खुशरू कोएचा : साबित कर दिया, अच्छाई धन की मोहताज नहीं
नागपुर शहर में सेंट्रल रेलवे में सुपरिटेंडेंट के पद पर कार्यरत खुशरू न तो किसी गैर सरकारी संगठन से जुड़े हैं और न ही किसी अन्य संगठन से। वह पिछले दो दशक से भी अधिक समय से किसी से भी धन की कोई मदद लिए बिना मानवता की सेवा में जुटे हैं और देने वालों और लेने वालों के बीच का माध्यम बनकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि अच्छा काम करने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती।
देशभर में कोरोना वायरस की दहशत के कारण पिछले कई हफ्तों से सन्नाटा पसरा है। लोग अपने अपने घरों में बंद हैं, लेकिन दिहाड़ी मजदूरों, सड़कों पर रहने वाले बेआसरा लोगों, पटरी, खोमचा और रिक्शावालों के लिए लॉकडाउन का मतलब घरों में बंद होना नहीं बल्कि फाकाकशी है। बीमारी की मार से ज्यादा उन्हें पेट भरने की चिंता सताती है और खुशरू कोएचा ऐसे लोगों को अपनी ‘सेवा किचन’ से खाना मुहैया कराते हैं।
नागपुर शहर में सेंट्रल रेलवे में सुपरिटेंडेंट के पद पर कार्यरत खुशरू न तो किसी गैर सरकारी संगठन से जुड़े हैं और न ही किसी अन्य संगठन से। वह पिछले दो दशक से भी अधिक समय से किसी से भी धन की कोई मदद लिए बिना मानवता की सेवा में जुटे हैं और देने वालों और लेने वालों के बीच का माध्यम बनकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि अच्छा काम करने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती।
गांव देहात से शहर के बड़े अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले मरीजों के तीमारदारों के पास खाने का कोई साधन नहीं होता। खुशरू ऐसे लोगों को पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से खाना मुहैया कराते हैं। देशभर में उनकी 21 ‘सेवा किचन’ हैं, जहां हर दिन तीन लाख जरूरतमंदों को खाना खिलाया जाता है।
वह अपनी वेबसाइट और व्हाट्सएप ग्रुप्स के जरिए दानदाताओं से जरूरी सामग्री जुटाते हैं और खुद को ‘सेवक’ बताने वाले उनके वालंटियर खाने के पैकेट जरूरतमंदों तक पहुंचा देते हैं। कोरोना के प्रकोप के दौरान वह 60 हजार से अधिक लोगों को खाना खिला चुके हैं। ‘सेवा किचन’ की साइट पर सेवा टिफिन, नेकी का पिटारा, जार्स आफ काइंडनेस, पेस्ट ए पोस्टर, मिल्क सेवा और शेयर एक्सेस फूड जैसी विविध श्रेणियां हैं, जिनमें पंजीकरण से जरूरतमंदों की मदद का रास्ता खुल जाता है।
खुशरू बताते हैं कि उन्होंने सोशल मीडिया की ताकत को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करते हुए अपनी सारी पूंजी लगाकर वर्ष 2000 में ब्लडडोनेशनडॉटकाम के नाम से एक वेबसाइट बनवाई। उस समय यह सब भारत में नया था और देश में सर्वर न होने के कारण इस पर खर्च भी बहुत आता था। इसमें धीरे धीरे रक्तदान करने के इच्छुक लोगों ने पंजीकरण कराना शुरू किया और लोगों को इस ब्लड बैंक के बारे में जानकारी देने के लिए खुशरू ने एक अखबार में इश्तहार दिया।
खुशरू के अनुसार तीसरे हफ्ते में पहली बार किसी ने उनके ब्लड बैंक से खून मांगा और अपने परिजन के ठीक होने पर जब वह नम आंखों और रूंधे गले से ‘‘थैंक यू’’ कहकर गया तो खुशरू को अपने काम की अहमियत का अंदाजा हुआ।
खुशरू का कहना है कि एक बार उनसे किसी ने कहा था कि पैसे के बिना अच्छा काम नहीं हो सकता और उन्होंने उसी दिन ठान लिया था कि वह यह साबित करके रहेंगे कि अच्छाई धन की मोहताज नहीं होती। उनकी पत्नी फर्मिन और बेटी ट्यूनिशा भी पूरे उत्साह से जनसेवा के उनके कार्यों में हाथ बंटाती हैं।
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