बड़े पर्दे पर अमिताभ बच्चन की खामोशी के कुछ सुनहरे पल, जो इस तरह हैं
अमिताभ बच्चन के हाव-भाव और रंग-ढंग के साथ साथ उनकी आवाज भी उनको एक सफल अभिनेता बनाती है. कई बार फिल्म यह मांग कर सकती है कि कलाकार बिना किसी शब्द के सिर्फ चेहरे के भाव और शरीर की भाषा का इस्तेमाल कर अपनी एक अलग छाप छोड़े.
अमिताभ बच्चन के हाव-भाव और रंग-ढंग के साथ साथ उनकी आवाज भी उनको एक सफल अभिनेता बनाती है. कई बार फिल्म यह मांग कर सकती है कि कलाकार बिना किसी शब्द के सिर्फ चेहरे के भाव और शरीर की भाषा का इस्तेमाल कर अपनी एक अलग छाप छोड़े. इससे उनकी क्षमता का पता चलता है. ऐसे में अमिताभ बच्चन ने हमेशा ही अपने हुनर से एक शानदार प्रदर्शन देकर सबको खुश किया है.
मनोज कुमार ने अमिताभ से सितंबर 1967 में पहली मुलाकात के बाद उनकी आवाज को 'एक मधुर फुसफुसाहट, जो एक गरजते बादल की तरह है' के रूप में वर्णित किया, जब अमिताभ फिल्म उद्योग में अपनी किस्मत आजमाने के लिए बॉम्बे पहुंचे, और उनके साथ पहली फिल्म 'रेशमा और शेरा' (1971) थी जिसमें उन्होंने बिना संवाद के अभिनय किया था.
निर्देशक और निर्माता सुनील दत्त के अनुसार, उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नरगिस को फोन कर उद्योग में अमिताभ बच्चन के लिए मार्ग प्रशस्त करने को कहा था. यह भी पढ़ें : Neelam Giri New Bhojpuri Song: नीलम गिरी ने प्रवेश लाल के साथ किया हॉट रोमांस, नया भोजपुरी सॉन्ग ‘ये पियवा हो’ मचा रहा धमाल (Watch Video)
उस वक्त अमिताभ ने 'सात हिंदुस्तानी' में काम किया था और ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा 'भुवन शोम' (1969) में अपनी आवाज दी थी. अमिताभ ने फिल्म में असहाय छोटू के रूप में अपनी छाप छोड़ी. वहीदा रहमान, विनोद खन्ना, राखी, रंजीत, जयंत, के.एन. सिंह, अमरीश पुरी और एक बहुत ही युवा संजय दत्त एक कव्वाली कलाकार की भूमिका निभा रहे थे!
हालांकि, जबकि उनके करियर की अन्य फिल्मों ने उन्हें बोलने से प्रतिबंधित नहीं किया, उन्होंने कुछ अमर ²श्यों को दिखाया, जहाँ उन्होंने अपने अपनी आवाज के बिना कई तरह की भावनाओं को प्रदर्शित किया.
आइए इनमें से कुछ को देखें-
1. 'आनंद (1971)' - एक डॉक्टर की भूमिका निभा रहे हैं, वो बीमार राजेश खन्ना का इलाज करते हैं. उस ²श्य को याद करें जहां खन्ना अपने घर की बालकनी पर हैं, और 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए', गाते हैं और उसी समय बच्चन प्रवेश करते हैं, कमरे की बत्ती बुझाते हैं और फिर, खड़े हो जाते हैं, बिना कुछ कहे.
2. 'जंजीर (1973)' - यह वह फिल्म थी जिसने बच्चन को हर घर में पहचान दिलाई और 'एंग्री यंग मैन' शब्द को चलन में ला दिया. जबकि फिल्म के संवाद, विशेष रूप से पुलिस स्टेशन मुठभेड़ को सबने देखा है लेकिन एक ²श्य है जहां इंस्पेक्टर विजय खन्ना थोड़ी तरलता दिखाते हैं और रोमांस पनपता है क्योंकि जया भादुड़ी को सुरक्षा मुहैया करते हैं. खिड़की पर खड़े होकर भोलापन दिखाते हुए गाना सुनते हैं - 'दीवाने है, दीवानों को न घर चाहिए.'
3. 'दीवार (1975)' - जहां 'जंजीर' ने बच्चन को नाम दिया, वहीं 'दीवार' ने उनकी साख को बढ़ा दिया. डायलॉग से भरी फिल्म में फिर से एक ²श्य है, जब बच्चन को उनके गुरु, डावर (इफ्तेहर एक दुर्लभ नकारात्मक भूमिका में) आमंत्रित करते हैं. बच्चेन धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं डेस्क के चारों ओर चलते हैं, और मेज पर पैर रख कर बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह जाते हैं.
4.'शोले (1975)' - जहां बच्चन को उस सीन के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जब वो अपने दोस्त वीरू (धर्मेंद्र) के लिए मैचमेकर की भूमिका निभाते हैं, लेकिन फिल्म में कई सीन हैं जिसमें वो बिना किसी शब्द के चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, शानदार अभिनय से.
5. 'याराना (1981)' - फिल्म में बच्चन को शहर में लाकर पूरा मेकओवर किया जाता है. अपने शिष्टाचार प्रशिक्षक को टंग-ट्विस्टर के साथ चुनौती देते हैं, दोनों हाथों को घुटनों पर थप्पड़ मारते हैं, अपने बाएं कान को दाहिने हाथ से स्पर्श करते हैं, अपने बाएं हाथ का उपयोग अपनी नाक को छूने के लिए करते, हाथों को घुटनों पर फिर से थपथपाते हैं.
6.'कालिया (1981)' - परवीन बाबी को यह सिखाने के बाद कि साड़ी को खुद पर लपेटकर कैसे पहनना है, अमिताभ उसे अपनी भाभी (आशा पारेख) से मिलवाने के लिए घर ले आते हैं. वह तुरंत बाबी को खाना पकाने के काम में लगा देती है और खुद को रसोई में समेट लेती है. बच्चन अंडे को कैसे फोड़ना है, इस बारे में संक्षिप्त निदेशरें के साथ उसकी मदद करने की कोशिश करते हैं.