बिहार :एनडीए की प्रचंड जीत का वाहक आखिर कौन
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

बिहार की महिलाओं ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना पर पूरा भरोसा किया. करीब डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में दस हजार रुपये भेजा जाना एनडीए की जीत की गारंटी बन गया.18वीं बिहार विधानसभा के चुनाव में नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) को तमाम अनुमानों से इतर प्रचंड जीत मिली. इसका अनुमान एनडीए के घटक दलों को भी नहीं था. एनडीए 200 का आंकड़ा पार कर 202 पर पहुंच गई, वहीं महागठबंधन महज 35 सीटों पर सिमट गया. 15 जिलों में तो महागठबंधन का खाता तक नहीं खुल सका, जबकि 10 जिलों में महज एक-एक सीट से संतोष करना पड़ा. 2025 के विधानसभा चुनाव का फर्क इतना है कि इस बार बीजेपी 20.08 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 89 सीट पाकर बड़े भाई की भूमिका में आ गई, वहीं, 19.25 फीसद वोट शेयर पा कर जेडीयू 85 सीट के साथ दूसरे नंबर पर रही.

इस बार दोनों ही पार्टियों ने101-101 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उम्मीद से भी बड़ी इस जीत में महिलाओं की अहम भूमिका रही. हालांकि, इसके अतिरिक्त एनडीए की सांगठनिक मजबूती, सामंजस्य के साथ घटक दलों के साथ मजबूती से किया गया प्रचार, मतदाता सूची का संशोधन और लोगों को डबल इंजन की सरकार का मिल रहा फायदा भी जीत का फैक्टर रहा. "मेरा बूथ सबसे मजबूत" के तहत हर बूथ के लोगों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीधी बात ने एनडीए के प्रति भरोसे को खूब बढ़ाया.

राजनीतिक प्राथमिकताएं और 10 हजार का दम

बिहार विधानसभा की 243 सीट के लिए हुए 2025 के चुनाव में महिलाओं ने मताधिकार का इस्तेमाल जमकर किया. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 6 नवंबर को पहले चरण में पुरुषों की तुलना में 7.48 प्रतिशत और दूसरे चरण में 11 नवंबर को 10.15 फीसद अधिक महिलाओं ने वोट डाले. दो चरणों में हुई वोटिंग में पुरुषों की 62.98 प्रतिशत तो महिलाओं की भागीदारी 71.78 फीसद रही.

सुपौल जिले में पुरुषों और महिलाओं के मतदान का अंतर सर्वाधिक 20.71 प्रतिशत रहा. यहां 62.98 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 83.69 फीसद महिलाओं ने मताधिकार का उपयोग किया. वहीं, सात अन्य जिलों में यह अंतर 14 फीसद और 10 जिलों में दस प्रतिशत अधिक रहा. आंकड़ों के अनुसार किशनगंज जिले में सर्वाधिक 88.57, कटिहार में 84.13, सुपौल में 83.69 और पूर्णिया जिले में 83.66 प्रतिशत महिलाओं ने वोटिंग की.

उल्लेखनीय है कि पहले चरण में कुल 65.08 तो दूसरे चरण में 69.20 प्रतिशत वोटिंग हुई. पत्रकार ज्योत्सना राय कहती हैं, ‘‘रिकॉर्ड संख्या में महिलाएं वोट डालेंगी, इसका अंदाजा तो बूथों पर उनकी लंबी कतारों से लग ही रहा था. चुनाव परिणाम से यह साफ हो जा रहा कि रोजी-रोजगार, सुरक्षा, सामाजिक सम्मान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों के साथ अब वे अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं भी तय कर रही हैं. बात केवल मायके या ससुराल में रहने तक नहीं रही.''

नीतीश कुमार पर कायम रहा महिलाओं का भरोसा

बिहार की महिलाओं ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना पर पूरा भरोसा किया. यूं तो इस बार जीविका दीदियों और आशा कर्मियों का मानदेय बढ़ाना, मुफ्त बिजली और सामाजिक पेंशन की राशि 1100 रुपये कर देना तो कारगर रहा ही, लेकिन करीब डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में दस हजार रुपये भेजा जाना जीत की गारंटी बन गया.

