अर्मेनिया में दुर्दशा झेलते भारत के कामगार
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

भारत में नौकरी देने वाली एजेंसियां लोगों को अर्मेनिया में शानदार नौकरी दिलाने का वादा करती हैं. हालांकि, जब कामगार यहां पहुंचते हैं तो परिस्थितियां उनकी उम्मीदों से बिल्कुल उलट होती हैं.ईशान कुमार पिछले साल जब दक्षिण भारत से अर्मेनिया आए, तो उन्होंने सोचा था कि उनकी जिंदगी सुधर जाएगी. नाम बदल कर डीडब्ल्यू से बात करने पर तैयार हुए कुमार ने बताया कि विदेश में रहने वाले उनके एक दोस्त ने उन्हें यहां आने की सलाह दी थी. कुमार बताते हैं, "उसने कहा था कि मैं हर महीने 1,000 डॉलर से ज्यादा कमाऊंगा. उसने कहा कि वह एक यूरोपीय देश है."

कुमार के दोस्त ने एक एजेंट के जरिए उनकी अर्मेनिया की यात्रा का इंतजाम किया. इसके लिए ई-वीजा, हवाई जहाज का टिकट और एक डिलिवरी कंपनी में नौकरी की व्यवस्था बनाने पर लगभग 1,600 डॉलर खर्च हुए. वॉट्सऐप चैट के अलावा और कोई आधिकारिक करार नहीं था, लेकिन कुमार ने वहां जाने का फैसला किया.

अगले छह महीने के लिए उनका नया घर चेरी होटल था, जो अर्मेनिया की राजधानी येरेवान के मुख्य इलाके से करीब 30 मिनट की दूरी पर था. कुमार ने बताया कि इस होटल में बहुत भारतीय कामगारों को रहने की जगह दी गई थी. यहां एक ही कमरे में कई-कई लोगों को रखा जाता है.

खाड़ी देशों में तस्करी, शोषण और फिरौती का दर्द झेलते भारतीय मजदूर

कुमार ने तुरंत ही डिलिवरी सर्विस के लिए काम शुरू कर दिया, हालांकि नौकरी के हालात वैसे नहीं थे जैसा उन्होंने सोचा था. कुमार बताते हैं, "उन्होंने कहा कि एक ऑर्डर के लिए हमें 1,900 दराम (करीब 4.69 डॉलर) पीक आवर में मिलेंगे और दूसरे समय में 1,400 दराम (करीब 3.46 डॉलर). लेकिन जब मैं यहां आया, तो देखा कि इसमें गड़बड़ है. मुझे 1,300 (3.21 डॉलर) और 900 दराम (2.22 डॉलर) ही मिले."

कुमार का कहना है कि वह सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करते रहे और उनका पहला वेतन 940 डॉलर के लगभग था, जो उनकी उम्मीद के मुताबिक ही था. हालांकि कुमार का दावा है कि इसमें से वो एक मामूली रकम ही बचा सके.

10 लोगों के साथ वह जिस छोटी सी जगह में रह रहे थे, उन्हें उसका किराया और खाने-पीने का खर्च खुद उठाना पड़ा. डिलिवरी के लिए इस्तेमाल होने वाले स्कूटर का भी किराया देना पड़ा. अर्मेनिया के लिए रवाना होने से पहले उन्हें इन सब खर्चों की जानकारी नहीं दी गई थी. कुमार ने बताया, "सारे भुगतान करने के बाद मेरे पास घर भेजने के लिए बस 120 डॉलर ही बचे."

अर्मेनिया क्यों आते हैं भारत के मजदूर?

अर्मेनिया में रूसी लोगों के बाद विदेशी नागरिकों का सबसे बड़ा गुट भारतीयों का है. अर्मेनिया के आर्थिक मंत्रालय के मुताबिक, फिलहाल यहां 20-30 हजार भारतीय नागरिक रह रहे हैं. इनमें से करीब 2,600 छात्र हैं. अर्मेनिया में उच्च शिक्षा के लिए भारतीय छात्र सोवियत संघ के जमाने से ही आ रहे हैं.

