Rani Lakshmibai Jayanti 2022: शौर्य एवं साहस का प्रतीक मणिकर्णिका उर्फ रानी लक्ष्मीबाई! जिन्हें ब्रिटिश अधिकारी भारत का सबसे बहादुर योद्धा मानते थे!

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजादी दिलाने के लिए अनगिनत क्रांतिकारियों ने प्राणों की आहुति दी है. ऐसे तमाम क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को नाकों चने चबवाए, लेकिन जहां तक ब्रिटिश अधिकारियों की बात है, तो उनके अनुसार उन्हें रानी लक्ष्मीबाई जैसी साहसी, बहादुर एवं निडर योद्धा कोई और नहीं मिला.

रानी लक्ष्मीबाई 2022 (Photo Credits: File Image)

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजादी दिलाने के लिए अनगिनत क्रांतिकारियों ने प्राणों की आहुति दी है. ऐसे तमाम क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को नाकों चने चबवाए, लेकिन जहां तक ब्रिटिश अधिकारियों की बात है, तो उनके अनुसार उन्हें रानी लक्ष्मीबाई जैसी साहसी, बहादुर एवं निडर योद्धा कोई और नहीं मिला.

जन्म

रानी लक्ष्मीबाई की जन्म तिथि को लेकर काफी भ्रम है, हालांकि इतिहासकारों का दावा है कि लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 के दिन एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. यहां दिलचस्प पहलू यह है कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म झांसी में नहीं, बल्कि वाराणसी (पूर्व नाम काशी) में हुआ था.

मनु से मणिकर्णिका एवं रानी लक्ष्मीबाई

लक्ष्मीबाई जब पैदा हुई तब उनका मूल नाम मणिकर्णिका और उपनाम मनु था. साल 1834 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से 14 वर्षीया मणिकर्णिका की शादी हुई और शादी की रात पति के साथ देवी लक्ष्मी की पूजा के पश्चात उनका नाम मणिकर्णिका से लक्ष्मीबाई कर दिया गया.

आम लड़की के रूप में पली-बढ़ी मणिकर्णिका

मणिकर्णिका जब मात्र चार वर्ष की थी, उनकी माँ भागीरथी सप्रे का निधन हो गया था. माँ की मृत्यु के पश्चात अपनी इस इकलौती संतान को पिता मोरोपंत तांबे अपने साथ पेशवा के दरबार में लाने लगे. मणिकर्णिका अपने बचपन के साथी, चचेरे भाई तात्या टोपे और नाना के साथ घुड़सवारी, तलवारबाजी एवं निशानेबाजी आदि सीखती थी, व्यायाम करती तथा साड़ी के बजाय पुरुषों जैसे कपड़े पहनती थी.

पति-पुत्र को खोने के बाद सत्ता की कमान अपने हाथों मे लिया.

साल 1851 में, रानी ने पुत्र को जन्म दिया गया, उत्तराधिकारी पाकर महाराजा प्रसन्न थे. लेकिन चार माह के भीतर बच्चे का निधन हो गया. महाराजा गंगाधर राव ने उत्तराधिकारी के तौर पर अपने चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद ले लिया. बाद में इसका नाम दामोदर राव रखा गया. इसी दरम्यान महाराजा गंगाधर की भी मृत्यु हो गई. कोई और महिला होती तो इस तरह पति-पुत्र को खोने के बाद टूट जाती, लेकिन दामोदर राव के नाबालिग होने के कारण महारानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं राजकाज संभालने का फैसला किया.

ब्रिटिशों का कुचक्र महारानी की अंग्रेजों को हुंकार

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने व्यपगत नीति के सिद्धांत (Principles of Lapsed Policy) लागू करते हुए झांसी की सत्ता पर दामोदर राव को उत्तराधिकारी मानने से इंकार करते हुए इसे अपने अधिकृत क्षेत्रों में मिला लिया. 1854 में ब्रिटिश हुकूमत ने रानी लक्ष्मीबाई को 60 हजार रुपये वार्षिक पेंशन देने की घोषणा करते हुए तत्काल झांसी को छोड़ने का आदेश दिया. 22 वर्षीया रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के इस कुचक्र का प्रबल विरोध करते हुए झांसी की एक इंच जमीन भी अंग्रेजों को देने से मना कर दिया.

झलकारी बाई बनी लक्ष्मीबाई

मई 1857 में मेरठ में भारतीय विद्रोह की खबर जब झांसी पहुंची, तो लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन अलेक्जेंडर से सुरक्षा स्वरूप कुछ हथियारबंद सिपाही रखने की अनुमति मांगी. जनवरी 1858 तक सब कुछ शांत था, लेकिन मार्च 1858 में ब्रिटिश सेना झांसी पहुंच गई. दोनों तरफ से काफी खूनी संघर्ष हुआ. 2 अप्रैल 1858 को लक्ष्मीबाई ने महल छोड़ने का फैसला कर लिया, लेकिन महल छोड़ने से पहले, लक्ष्मीबाई ने अपनी सहयोगी झलकारीबाई से कहा कि वह लक्ष्मीबाई के वेश में जनरल रोज के शिविर में जायें. झलकारी बाई को देखकर ब्रिटिश अधिकारियों में भ्रम पैदा हो गया. इसी भ्रम का लाभ उठाकर रानी अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांध कर महल से निकल गई.

एक वीर योद्धा की तरह शहीद हुई महारानी

झांसी से कालपी होते हुए लक्ष्मीबाई अन्य विद्रोही सैनिकों के साथ ग्वालियर आ गई, लेकिन कैप्टन ह्यूरोज ने अंततः उन्हें शहर के रामबाग तिराहे पर अपने सैनिकों के साथ उन्हें घेर ले लिया. रानी जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहती थीं, उन्होंने सैनिकों पर आक्रामक होकर हमला किया, अंततः ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई पर सामने से गोली चला दी. गोली

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