ज्योत्सना कहती हैं, ‘‘यह बाकी सभी मुद्दों पर काफी भारी पड़ गया. विपक्ष ने पैसे लौटाने को लेकर भ्रम फैलाने की कोशिश भी की, लेकिन मुख्यमंत्री ने अपनी सभाओं में लगातार इसका खंडन किया और कहा कि यह राशि लौटाने की जरूरत नहीं है. इससे लाभार्थी महिलाओं में सीधा संदेश गया.'' महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत और स्थानीय निकायों में 50 फीसद आरक्षण तो पहले से चल ही रहा.

युवा वोटर दीप्ति कहती हैं, ‘‘गरीब लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा, पढ़ने के लिए पोशाक से लेकर साइकिल तक और फिर उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति दी जा रही. कई चिंताओं से महिलाओं को राहत मिली है. कई महिलाएं उनमें परिवार के मुखिया का अक्स देखती हैं. इसलिए एक बार फिर भरोसा कर उन्हें खूब वोट दिया.'' इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि शराबबंदी को लागू करने के तौर-तरीकों पर पुरुषों का एतराज है, लेकिन उसी घर की महिलाएं शराबबंदी से खुश हैं. दो वक्त की रोटी चैन से मयस्सर हो और बच्चों की जिंदगी खुशहाल रहे, इसके लिए शराबबंदी को लेकर हमेशा नीतीश कुमार के पक्ष में खड़ी रहती हैं.

वहीं, अगर उम्मीदवारी के लिहाज से देखा जाए तो इस बार दोनों चरणों के कुल 2616 प्रत्याशियों में महिलाओं की संख्या 255 थी. प्रमुख पार्टियों में बीएसपी ने सर्वाधिक 26, जनसुराज ने 25, एलजेपी (आर) ने छह, बीजेपी ने 12, जेडीयू ने 13 तो आरजेडी ने 23, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) ने दो और आरएलएम ने एक को टिकट दिया था. इनमें बीजेपी की 10, जेडीयू की नौ, आरजेडी और एलजेपी (आर) की तीन-तीन, हम की दो और आरएलएम की एक यानी कुल 28 महिलाएं ही विधानसभा की देहरी तक पहुंचने में कामयाब हो सकीं. इससे पहले 2020 में यह संख्या 25 तो 2010 में 34 थी.

जीविका दीदियों का मिला साथ, बनीं उत्प्रेरक

बिहार में महिला मतदाताओं की कुल संख्या तीन करोड़ 50 लाख है. जीविका दीदियों की संख्या एक करोड़ 40 लाख से अधिक है, जो वर्तमान में करीब 11 लाख से अधिक स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) से जुड़ी हैं. राज्य सरकार अपनी योजनाओं को जमीन पर उतारने और उसके प्रचार-प्रसार में इनकी मदद लेती रही है. एनडीए इन्हीं की मदद से चुनाव में महिला वोटरों को साधती रही है. पटना जिले के वोटर गौरव कुमार कहते हैं, ‘‘सरकार की योजनाएं और वादे तो बाद की बात हैं, सबसे अहम है महिलाओं को बूथ तक पहुंचने और मताधिकार के उपयोग के लिए प्रेरित करना. इस बार के चुनाव में जीविका दीदियों ने उत्प्रेरक की भूमिका बखूबी निभाई. इसके अलावा आंगनबाड़ी सहायिकाएं और सेविकाएं और आशा कार्यकर्ता भी खूब सक्रिय रहीं.''

आगे वह बताते हैं, "चुनाव के करीब दस दिन पहले से ही वे अपने इलाके में घर-घर जाकर महिलाओं से बात कर रही थीं. मेरे ही घर में इस बीच शायद ही कोई दिन बीता हो, जब वे नहीं पहुंची हों. मतदान के दिन भी वे काफी सजग रहीं, कि कौन वोट डालने आया कौन नहीं. कई महिलाओं को तो फोन करके भी आग्रह किया.