2017 में अर्मेनिया की सरकार ने कानून में बदलाव करके भारतीय नागरिकों के लिए यहां आना आसान कर दिया. उसके बाद से इनकी संख्या बढ़ गई. पिछले साल 3,200 भारतीयों को वर्क वीजा मिला. साल 2022 में यह संख्या 530 और साल 2021 में सिर्फ 55 थी.

नर्क से भी बदतर है सऊदी अरबः भारतीय मजदूर

हालांकि कुमार जैसे कई कामगारों ने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्हें ऊंची तनख्वाह का वादा किया गया था, जिसकी वजह से वे एजेंटों को अर्मेनिया पहुंचाने के लिए बड़ी रकम देने को तैयार हो गए. कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने यहां आने के लिए 3,500 डॉलर तक की रकम चुकाई है. कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि उन्हें आते ही काम नहीं मिला या फिर उतना वेतन नहीं मिला, जिसका वादा किया गया था. इसके साथ ही भीड़ भरे कमरों में बिस्तर के लिए उन्हें ऊंचा किराया भी देना पड़ रहा है.

ज्यादातर लोग दक्षिण भारत के केरल से आए हैं. केरल में इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट के प्रमुख एस इरुदाया राजन का कहना है कि 1970 के दशक से ही राज्य के लोगों ने प्रवासन शुरू कर दिया था. उन्होंने बताया, "मुख्य कारण था गरीबी और बेरोजगारी." आज तो ज्यादातर मध्यमवर्ग के लोग हैं, जो बेहतर जीवनस्तर की कल्पना में बाहर का रुख कर रहे हैं.

राजन का कहना है कि केरल में नौकरी दिलाने वाली बहुत सी एजेंसियां हैं. उन्होंने कहा, "आप्रवासन से उम्मीद है. नौकरी देने वाली एजेंसियां लोगों को सपने बेच रही हैं." इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इस उद्योग में धोखाधड़ी बहुत है. प्रवासियों का शोषण होता है और कई देशों में उन्हें बहुत खराब हालात में रहना पड़ता है. राजन ने कहा, "मैं बहुत से लोगों को जानता हूं, जिनके साथ धोखा हुआ. अकसर प्रवास में उनकी जिंदगी पहले से भी खराब हो जाती है."

बद से बदतर हालात

कुमार का अनुभव तब और बुरा हो गया, जब येरेवान की बर्फीली सड़क पर उनका स्कूटर हादसे का शिकार हो गया. दुर्घटना के बाद वह नौकरी बदलना चाहते थे, लेकिन उन्हें कई महीने तक बेरोजगार रहना पड़ा. वह चेरी होटल का किराया नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्हें अपने एजेंट से कर्ज लेना पड़ा. बाद में उनके लिए कई दूसरी नौकरियों का बंदोबस्त किया गया, लेकिन वो सब कम समय के लिए थीं. उनके एजेंट ने उनसे कमीशन लिया और कमरे के किराए के एवज में उनका वेतन ले लिया.

वह चेरी होटल छोड़ना चाहते हैं, लेकिन विदेशी होने के कारण उन्हें नहीं पता कि जाएं कहां. कुमार कहते हैं, "यही वजह है कि हम सभी यहां इस हालात में रह रहे हैं."

जानवरों की तरह रहा सऊदी कमाने गया भारतीय

कुमार के कुछ साथी अपने दम पर आखिरकार यहां काम ढूंढने में सफल हो गए और वह भी उनके साथ जाना चाहते हैं. हालांकि तब एक और मुश्किल सामने आ गई. कुमार ने बताया कि उनके एजेंट के पास उनका पासपोर्ट था. उनका दावा है कि उन्हें पासपोर्ट हासिल करने के लिए झूठ बोलना पड़ा. कुमार ने बताया, "मैंने कहा कि मैं भारत जाना चाहता हूं, मुझे टिकट लेना है, मेरा पासपोर्ट दो." कुमार बताते हैं कि अगर वह ऐसा नहीं कहते, तो एजेंट उन्हें पासपोर्ट नहीं देता. चेरी होटल में रहने वाले कई लोगों ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनके पासपोर्ट एजेंटों ने रख लिए हैं.

