1.5 डिग्री की लक्ष्मण रेखा के पार क्या होगा
जलवायु संकट पर जारी बहसों में पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को 1.
जलवायु संकट पर जारी बहसों में पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा रेखा के भीतर रखने पर जोर दिया जा रहा है, जिसे पार नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा क्यों है और अगर ये सीमा पार हो ही गई तो क्या हो जाएगा?दुनिया भर के नेता इस वक्त दुबई में 28वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं. यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब पेरिस समझौते को अस्तित्व में आए आठ साल पूरे हो गए हैं.
उस समय, दुनिया के अधिकांश देशों ने वैज्ञानिक चेतावनियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि पृथ्वी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा गर्म होने की यदि अनुमति दी जाएगी तो लाखों लोग विनाशकारी गर्मी की लहरों और प्रचंड तूफानों और जंगल की आग की चपेट में आ जाएंगे.
उन्होंने वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने सहमति व्यक्त की और कहा कि इसे 1.5 डिग्री से नीचे रखने के लिए ‘कोशिशें जारी रहेंगी'.
लेकिन सवाल उठता है कि तापमान वृद्धि की 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा ही क्यों तय की गई, यानी इसी खास संख्या को क्यों चुना गया और, यदि हम उस सीमा को पार कर जाते हैं तो क्या होगा?
1.5 डिग्री सेल्सियस की लक्ष्मण रेखा
वैज्ञानिकों ने 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को एक तरह से सुरक्षात्मक रेखा बताया. विशेषज्ञों का कहना है कि इस लक्ष्य पर टिके रहने का मतलब अधिक चरम और अपरिवर्तनीय जलवायु प्रभावों से बचने का एक बेहतर मौका होगा. वार्मिंग के बहुत उच्च स्तर पर पहुंच जाने पर ऐसी स्थितियों के होने की संभावना है.
योहान रॉकस्ट्रॉएम जर्मनी में पॉट्सडाम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के निदेशक और एक ऐसे रिसर्च पेपर के सह-लेखक हैं, जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने वाले वैश्विक तापमान के प्रभावों की पड़ताल की गई है.
स्टॉकहोम रेजिलिएंस सेंटर के लिए एक वीडियो में बोलते हुए उन्होंने कहा कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा ‘पेरिस समझौते में मनमाने ढंग से तय की कोई संख्या' नहीं है बल्कि यह ऐसी संख्या है जिस पर और आगे कोई समझौता नहीं हो सकता.
वो कहते हैं, "यह एक ऐसा स्तर है जिसे हासिल करने के लिए हमें वास्तव में कोशिश करनी होगी और जितना हो सके, इसे संभव बनाना होगा.”
लेकिन संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 1.5 डिग्री के लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौजूदा वैश्विक उत्सर्जन को घटाकर 2030 तक आधा करने की जरूरत है. इस समय सीमा में सिर्फ सात साल ही रह गए हैं.
1.5 डिग्री सेल्सियस के हम कितने करीब हैं?
साल 1880 के बाद से वैश्विक तापमान प्रति दशक औसतन 0.08 डिग्री सेल्सियस की रफ्तार से बढ़ रहा है. यह दर 1981 में तेज होनी शुरू हुई और तब से यह दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है.
रिकॉर्ड में दर्ज 10 सबसे गर्म वर्ष साल 2010 के बाद के हैं. अब जलवायु वैज्ञानिक भविष्यवाणी कर रहे हैं कि 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष होगा जिसमें वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक समय से 1.43 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा.
यूरोपीय संघ की पृथ्वी अवलोकन इकाई, कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के निदेशक कार्लो बूनटेम्पो कहते हैं कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के साथ एक वर्ष वैज्ञानिकों के लिए उस सीमा के उल्लंघन की घोषणा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, "हमारे आंकड़ों में, हमें इस साल इसके 1.5 डिग्री के पार जाने की उम्मीद नहीं है, लेकिन यदि ऐसा होता भी है, तो यह केवल एक वर्ष के लिए होगा, जबकि पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री सेल्सियस की परिभाषा वर्षों की औसत संख्या के संदर्भ में है.”
1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को लांघने पर क्या होगा?
विश्व मौसम विज्ञान संगठन की एक रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गई है कि अगले पांच वर्षों में वैश्विक तापमान नई ऊंचाई पर पहुंच जाएगा और संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पृथ्वी अगले दशक के भीतर ग्लोबल वार्मिंग के लिए महत्वपूर्ण 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकती है.
कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के निदेशक कार्लो बूनटेम्पो कहते हैं, "असली चर्चा यह है कि क्या हम सदी के अंत में फिर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने में सक्षम हैं? हमारे पास 1.5 डिग्री को संभव बनाने के लिए उपकरण हैं लेकिन इसका मतलब है ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की मात्रा में बहुत ज्यादा कटौती करना.”
साइंस एंड पॉलिसी ऑफ ग्लोबल चेंज पर एमआईटी के साझा कार्यक्रम के डिप्टी डायरेक्टर सर्गेई पाल्टसेव कहते हैं कि 1.5 डिग्री की सीमा पार करने का मतलब यह नहीं होगा कि हर व्यक्ति को तत्काल किसी आपदा का सामना करना होगा. वो कहते हैं, "विज्ञान हमें यह नहीं बताता कि यदि तापमान में 1.51 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो यह निश्चित रूप से दुनिया का अंत होगा.”
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इसका मतलब यह है कि तूफान, लू और सूखे की स्थितियां और ज्यादा गंभीर हो जाएंगी और इन सबका दूरगामी प्रभाव पड़ता है.
