नयी दिल्ली, 27 अप्रैल उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को केंद्र से पूछा कि वह राजीव गांधी हत्याकांड में 36 साल की सजा काट चुके एजी पेरारिवलन को रिहा क्यों नहीं कर सकता। अदालत ने यह देखते हुए कि सरकार ने एक “विचित्र” रुख अपनाया है कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने दोषी को रिहा करने के राज्य मंत्रिमंडल के निर्णय को राष्ट्रपति को अग्रसरित किया है जो दया याचिका पर निर्णय लेने के लिये सक्षम प्राधिकारी हैं, यह बात कही।
शीर्ष अदालत ने कहा कि जब जेल में कम अवधि की सजा काटने वाले लोगों को रिहा किया जा रहा है, तो केंद्र उन्हें रिहा करने पर सहमत क्यों नहीं हो सकता।
तमिलनाडु सरकार ने कहा कि केंद्र केवल कानून में स्थापित स्थिति को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रथम दृष्टया उसे लगता है कि राज्यपाल का फैसला गलत और संविधान के खिलाफ है क्योंकि वह राज्य मंत्रिमंडल के परामर्श से बंधे हैं और यह (उनका फैसला) संविधान के संघीय ढांचे पर प्रहार करता है।
न्यायमूर्ति एलएन राव और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि वह एक सप्ताह में उचित निर्देश प्राप्त करें अन्यथा वह पेरारिवलन की दलील को स्वीकार कर इस अदालत के पहले के फैसले के अनुरूप उसे रिहा कर देगी।
नटराज ने कहा कि कुछ स्थितियों में राष्ट्रपति सक्षम प्राधिकारी होते हैं न कि राज्यपाल, खासकर जब मौत की सजा को उम्रकैद में बदलना पड़ता है।
पीठ ने विधि अधिकारी से कहा कि दोषी 36 साल जेल की सजा काट चुका है और जब कम अवधि की सजा काटने वाले लोगों को रिहा किया जा रहा है तो केंद्र उसे रिहा करने पर राजी क्यों नहीं है।
पीठ ने कहा, “हम आपको बचने का रास्ता दे रहे हैं। यह एक विचित्र तर्क है। आपका तर्क कि राज्यपाल के पास संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत दया याचिका पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, वास्तव में संविधान के संघीय ढांचे पर प्रहार करता है। राज्यपाल किस स्रोत या प्रावधान के तहत राज्य मंत्रिमंडल के फैसले को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।”
न्यायमूर्ति राव ने कहा कि अगर राज्यपाल राज्य मंत्रिमंडल के उसे (दोषी को) रिहा करने के फैसले से असहमत हैं, तो वह इसे वापस मंत्रिमंडल में भेज सकते हैं लेकिन राष्ट्रपति को नहीं भेज सकते।
पीठ ने कहा, “हमारा प्रथम दृष्टया विचार है कि राज्यपाल की कार्रवाई गलत है और आप संविधान के विपरीत तर्क दे रहे हैं। राज्यपाल राज्य मंत्रिमंडल की सहायता और सलाह से बंधे हैं।”
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “अगर केंद्र की बात माननी है तो यह संविधान के संघीय ढांचे पर हमला होगा। संविधान को फिर से लिखना होगा कि कुछ स्थितियों में अनुच्छेद 161 के तहत मामलों को राष्ट्रपति को संदर्भित किया जा सकता है।”
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि पिछले साढ़े तीन साल से राज्यपाल ने यह स्टैंड लिया है जो “विचित्र” है।
पीठ ने कहा, “संविधान में किस प्रावधान के तहत राज्यपाल ने मामले को राष्ट्रपति के पास भेजा है? ऐसी शक्ति का स्रोत क्या है जो उन्हें मामले को राष्ट्रपति के पास भेजने की अनुमति देता है? राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल की सहायता और सलाह पर कार्य करना होता है, यदि आप अनुच्छेद 161 को ध्यान से पढ़ेंगे, तो आप पाएंगे कि राज्यपाल को अपनी शक्तियों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करना है।”
पीठ ने नटराज से कहा, “क्या राज्यपाल मामले को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं? क्या राज्यपाल के पास कार्यपालिका के निर्णय को राष्ट्रपति के पास भेजने की शक्ति है? यह सवाल है। आप जो तर्क दे रहे हैं उसके व्यापक प्रभाव हैं। इसलिए आप उचित निर्देश लें और हम आदेश पारित करेंगे।”
तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि इस संबंध में इस अदालत के कई फैसले हैं और केंद्र केवल कानून में स्थापित स्थिति को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है।
उन्होंने कहा, “राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल की सहायता और सलाह से कार्य करना होता है। अनुच्छेद 161 के तहत दया याचिकाओं पर फैसला करते समय राज्यपाल की व्यक्तिगत संतुष्टि का कोई फायदा नहीं है, वह राज्य सरकार के फैसले से बंधे हैं।”
शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार और नटराज को निर्देश दिया कि वह सुनवाई की अगली तारीख पर सभी मूल दस्तावेज और आदेश पेश करें क्योंकि वह दलीलें सुनेगी और फैसला सुनाएगी।
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