एक शख्स ने बताया कि उसने येरेवान के भारतीय दूतावास में शिकायत की थी. डीडब्ल्यू ने दूतावास से संपर्क किया. वहां कॉन्सुलर आदित्य पाण्डेय पर्दे के पीछे बात करने के लिए तैयार हुए, लेकिन दूतावास ने आरोपों के बारे में पूछे गए डीडब्ल्यू के सवालों का जवाब नहीं दिया.

शानदार वेतन और सुविधाओं का वादा

कुमार का एजेंट राइहान साइनेलाबुदीन केरल से अर्मेनिया मेडिसिन की पढ़ाई करने आया था. साइनेलबुदीन का मौजूदा बिजनेस पार्टनर अन्ना पेटाकच्यान है और इन्होंने 'फाइंड योर प्रोग्रेस एलएलसी' नाम से एक कंपनी रजिस्टर कराई है. इसमें पेटाकच्यान का नाम और चेरी होटल का पता है.

कंपनी का केरल के कोल्लम में एक और दफ्तर है. कंपनी के प्रचार में दावा किया जाता है कि वो शानदार वेतन और सुविधाएं देती है और शानदार पैकेज यह सुनिश्चित करता है कि कर्मचारियों को उनकी कठोर मेहनत और लगन का बढ़िया नतीजा मिले. हालांकि कंपनी के लिए काम करने वाले भारतीय कामगारों का कहना है कि उनका शोषण हुआ और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया.

येरेवान में श्रम और प्रवासन अधिकारी आरा घजरयान ने डीडब्ल्यू से कहा कि कामगारों की नियुक्ति के पीछे क्या प्रेरणा है, उसका पता लगाना बहुत जरूरी है, ताकि नौकरी देने वाले एजेंटों का अपराध जाना जा सके. घजरयान कहती हैं, "अगर मकसद सामान्य और सुरक्षित रोजगार का वातावरण देने का नहीं है, बल्कि शोषण करना है, तो यह पहले से ही अपराध है." उन्होंने यह भी कहा कि वर्क परमिट या फिर आप्रवासन दर्जे के बगैर किसी प्रवासी को काम पर रखना एक अपराध है. इसी तरह से श्रम कानूनों का उल्लंघन भी.

सरकारों और कंपनियों के बीच झूलते प्रवासी मजदूर

घजरयान का कहना है कि प्रवासी मजदूरों को नगद भुगतान नहीं दिया जाना चाहिए. उनके पास एक वैध नौकरी का करार, काम की जगह, काम के सामान्य घंटे, सालाना छुट्टी, बीमार पड़ने पर छुट्टी और वीकेंड में छुट्टी होनी चाहिए. इसके साथ ही निश्चित रूप से उनके साथ बुरा व्यवहार नहीं होना चाहिए. घजरयान ने यह भी कहा कि पासपोर्ट रोक लेना तस्करी और शोषण का शुरुआती संकेत है. वह बताती हैं कि पासपोर्ट रोक कर वे प्रवासियों का जीवन और गतिशीलता को नियंत्रित करते हैं. आमतौर पर केवल सरकारी एजेंसियों को ही पासपोर्ट रखने की इजाजत है. घजरयान साफ कहती हैं, "पासपोर्ट संपत्ति है, उसे और कोई नहीं रख सकता.

अर्मेनिया के श्रम और सामाजिक मामलों के मंत्रालय ने डीडब्ल्यू को बताया कि 2023 में उन्होंने भारतीय मजदूरों से जुड़े 14 मामले निबटाए हैं. ये सब शायद तस्करी से जुड़े थे. अब तक किसी ने मानव तस्करी की बात स्वीकार नहीं की है, लेकिन श्रम कानूनों के उल्लंघन और धोखधड़ी की घटनाएं हुई हैं. कुछ मामलों में नौकरी देने वाली कंपनियों ने भी पासपोर्ट रखा था, लेकिन मंत्रालय का कहना है कि यह जबरन नहीं था. मंत्रालय के मुताबिक ये पासपोर्ट, कंपनियों को वर्क परमिट बनवाने के लिए दिए गए थे.

