Dayananda Saraswati Jayanti 2023: जानें महाशिवरात्रि की एक घटना ने कैसे स्वामीजी को महान बना दिया? स्वामीजी के कुछ रोचक तथ्य!
अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को हुआ है, लेकिन हिंदू पंचांग के अनुसार स्वामीजी का जन्म फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाया जाता है. इस आधार पर इस वर्ष महर्षि दयानंद जयंती 15 फरवरी को मनाई जाएगी.
अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती (Dayananda Saraswati) का जन्म 12 फरवरी 1824 को हुआ है, लेकिन हिंदू पंचांग के अनुसार स्वामीजी का जन्म फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाया जाता है. इस आधार पर इस वर्ष महर्षि दयानंद जयंती 15 फरवरी को मनाई जाएगी. महान समाज सुधारक महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़िवादी कुरीतियों को दूर करने के लिए ना केवल उपदेश दिये, बल्कि कई बड़े कदम भी उठाए थे. उन्होंने सामाजिक सुधारों के तहत भेदभाव और महिला असमानता के खिलाफ भी खुले मंच से वकालत की. दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती पर आइये जानते हैं उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू, जिन्हें जानकर आप भी चौंक जायेंगे.
मूलशंकर से दयानंद सरस्वती तक
दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के काठियावाड़ जिले के टंकारा ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. पिता करशनजी लालजी तिवारी टैक्स कलेक्टर थे और माँ यशोदाबाई आम गृहिणी थीं. उनका बचपन का नाम मूलशंकर तिवारी था. वह बचपन से बहुत बुद्धिमान एवं प्रतिभावान थे. बचपन की एक घटना ने उनके मन में भगवान शिव के प्रति जिज्ञासा भर दी. अंततः उनकी खोज में उन्होंने गृह त्याग दिया. शाश्वत शिव की तलाश में स्वामीजी 15 वर्षों तक इधर-उधर भटकते रहे. इसी बीच उनकी मुलाकात पूर्णानंद सरस्वती से हुई. उन्हीं से दीक्षा ग्रहण करने के बाद वह स्वामी दयानंद सरस्वती कहलाए. यह भी पढ़ें : Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023 Quotes: स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती पर अपनों संग शेयर करें उनके ये 10 महान विचार
आर्य समाज की स्थापना की ये थी वजह!
महर्षि दयानंद सरस्वती ने समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों एवं रूढ़िवादी परंपराओं को खत्म करने के लिए आर्य समाज की स्थापना की. उन्होंने हिंदू समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों मसलन रूढ़िवादिता, जातिवाद, मूर्ति पूजा, कर्मकांड, पुरोहितवाद, छुआछूत, जादू-टोना आदि की खुलकर आलोचना की. इसके साथ ही उन्होंने बाल-विवाह की विरोध तो अंतर्जातीय विवाह और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन भी किया. उन्होंने स्त्री की समानता की भी बात की. उन्होंने अपने विचार और चिंतन अपनी सुविख्यात पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में विस्तार से व्यक्त किया है.
इस घटना ने उन्हें साधारण इंसान से महापुरुष बनाया
कहा जाता है कि एक बार महाशिवरात्रि की रात जागरण के दौरान दयानंद सरस्वती ने देखा कि कुछ चूहे भगवान शिव की प्रतिमा पर चढ़ कर उन पर चढ़ाये प्रसाद को खा रहे हैं. इस दृश्य को देखने के बाद स्वामी जी के मन में प्रश्न उठा कि भगवान शिव की यह प्रतिमा एक पत्थर की शिला है, जो अपनी और अपने ऊपर चढ़ाए गए प्रसाद की भी रक्षा नहीं कर सकती? फिर इस प्रतिमा की पूजा का क्या अर्थ है? इसके बाद अपने आत्म-खोज के लिए उन्होंने घर छोड़ दिया. उन्होंने वेदों उपनिषदों का अध्ययन किया और अपने अनुभवों तथा ज्ञान से पूरी दुनिया को वेदों का पाठ पढ़ाया.
चारों वेदों को माना सर्वोपरि
महर्षि दयानंद सरस्वती हिंदी और संस्कृत भाषा को प्रारंभ से प्रोत्साहित करते रहे हैं. उनका मानना था कि संसार का संपूर्ण ज्ञान इन चार वेदों में निहित है. उनके अनुसार चारों वेद ही सत्य और सभी धर्मों से हटकर हैं. स्वामी जी ने वेदों से हटकर किसी भी ज्ञान को महत्व नहीं दिया. चारों वेदों का महात्म्य बताते हुए उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो’ नारा भी बुलंद किया
स्वतंत्रता संग्राम में सहभागिता
महर्षि दयानंद सरस्वती ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई में भी अहम भूमिका निभाई. पहली बार ‘स्वराज का नारा’ उन्होंने ही बुलंद किया था. इसके बाद इस नारे को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने आगे बढ़ाया. उनके उपदेशों से लगभग हर क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह, मदन लाल ढींगरा, लाला लाजपत राय, अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल आदि तमाम क्रांतिकारी भी प्रेरित हुए.
17 बार जहर देकर मारने की कोशिश
स्वामी दयानंद सरस्वती जी की लोकप्रियता से ब्रिटिश हुकूमत थर-थर कांपती थी. कहा जाता है कि लोगों से सांठगांठ करके स्वामी जी को जहर देकर मारने की कोशिश लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे, जिसकी वजह उन पर जहर का ज्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन 1883 में स्वामी जी जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह के यहां पधारे. स्वामीजी के सानिध्य से महाराजा इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी नर्तकी से रिश्ते तोड़ लिये. इससे नर्तकी स्वामीजी की दुश्मन बन गई, उसने महाराज के कुक से मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच पीस कर मिला दिया, जिसकी वजह से 30 अक्टूबर 1883 में स्वामीजी का निधन हो गया.