आंकड़ों में घालमेल और परिभाषा बदलने से बढ़े भारत में वन!
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है.भारत की पर्यावरण अदालत इस बात की जांच कर रही है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है.

इस मामले में भारत की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है. इस विशाल वन क्षेत्र से भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है.

नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने मई में एक मामला दर्ज किया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढ़ने का दावा गलत है. याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक 23,000 वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है.

क्या है दावे का आधार?

यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से विश्व भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है. हाल की तस्वीरों से पता चला है कि 2013 से 2023 के बीच भारत में 95 फीसदी पेड़ों का नुकसान प्राकृतिक जंगलों में हुआ है, यानी जंगलों की सेहत ठीक नहीं है.

लेकिन जीएफडब्ल्यू का यह शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है. सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है. सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है.

भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव विविधता वाले आवासों में से एक हैं. लेकिन बाजार की मांगों के कारण उन पर दबाव लगातार बढ़ा है. देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का एक चौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है.

परिभाषा में बदलाव

सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया था.

नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "इन आंकड़ों में दिखाई देने वाली वृद्धि मुख्य रूप से भारतीय सरकार द्वारा 'वन' की परिभाषा को बदलने के कारण है, जिसमें वनों के बाहर के हरे क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है."

जीएफडब्ल्यू की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है: जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है; और भूमि उपयोग, जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है.

मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो. इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है.

वह कहते हैं, "अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसदी पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया."

आंकड़ों में झोल

मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है. इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी. उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है.

रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.

स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में झोल पाए गए हैं.

अमेरिकी वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई. इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया.

इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं.

नए नियम

स्वतंत्र कानून और नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहते हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है.

कोहली कहते हैं, "वन भारतीय सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है. भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं. यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और व्यापार मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों के लिए."

मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है लेकिन सरकारें वनों की वैश्विक कार्बन व्यापार में संभावनाएं भी देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र देशों को अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं.

नवंबर में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है. भारत और अन्य देशों ने तर्क दिया है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके.

एनजीटी ने एफएसआई और अन्य केंद्रीय विभागों से इस बारे में सफाई मांगी है कि वे अपने वन आंकड़े कैसे प्राप्त करते हैं और वन बढ़े हैं या नहीं. इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर को है. कोहली ने कहा कि जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी इस मामले में जांच हो सकती है. इस मामले का असर इस बात पर भी पड़ेगा कि भारत पर्यावरण की सुरक्षा के अपने दावों को कितनी ईमानदारी और सच्चाई से पेश कर रहा है.

कोहली कहते हैं, "भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपने वनों के बारे में एक अच्छी कहानी पेश करे."

वीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)