क्या महासागरों से निकलेगा जलसंकट का समाधान?
विलवणीकरण यानी समन्दर के पानी से नमक अलग करने की प्रक्रिया में ऊर्जा की खपत बहुत ज्यादा होती है और पर्यावरण के लिहाज से भी ये विषैली है.
विलवणीकरण यानी समन्दर के पानी से नमक अलग करने की प्रक्रिया में ऊर्जा की खपत बहुत ज्यादा होती है और पर्यावरण के लिहाज से भी ये विषैली है.ताजा पानी के इन सूखते, कम होते स्रोतों का बंटवारा बड़ा ही असंतुलित है. गरम, शुष्क क्षेत्रों में बढ़ती आबादी और बढ़ते जीवन स्तर के बीच, पानी पूरा नहीं पड़ रहा है- और हालात को और दुष्कर बना दिया है जलवायु परिवर्तन ने.
क्लाउड सीडिंग या आइसबर्ग हारवेस्टिंग जैसे उपाय हैं तो सहीं लेकिन बड़े पैमाने पर इनका इस्तेमाल साबित नहीं हुआ है. लिहाजा महासागरों के पानी से नमक हटाकर उसे पीने लायक बनाना ही, पानी से वंचित सूखाग्रस्त इलाकों को राहत पहुंचाने के लिए, एक आखिरी तरीके के रूप में उभर कर आया है.
समन्दर के पानी से नमक को अलग करने की सदियों पुरानी अवधारणा के तहत थर्मल डिस्टिलेशन या रिवर्स ओस्मोसिस मेम्ब्रेन का का उपयोग किया जाता था.
आज ये तकनीक दुनिया भर में इस्तेमाल की जा रही है. 170 से ज्यादा देशों में 20 हजार से अधिक डिसैलिनेशन प्लांट (विलवणीकरण संयंत्र) लगाए गए हैं. सबसे बड़े 10 संयंत्र सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरता और इस्राएल में लगे हैं.
जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य के संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी संस्थान में डिप्टी डायरेक्टर मंजूर कादिर ने डीडब्लू को बताया कि दुनिया का करीब 47 फीसदी, नमक रहित पानी (डिसैलिनेटड वॉटर) अकेले मध्यपूर्व और उत्तर अफ्रीका में तैयार किया जाता है.
मंजूर कादिर के मुताबिक इन सूखे इलाकों के पास विकल्प ज्यादा थे भी नहीं, क्योंकि प्रति व्यक्ति 500 घन मीटर से भी कम पानी उन्हें बारिश या नदियों से मिलता है. संयुक्त राष्ट्र से निर्धारित पानी की किल्लत की अधिकतम सीमा की ये आधी मात्रा है. इसकी तुलना में अमेरिका में प्रति व्यक्ति 1207 घन मीटर पानी उपबल्ध है.
पानी की ये तंगी और गहराने वाली है. न सिर्फ तापमान बल्कि आबादी भी बढ़ रही है. कादिर के मुताबिक सब सहारा अफ्रीकी क्षेत्र 2050 तक "पानी की किल्लत का हॉटस्पॉट" बन जाएगा.
विलवणीकरण के बारे में वो कहते हैं कि "जल संसाधनों में बढ़ोत्तरी के लिहाज ये एक शानदार विकल्प है." उनके मुताबिक लागत में भी "बड़ी भारी गिरावट" आ चुकी है — 2000 के दशक में ये प्रति घन मीटर (1000 लीटर) पांच डॉलर थी और आज महड 50 सेंट रह गई है.
अबरदीन यूनिवर्सिटी में समुद्री जैवविविधता के चेयर और साइप्रस में डिसैलिनेशन के पर्यावरणीय प्रभावों के जानकार फ्रिथयोफ सी. क्युप्पर कहते हैं, "ये दिमाग लगाने वाली बात ही नहीं. साइप्रस जैसे देशों को अगर ऐसा जीवन स्तर बनाने रखना है तो उनके लिए और कोई विकल्प है ही नहीं."