हालांकि घजरयान ने बताया कि परमिट के लिए असली पासपोर्ट देने की जरूरत नहीं होती, केवल फोटो कॉपी से ही काम चल जाता है. उन्होंने कहा, "अगर वो इससे अलग दावा करते हैं, तो यह झूठ है. इसका मतलब है कि कोई धोखाधड़ी की जा रही है."

एजेंट क्या कहते हैं?

पेटाक्च्यान और साइनेलाबुदिन ने डीडब्ल्यू से कहा कि सभी कामगार शुरू में 1,500 डॉलर जमा करते हैं. इसमें उनके आने, प्लेसमेंट और पहले महीने के लिए रहने-खाने का खर्च शामिल होता है. कुमार के आने के बाद कुछ चीजें बदली हैं. पेटाक्च्यान ने इस बात की पुष्टि की कि तब खाना और रहने का किराया मुफ्त नहीं था. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कामगारों को इसके बारे में यहां आने से पहले बता दिया गया था.

इसके साथ ही सारे कामगार अब करार पर दस्तखत करते हैं. हालांकि डीडब्ल्यू रिपोर्ट ने जो दस्तावेज देखे, उसमें मजदूरी की रकम नहीं लिखी थी और उस पर एजेंट के दस्तखत भी नहीं थे. पेटाक्च्यान का दावा है कि उनकी एजेंसी अर्मेनिया की सबसे बड़ी कुछ कंपनियों के साथ काम कर रही है जिसमें होटल, रेस्त्रां और गैस स्टेशन भी शामिल हैं. उनका कहना है कि ये कंपनियां भारतीय नागरिकों को रजिस्टर नहीं करना चाहती हैं. इसीलिए 'फाइंड योर प्रोग्रेस' मजदूरों को काम पर रखती है और उन्हें सेवाएं मुहैया कराती है.

पेटाक्च्यान के मुताबिक, यही वजह है कि वेतन सीधे मजदूरों को नहीं मिलता. उन्होंने जोर देकर कहा, "हम उन्हें बिल्कुल वही वेतन देते हैं, जो उन्हें मिलता है." होटल के बेसमेंट में बने कमरों में 40 लोगों रहने के सवाल पर पेटाक्च्यान ने कहा, "मैं यह नहीं कहती कि वह बिल्कुल सही है, लेकिन भारतीय लोगों को बस इतने भर की ही जरूरत होती है."

बातचीत के दौरान तीन लोगों ने कहा कि उन्हें उनका वेतन नहीं मिला और उन्होंने साइनेलाबुदीन और पेटाक्च्यान पर उनके पासपोर्ट रखने का आरोप लगाया. साइनेलाबुदीन ने इसका विरोध किया, "आपके पास कोई सबूत है?" पेटाक्च्यान ने इस बात की पुष्टि की कि वे मजदूरों के पासपोर्ट लेती हैं, ताकि रेसीडेंसी के लिए आवेदन कर सकें. उनका दावा है, "बाद में उन्हें पासपोर्ट लौटा देती हूं."

यह कहना कठिन है कि कौन सच बोल रहा है. हालांकि यह साफ है कि कुछ लोगों के पास पासपोर्ट नहीं थे.

कुमार से पहली मुलाकात के एक महीने बाद जब डीडब्ल्यू ने दोबारा बात की तो उनके पास नौकरी नहीं थी. एक फैक्टरी के मैनेजर ने कहा कि कुमार को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि इसका असर उनके काम पर पड़ रहा था. कुमार का कहना है कि उन्हें भारत में अपने घरवालों से पैसे मांगने पड़े. उन्हें उम्मीद है कि जल्दी ही वह टैक्सी ड्राइवर के रूप में काम शुरू कर सकेंगे.

कुमार घर जाना चाहते हैं, लेकिन फिलहाल उनके पास यह विकल्प नहीं है. उन्हें विमान टिकट के लिए पैसा चाहिए. इससे भी जरूरी यह है कि अर्मेनिया आने के लिए उन्हें जो बड़ी रकम कर्ज लेनी पड़ी थी, अभी उसे भी चुकाना है.

कुमार कहते हैं, "इसके बाद ही मैं वापस जा सकूंगा." फिलहाल तो वो अर्मेनिया में ही फंसे हैं.