु और शतरूपा को प्रकट किया. विवाह के उपरान्त स्वायम्भुव और मनु ने मां भगवती की प्रतिमा बनाकर उनकी कठोर तपस्या की. तपस्या से प्रसन्न होकर मां भगवती विंध्याचल देवी के रूप में उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं उच्च पद प्राप्ति का वरदान देकर विंध्याचल पर्वत चली गईं. सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीष के द्वारा हुआ है. द्वापरयुग में कंस देवकी-वसुदेव की सन्तानों का वध करने लगा, तो वसुदेव के कुल पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं कृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचण्डी का अनुष्ठान कर देवी को प्रसन्न किया. भगवती ने बताया कि कालांतर में शुम्भ-निशुम्भ नामक दो दुष्ट दैत्य उत्पन्न होंगे. तब मैं नन्दबाबा के घर में यशोदा के गर्भ से पैदा होकर विन्ध्याचल में रहकर दोनों असुरों का वध करूंगी.
श्रीमद्भागवत महापुराण के श्रीकृष्ण-जन्म व्याख्यान में उल्लेखित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेव ने कंस के भय से रातों-रात गोकुल में नन्दजी के घर पहुंचा दिया तथा यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को वे मथुरा ले आए. कंस ने देवकी के आठवीं संतान के रूप में जन्मीं कन्या (योग माया) को जैसे ही मारना चाहा, कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुंच गई और अपना दिव्य स्वरूप दिखलाते हुए कहा कि तुम्हारा वध करने वाला जन्म ले चुका है. इसके बाद भगवती विन्ध्याचल लौट गईं.