क्युप्पर के मुताबिक यूरोपीय संघ में सबसे गरम और सबसे सूखा देश साइप्रस अपने 80 फीसदी पेयजल के लिए विलवणीकरण (डिसैलिनेशन) पर निर्भर है.
छिटपुट और कम वर्षा के बीच, 1990 के दशक से ही साइप्रस में पानी से जुड़े प्रतिबंध लगा दिए गए थे. क्युप्पर इस बारे में बताते हैं कि साइप्रस की सरकार ने पहले यूनान से जहाजों में लादकर मंगाए पानी से कमी को पूरा करने की कोशिश की थी.
"लेकिन डिसैलिनेटिंग के मुकाबले उसमें दस गुना ज्यादा खर्च आ रहा था." वो ये भी कहते हैं कि पानी की कमी से निपटने के लिए सरकार ने 2000 के आरंभिक दिनों में डिसैलिनेशन प्लांटों का निर्माण शुरु कर दिया था.
डिसैलिनेशन से समुद्र और जलवायु पर असर
लेकिन क्युप्पर और कादिर दोनों मानते हैं कि जल संकट को दूर करने की जादुई गोली बनने से पहले विलवणीकरण की प्रक्रिया अपने मौजूदा स्वरूप में कुछ गंभीर पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी दिखाती है.
पहली बात तो ये कि पानी से नमक को अलग करने में बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है.
साइप्रस में, विलवणीकरण के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को लेकर 2021 में क्युप्पर के किए एक अध्ययन ने दिखाया कि देश में कुल उत्सर्जनों में से, 2 फीसदी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन मौजूदा चार डिसैलिनेशन प्लांटों से होता है.
देश में कुल बिजली खपत का 5 फीसदी खर्च इन संयंत्रों ने किया. बिजली का सबसे ज्यादा उपभोग करने वाले सेक्टरों में ये डिसैलिनेशन प्लांट भी हैं.
इसके अलावा, रिपोर्ट ने ये रेखांकित भी किया कि नमक रहित पानी को तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान करीब 10 करोड़ 3 लाख घन मीटर विषैला और बहुत ज्यादा खारा शेष पानी भी बह निकला. जिसका असर भूमध्य सागर में समुद्री घास के पारिस्थितिकीय तंत्र (सीग्रास ईकोसिस्टम) पर उन इलाकों पर पड़ा जहां निकासी पाइप छोड़े गए थे.
दुनिया भर में पानी से खारापन दूर करने और ब्राइन उत्पादन की प्रक्रिया की स्थिति पर मंजूर कादिर के सह लेखन में तैयार एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बढ़ा हुआ खारापन, जलवायु प्रेरित तापमान वृद्धि के साथ मिलकर डिसॉल्व्ड ऑक्सीजन कंटेंट को कम कर सकती है जिसकी वजह से हाइपोक्सिया होता है.
ये हाइपरसैलीन (अत्यधिक खारा) पानी, महासागर के तल में जा धंसता है और समूची खाद्य ऋंखला के लिए अत्यंत जरूरी समुद्री सूक्ष्मजीवियों को खत्म कर देता है. रिपोर्ट के मुताबिक, तांबा और क्लोराइड जैसे रासायानिक अवयव भी डिसैलिनेशन की प्रक्रिया में निकलते हैं और वे भी जीवों के लिए घातक हो सकते हैं.
खारापन हटाने की टिकाऊ प्रक्रिया
साइप्रस से जुड़े अध्ययन के लेखकों का निष्कर्ष है कि अपेक्षाकृत उच्च सीओटू उत्सर्जन का समाधान यही है कि डिसैलिनेशन प्लांट अक्षय ऊर्जा से चलाए जाएं.
बर्लिन स्थित कंपनी बोरियल लाइट ने ऑफ-ग्रिड सौर और पवन ऊर्जा डिसैलिनेशनप्लांट विकसित किए हैं जो ज्यादा बेहतर ऊर्जा निर्भरता और कीमतों में उतारचढ़ाव से बचाव सुनिश्चित करते हैं.
