Saphala Ekadashi 2021: कब है सफला एकादशी? जानें इस व्रत के महात्म्य, पूजा विधि और पारंपरिक कथा!
हिन्दू पंचांग के अनुसार, पौष मास कृष्णपक्ष की एकादशी को ही सफला एकादशी कहते हैं. इस दिन श्रीहरि के नाम एकादशी व्रत रखा जाता है. धर्म शास्त्रों के अनुसार गीता में श्रीकृष्ण ने सफला एकादशी के दिन को अपने समान ही महान एवं शक्तिशाली बताया है.
Saphala Ekadashi 2021: हिन्दू पंचांग के अनुसार, पौष मास कृष्णपक्ष की एकादशी को ही सफला एकादशी कहते हैं. इस दिन श्रीहरि के नाम एकादशी व्रत रखा जाता है. धर्म शास्त्रों के अनुसार गीता में श्रीकृष्ण ने सफला एकादशी के दिन को अपने समान ही महान एवं शक्तिशाली बताया है. इस व्रत को करने से सारे कार्य सुसफल सम्पन्न होते हैं, और देह त्यागने के बाद उसे वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सफला एकादशी की पूजा और व्रत 9 जनवरी 2021 को है.
सफला एकादशी का महात्म्य
पद्म पुराण में उल्लेखित है कि श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एकादशी तिथियों के महत्व के बारे में बताते हुए कहा था कि किसी भी कार्य की सफलता के लिए सफला एकादशी सर्वश्रेष्ठ होता है. मान्यता है कि एकादशी व्रत करनेवाले को किसी और देवी-देवता की आराधना करने की जरूरत नहीं पड़ती. इस दिन दीपदान करने का भी बहुत महत्व है. विष्णु भक्तों को इस दिन व्रत रखते हुए श्रीहरि की सच्ची आस्था एवं निष्ठा पूजा-अर्चना एवं आरती करनी चाहिए, मान्यता है कि इस व्रत को करने वाले को श्रीहरि के आशीर्वाद से विष्णुलोक में स्थान प्राप्त होता है.
सफला एकादशी पूजा विधि
एकादशी के दिन प्रातःकाल उठकर सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें, और श्रीहरि के व्रत एवं पूजा का संकल्प लें. व्रती को श्रीहरि की मूर्ति को 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र का उच्चारण करते हुए स्नान आदि करवा कर वस्त्र, चन्दन, जनेऊ, सुगंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, तुलसी दल, नैवैद्य, ऋतुफल, पान, नारियल आदि अर्पित करके कर्पूर से आरती उतारनी चाहिए. अब सफला एकादशी की कथा सुनें अथवा सुनाएं. अंत में श्रीहरि एवं माता लक्ष्मी की आरती उतारें.
सफला एकादशी की पारंपरिक कथा
प्राचीनकाल में चंपावती नगरी में महिष्मान नामक राजा का शासन था. उनके चार पुत्र थे. बड़े पुत्र का नाम लुंपक था. वह महापापी व्यक्ति था. वह सदा पर-स्त्री और वेश्याओं पर पैसे खर्च करता था. आये दिन देवी-देवताओं की निंदा करता था. उसकी गलत हरकतें बढ़ने लगी तो राजा ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया. लुंपक जंगलों में पशुओं के मांस व फल इत्यादि खाकर जीवन निर्वाह करने लगा. रात में वह एक पीपल के पेड़ के नीचे सो जाता था. पौष माह के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन वह कड़कड़ाती ठंड के कारण अर्ध मुर्छित सा हो गया था.
अगले दिन सफला एकादशी थी. दोपहर में जब सूर्यदेव के ताप के प्रभाव से उसे होश आया. भूख से व्याकुल लुंपक पेड़ों से गिरे फल एकत्र करके लाया, तब तक सूर्यास्त हो चुका था. उसने अपने अस्थाई निवास पीपल के पेड़ के नीचे फलों को रखते हुए निवेदन किया, -'इन फलों से श्रीहरि संतुष्ट हों'. अनजाने में ही सही लुम्पक से इस व्रत का पालन हो गया. परिणामस्वरूप लुम्पक को राज्य, पुत्र, सभी कुछ प्राप्त हो गया.