तूफान और बाढ़ लोगों के घरों और राज्य के बुनियादी ढांचे के लिए खतरा पैदा करते हैं, जबकि सूखे से पीने के पानी की आपूर्ति के साथ-साथ खाद्य उत्पादन को भी खतरा होता है, जिससे कीमतें बढ़ जाती हैं. लू मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करती हैं, खासकर बुजुर्गों और गरीब लोगों के लिए.
क्या हर जगह समान रूप से प्रभाव पड़ेगा?
तो इसका जवाब है- नहीं. हालांकि विकासशील देश वैश्विक उत्सर्जन में सबसे कम योगदान करते हैं, फिर भी वे जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं. उदाहरण के लिए, पाकिस्तान दुनिया के 1 फीसद से भी कम कार्बन फुटप्रिंट के लिए जिम्मेदार है, फिर भी वो जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से एक है.
पाकिस्तान में फातिमा जिन्ना महिला विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर मुहम्मद मुमताज का शोध कार्य ‘बदलती जलवायु के अनुकूल ढलने' पर केंद्रित है. उनका कहना है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाली देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा वास्तव में प्रभावित हो रहा है.
मुमताज का कहना है, "पाकिस्तान के विभिन्न शहरों में 40 डिग्री से अधिक तापमान दर्ज किया गया है. यहां तक कि एक शहर में तो यह 51 डिग्री सेल्सियस तक चला गया है. इसलिए यह बहुत खतरनाक है.”
यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज में नाइजीरिया स्थित जलवायु नीति विशेषज्ञ आर्चीबोंग अकपन, उच्च स्तर की गरीबी के साथ-साथ लू और चक्रवातों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि ये इस बात का सबूत हैं कि कैसे वैश्विक गर्मी अफ्रीका के खाद्य उत्पादन को प्रभावित कर रही है.
वह कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन पहले ही खाद्य आपूर्ति और फसलों को प्रभावित कर रहा है. मौजूदा प्रभावों में जिस तरह की तेजी दिख रही है, वे आगे चलकर बहुत सारी आजीविका को ही नष्ट कर देगी.”
तो इसके लिए क्या किया जा सकता है?
वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि हम अब और ज्यादा जीवाश्म ईंधन न जलाकर ग्लोबल वार्मिंग की दर को धीमी कर सकते हैं. लेकिन अगर आज सभी मानव उत्सर्जन बंद हो जाएं, तो भी पृथ्वी का तापमान कई दशकों तक बढ़ता ही रहेगा. इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन भविष्य की पीढ़ियों को प्रभावित करता रहेगा.
इसलिए मौसम में होने वाले बदलावों को इस तरह से अपनाना महत्वपूर्ण है जिससे लोग अभी भी अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें.
कई देश, क्षेत्र और शहर लंबे समय से अनुकूलन उपायों पर काम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, नीदरलैंड में, जहां 50 फीसदी से ज्यादा जमीन समुद्र तल से नीचे है, वहां कई शहरों को संभावित बाढ़ से निपटने के लिए रूपांतरित किया जा रहा है. अनुकूलन मॉडल में टिकाऊ आवास, लचीले स्थान और यदि आवश्यक हो तो लोगों को निकालने में मदद करने के लिए एक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली जैसे उपाय शामिल हैं.
केन्या की राजधानी नैरोबी की सबसे बड़ी अनौपचारिक बस्ती मुकुरू के निवासियों ने एक जन अनुकूलन योजना बनाई है जिससे उनके जल प्रबंधन, सड़कों और स्वच्छता में सुधार हुआ. यह योजना अफ्रीका की अन्य बस्तियों और दुनिया भर के विकासशील देशों के लिए एक मॉडल के रूप में भी पेश की जा रही है.
आर्चीबोंग अकपन का कहना है कि कई अफ्रीकी देश अब अनुकूलन को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन ऐसा ‘बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है' क्योंकि ‘जब पैसा न हो तो अनुकूलन' के बारे में बात करना मुश्किल है.
विकासशील देश लंबे समय से उन अमीर देशों से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भरपाई के लिए क्षतिपूर्ति का आह्वान कर रहे हैं जो वार्मिंग उत्सर्जन के लिए असमान रूप से जिम्मेदार हैं. पिछले साल के जलवायु शिखर सम्मेलन में, सदस्य देश सैद्धांतिक रूप से ऐसी पहल पर सहमत हुए थे. हालांकि यह कैसे काम करेगा, यह अभी तक स्थापित नहीं हुआ है.
इस बीच, मुहम्मद मुमताज कहते हैं कि पाकिस्तान सरकार की एक पहल के तहत शहरों से उत्सर्जन को कम करने और अनुकूलन के लिए व्यावहारिक कदम उठाने का आग्रह किया गया है. इस पहल ने लोगों को अनुकूलन के बारे में सोचने में मदद की है और यह कोशिश यह भी दर्शाती है कि आबादी को शिक्षा के साथ-साथ वित्त की भी आवश्यकता है.
वो कहते हैं, "उन्होंने बाढ़ देखी है, उन्होंने गर्म हवाएं देखी हैं, उन्होंने सूखा देखा है, इसलिए इसके आधार पर उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है. लोगों को अब जरूरी शिक्षा की आवश्यकता है और वो भी अपनी भाषा में. जिन लोगों के पास ज्ञान है वे खुद को ढालने और चीजों को अलग तरीके से करने को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं.”