राजनीतिक समीक्षक एके चौधरी कहते हैं, ‘‘जीविका से जुड़ी महिलाएं हो या आंगनबाड़ी से, इन लोगों ने राज्य सरकार की महिला सशक्तिकरण की योजनाओं को घर-घर पहुंचा दिया. उन्हें बताया कि ये हवा-हवाई बातें नहीं हैं, धरातल पर यह हो रहा. जाहिर तौर पर इसका असर देखने को मिला. बढ़-चढ़कर की गई घोषणाओं का कोई असर नहीं हुआ. जो हासिल हो रहा, उसी पर महिलाओं ने भरोसा किया.'' यही वजह रही कि तेजस्वी यादव का हर घर सरकारी नौकरी का वादा हो या फिर जीविका दीदियों का मानदेय बढ़ाने या फिर एकमुश्त 30 हजार की रकम भेजने का, कोई असर नहीं दिखा सका. मतदाताओं ने डबल इंजन की सरकार द्वारा किए गए विकास पर भी भरोसा जताया.

‘जंगलराज' का नैरेटिव नहीं तोड़ पाया महागठबंधन

इस बार के विधानसभा चुनाव में जंगलराज की गूंज फिर से सुनाई दी. इस क्रम में एनडीए के बड़े नेताओं ने कनपटी पर कट्टा से लेकर अप्पू-पप्पू-टप्पू जैसे कटाक्ष का इस्तेमाल किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने एक रैली के दौरान भोजपुरी गीत "सिक्सर की छह गोली छाती में मार देंगे” का इस्तेमाल किया. एनडीए की 20 साल की सरकार के बाद भी ‘जंगलराज' ही प्रचार के केंद्र में रहा.

राजनीतिक समीक्षक एस के. सिंह कहते हैं, ‘‘महागठबंधन खासकर आरजेडी यह छवि नहीं तोड़ पाई कि उसकी सरकार आएगी तो अपराधियों के प्रति नरम ही रहेगी. इससे उलट सभी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पर व्यक्तिगत आक्षेप करते रहे. उनकी मुस्लिम परस्त छवि ने भी ध्रुवीकरण को बढ़ाने में मदद की.'' कहीं न कहीं एनडीए का चुनाव प्रचार ज्यादा आत्मविश्वास भरा दिखा. इससे वे एम से महिला और वाई से युवा का नया समीकरण गढ़ने में सफल रहे. इसलिए जातिगत वोटिंग का दाग भी इस बार मिट गया. इसके अलावा सीएम और डिप्टी सीएम चेहरे की घोषणा को लेकर खींचतान और फिर कई सीटों पर 'फ्रेंडली फाइट' भी तो नुकसानदेह ही रही.

मुंगेर जिले के दियारे के एक मतदाता मिथिलेश कहते हैं, ‘‘सोशल मीडिया में जातिगत गाने वाले रील्स चल रहे थे, जिससे आमलोगों को लगा कि आरजेडी लौटी तो फिर यादवों का उत्पात बढ़ेगा. ऐसे रील्स खूब वायरल हो रहे थे जिससे लोग सहम गए. जैसे, एक में कहा जा रहा था कि भैया के सरकार बनतई त कोई बोलतई रे. इन सबसे उनके वादों पर एतबार की बात दूर, लोग उलटे बिदक ही गए.'' हमारे ग्रामीणों का कहना था कि अगर ये लौटे तो फिर दियारे में इनका उत्पात बढ़ेगा और भूमिहार सहित अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों की खेती-बारी तक मुश्किल हो जाएगी. अगर यह सब गलत था तो इनकी आईटी टीम को इसे रोकना चाहिए था.

शायद, इसलिए ज्योत्सना कहती हैं, ‘‘बिहार के वोटरों को किसी पर भी भरोसा करने में लंबा वक्त लगता है, चाहे वे लालू या नीतीश ही क्यों न रहे हो. वरना बातें तो सबसे अधिक जनसुराज की वाजिब थीं, लेकिन भरोसे की कमी से सोशल मीडिया का सपोर्ट वोट में कतई तब्दील नहीं हो सका.''