उत्तर प्रदेश में विधानसभा की सात सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं. इसमें चार सीटों पर किसी ना किसी विधायक के निधन के कारण चुनाव हो रहा है. चुनावी बयार में सहानुभूति काफी महत्व रखती है. उपचुनावों में सहानुभूति का मुद्दा कितना प्रमुख है, इसका लिटमस टेस्ट होगा. भारतीय क्रिकेट टीम में बल्लेबाज रह चुके चेतन चौहान अमरोहा जिले की नौगांवा विधानसभा सीट से 2017 में विधायक चुने गए थे. क्रिकेट से संन्यास लेकर वह राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे. चौहान योगी सरकार में सैनिक कल्याण, होम गार्ड, पीआरडी, नागरिक सुरक्षा विभाग के मंत्री थे. उनका बीते दिनों कोरोना संक्रमण से निधन हो गया था. इस सीट पर उनकी पत्नी संगीता चौहान को भाजपा ने चुनावी मैदान में उतारा है.
चौहान जनता के बीच में खासे लोकप्रिय रहे हैं. वह सांसद भी रह चुके थे. इस कारण उनका जनता से काफी जुड़ाव रहा है. उनकी पत्नी के साथ चेतन की सहानुभूति और पार्टी की ताकत है. यह उन्हें कितना सफल बनाएगी, यह तो चुनाव परिणाम बताएंगे. बुलंदशहर से विधायक रहे वीरेन्द्र सिरोही का प्रदेश की राजनीति में अच्छा रसूख था. सिरोही सामान्य से शिखर पर पहुंचे थे. भाजपा और बसपा के गठबंधन से बनी सरकार में मायावती के मुख्यमंत्री कार्यकाल में वीरेंद्र सिंह सिरोही राजस्व मंत्री बने. उनके निधन से खाली हुई सीट पर उनकी पत्नी ऊषा सिरोही को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया है. चेतन और सिरोही के प्रति जनता के लगाव का उपचुनाव में इम्तिहान होना है. हलांकि भाजपा ने इसके ठीक उलट घाटमपुर सीट पर कैबिनेट मंत्री रहीं कमलरानी वरूण की जगह परिवार से बाहर के व्यक्ति को टिकट दिया है. ऐसे ही भाजपा ने देवरिया की सदर सीट पर दिवंगत जन्मेजय सिंह के बेटे अजय सिंह को टिकट नहीं दिया. वह बागी होकर निर्दलीय अपने पिता की सहानुभूति के बदौलत मैदान में कूदे हैं. यह भी पढ़े: उत्तर प्रदेश: BJP ने सहकारी भूमि विकास बैंक के चुनावों में मारी बाजी, समाजवादी पार्टी ने भी जीतीं कुछ सीटें
इसके अलावा जौनपुर की मल्हनी विधानसभा सीट पर समाजवादी पार्टी से विधायक रहे पारसनाथ यादव के निधन से रिक्त होने के कारण चुनाव हो रहा है. यहां से वह कई बार चुनाव जीत चुके हैं. भाजपा लहर में 2017 में भी वह बाजी मार गये थे. सपा ने यहां उनके बेटे लकी को उम्मीदवार बनाया है. उनको अपने पिता की विरासत का कितना लाभ मिलेगा. भाजपा को कैसे परास्त कर पाएंगे। यह तो आने वाले नतीजे ही बता पाएंगे. कभी-कभी सहानुभूति बेअसर भी रहती है. इसका उदाहरण बिजनौर जिले की नूरपुर सीट पर देखने को मिल चुका है. भाजपा विधायक लोकेन्द्र की निधन से खाली हुई इस सीट पर भाजपा ने उनकी पत्नी को टिकट दिया था. लेकिन वह चुनाव नहीं जीत सकी थी. यहां से सपा के नईमुल हसन विजय हुए थे. यह भी पढ़े: UP-MP Bypolls 2020 Date: उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में आज नहीं हुआ उपचुनावों के तारीखों का ऐलान, दोनों राज्यों में बीजेपी ने कसी है जीत के लिए कमर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि उपचुनाव में सभी पार्टियों ने साहनुभूति कार्ड जरूर खेला है. अमरोहा के नौगांवा में चेतन चैहान, बुलंदशहर से वीरेन्द्र सिरोही और मल्हनी विधानसभा से पारस नाथ यादव इन तीनों सीटों पर नेताओं की बड़ी छवि थी. इन लोगों का अपने क्षेत्र की जनता से जुड़ाव रहा है. सहानुभूति चुनाव में काम करती है. इसका उदाहरण कानपुर देहात की सिंकदरा सीट पर मथुरा पाल के बेटे अजीत को सहानुभूति के कारण ही जीत मिली थी. पार्टी ने इसी बात का ख्याल रख कर टिकट पर दांव लगाया है. उन्होंने बताया कि ऐसे चुनावों में सहानुभूति फैक्टर जरूर काम करती है.