रायपुर, 17 जुलाई : भारतीय राजनीति में वर्ष 2014 बड़ा बदलाव लेकर आया और इस बदलाव के जरिए केंद्र की सत्ता पर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का कब्जा हुआ. उसके बाद भाजपा का राज्यों में भी तेजी से दायरा बढ़ा और कई स्थानों पर तो उसे ऑपरेशन कमल भी चलाना पड़ा. मगर छत्तीसगढ़ में भाजपा को वर्ष 2018 में मात मिली और अब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) धीरे-धीरे इस राज्य को कांग्रेस के अभेद्य किले में बदलने में लग गए हैं.
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के समय कांग्रेस के हाथ में सत्ता थी और उसके बाद वर्ष 2003 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल करते हुए सत्ता हासिल की थी. डेढ़ दशक तक भाजपा सत्ता में रही, मगर वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को बुरी तरह शिकस्त दी और सत्ता पर काबिज हुई. कांग्रेस की भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली सरकार को साढ़े तीन साल का वक्त गुजर गया है. इन साढ़े तीन सालों में कांग्रेस के भीतर और बाहर से सरकार को अस्थिर करने की कई बार कोशिश हुई मगर किसी को भी कामयाबी हासिल नहीं हुई. वहीं कांग्रेस ने इस अवधि में चुनावों में जीत दर्ज कर अपनी ताकत दिखाई है.
छत्तीसगढ़ में कई बार ऐसा लगता है मानों भूपेश बघेल ही कांग्रेस हैं. उसकी वजह भी है क्योंकि पहले उनके हाथ में संगठन की कमान रही और इस दौरान उन्होंने पार्टी को बूथ स्तर पर मजबूत किया, तो वहीं सत्ता में आने के बाद गांव और गरीब के लिए कई योजनाओं को अमली जामा पहनाया. इतना ही नहीं इस राज्य में कांग्रेस की बड़ी ताकत 32 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 12 फीसदी अनुसूचित जाति वर्ग की आबादी है. यह कांग्रेस का वोट बैंक रहा है जो अब भी बना हुआ है. इस राज्य में कांग्रेस दो विधानसभा चुनाव महज एक प्रतिशत वोट बैंक के अंतर से हारी थी .
राज्य की राजनीति की समझ रखने वालों का मानना है कि इस राज्य में दलबदल करने वालों को कभी भी फायदा नहीं हुआ है. बल्कि कांग्रेस का साथ छोड़ने पर नुकसान ही हाथ लगा है. ऐसा इसलिए क्योंकि अजीत जोगी और विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेता इसका उदाहरण हैं. कांग्रेस के नेताओं को यह भी पता है कि कांग्रेस का अपना वोट बैंक है. यही कारण है कि कांग्रेस के लोग दलबदल की कोशिश से बचते हैं. जोगी ने जब अलग दल बनाया था तो उनके करीबी भी कांग्रेस में ही रहे थे.
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव राजेश तिवारी का मानना है कि भूपेश बघेल उन नेताओं में से हैं जो गांव और वहां की समस्याओं को न केवल जानते हैं बल्कि महसूस भी करते हैं. इतना ही नहीं प्रशासनिक अमला भी उन्हें अंधेरे में रखकर कोई योजना नहीं बना सकता. कुल मिलाकर जहां एक तरफ बघेल संगठनात्मक तौर पर मजबूत राजनेता हैं तो दूसरी ओर उनकी प्रशासनिक पकड़ मजबूत है.
भाजपा से जुड़े लोगों की मानें तो राज्य में भाजपा के लिए तीसरे दल की मजबूती ज्यादा मायने रखती है. ऐसा होने पर कांग्रेस को नुकसान होता है और भाजपा अपने वोट प्रतिशत 40 के आसपास रहकर सत्ता में आसानी से आ जाती है. इस राज्य में तीसरे दल की भूमिका जितनी कमजोर होगी, भाजपा का विधानसभा में रास्ता उतना ही कठिन होगा. यह भी पढ़ें : बंगाल में तृणमूल के खिलाफ वाम-कांग्रेस एक साथ, 2024 के लोकसभा चुनाव में बनेगी बात?
राज्य की स्थिति पर गौर करें तो यहां भाजपा की स्थिति ठीक वैसे ही हो गई है जैसी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की है. इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के भीतर भी सब कुछ ठीक-ठाक हो. कई बार पार्टी के भीतर से बदलाव की कोशिश हुई, मगर बात नहीं बन पाई. बघेल की कार्यशैली कुछ ऐसी है जिसमें वह जो ठान लेते हैं वह करने से पीछे नहीं रहते. मौके बे मौके पर पार्टी हाईकमान के सामने भी अपनी बात कहने से नहीं चूकते. इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर बघेल ने अपनी नई पहचान बनाई है और वह कांग्रेस के लिए हर स्तर पर लड़ाई लड़ते नजर आते हैं. बात चाहे दिल्ली प्रदर्शन की ही क्यों न हो, बघेल वहां भी राहुल गांधी के साथ खड़े रहने वालों में सबसे आगे नजर आए.
राजनीतिक विश्लेषक रूद्र अवस्थी का मानना है कि भूपेश बघेल ने राज्य में नई तरह की राजनीति की शुरूआत की है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक तरफ मजबूत करने में लगे हैं जिससे गांव के लोगों को रोजगार मिल रहा है तो दूसरी ओर उन्होंने छत्तीसगढ़ी अस्मिता को स्थापित करने की कोशिश की है. वहीं राजनीतिक तौर पर उन्होंने पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों को कभी खुलकर अहमियत नहीं दी बल्कि उनके प्रभाव को कम करने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया. यही कारण है कि राज्य में भाजपा भी बहुत कमजोर हो गई है. बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद कुछ बड़े आयकर विभाग के छापे जरुर पड़े हैं और इसकी चपेट में बघेल के करीबी आए हैं, मगर अब तक राज्य में खुले तौर पर कोई बड़ा घपला या घोटाला नहीं आया है जो सरकार को मुश्किल में डाल सके.