बोरियल लाइट के सह संस्थापक और महाप्रबंधक अली अल-हकीम ने डीडब्लू को बताया, "पानी हमें मुफ्त में उपलब्ध है, सौर और पवन ऊर्जा से हमें बिजली मिल गई है, इसलिए हम अब 50 सेंट में एक हजार लीटर पानी तैयार कर सकते हैं." वो ये भी बताते हैं कि एक घन मीटर में लागत उतनी ही आती है जितनी नदियों या कुओं से सीधे पानी खींचने में.
इस बीच, डिसैलिनेशन की प्रक्रिया में बचेखुचे खारे पानी की निकासी का प्रबंध बेहतर ढंग से और नाजुक समुद्री ईकोसिस्टम से दूर किया जा सकता है. लेकिन क्युप्पर कहते हैं कि ज्यादा बेहतर ये होगा कि लगभग ठोस हो चुके उस पानी को जमीन पर ही रखा जाए.
डिसैलिनेसन पर 2019 के अध्ययन में बताया गया है कि बचेखुचे पानी से सोडियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, पोटेशियम, ब्रोमीन, बोरोन, स्त्रोनटियम, लीथियम, रुबीडियम और यूरेनियम जैसे पदार्थ कैसे निकाले जा सकते हैं. और किस तरह उद्योग और खेती में दोबारा इस्तेमाल किए जा सकते हैं. लेकिन कादिर मानते हैं कि इन संसाधनों की रिकवरी आर्थिक लिहाज से दूर की कौड़ी ही है.
लेकिन वो ये भी कहते हैं कि इसे बदलने की जरूरत है क्योंकि "अपेक्षाकृत निम्न कौशल के साथ बड़ी मात्रा में ब्राइन पैदा करने वाले सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और कतर जैसे देशों में, दोबारा इस्तेमाल एक अहम टिकाऊ समाधान है."
ब्राइन का दोबारा इस्तेमाल
अमेरिका स्थित शोध संस्थान, एमआईटी के वैज्ञानिकों ने कुछ तरीके सुझाए हैं जिनकी मदद से कास्टिक सोडा, या सोडियम हाइड्रोऑक्साइड बनाने में ब्राइन के नमक का दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है.
डिसैलिनेशन प्लांट में जाने वाले समुद्री पानी का खारापन हटाने के लिए सोडियम हाइड्रोऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता है. वो पानी को फिल्टर करने वाली रिवर्स ओस्मोसिस मेम्ब्रेन्स को खराब होने से भी रोकता है. शोधकर्ताओं ने पाया कि ऐसी खराबी, ब्रेकडाउन का एक खास स्रोत होती है और उसी की वजह से ऊर्जा ज्यादा खर्च होती है और ओवरऑल लागत भी बढ़ जाती है.
ब्राइन का ये इस्तेमाल अभी शुरुआती अवस्था में है. लेकिन कादिर कहते हैं कि अमेरिका में अपेक्षाकृत नये और ज्यादा आधुनिक, और ताजातरीन ओस्मोसिस तकनीक का इस्तेमाल करने वाले प्लांट पहले से कम ब्राइन पैदा करते हैं.
कादिर बताते है कि दुनिया का करीब 12 फीसदी नमकविहीन (विलवणीकृत) पानी लेकिन सिर्फ 3.9 फीसदी ब्राइन, अमेरिका में तैयार होता है. उसकी तुलना में मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र करीब 47 फीसदी विलवणीकृत पानी बनाता है लेकिन उसमें दुनिया का 70 फीसदी ब्राइन भी निकलता है. इसकी एक वजह है कुशल संयंत्रों का अभाव.
कादिर कहते हैं कि प्रौद्योगिकी में सुधार के साथ जलवायु और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी कम होंगे.
क्युप्पर कहते हैं कि जाहिर रास्ता डिसैलिनेशन का ही है. "हमारा काम ये सुनिश्चित करना है कि वो सस्टेनेबल तरीके से हो."