Electoral Bonds: चुनावी बांड पर न्यायालय का फैसला, अभी लंबी दूरी तय करनी है;पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने कहा

पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) एस. वाई. कुरैशी सहित कई पूर्व निर्वाचन आयुक्तों ने बृहस्पतिवार को कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना को रद्द करने वाला उच्चतम न्यायालय का फैसला ‘लोकतंत्र के लिए एक बड़ा वरदान’ है लेकिन अभी इस मामले में लंबा रास्ता तय करना बाकी है।

Supreme Court | PTI

नयी दिल्ली, 15 फरवरी: पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) एस. वाई. कुरैशी सहित कई पूर्व निर्वाचन आयुक्तों ने बृहस्पतिवार को कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना को रद्द करने वाला उच्चतम न्यायालय का फैसला ‘लोकतंत्र के लिए एक बड़ा वरदान’ है लेकिन अभी इस मामले में लंबा रास्ता तय करना बाकी है. प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय पीठ ने कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना संविधान के तहत प्रदत्त सूचना के अधिकार और भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लंघन करती है.

न्यायालय ने भारतीय स्टेट बैंक को निर्वाचन आयोग को राजनीतिक फंडिंग के लिए छह साल पुरानी योजना में चंदा देने वालों के नामों का खुलासा करने का भी आदेश दिया. जून 2006 से अप्रैल 2009 तक मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे एन गोपालस्वामी ने कहा, ‘‘चुनावी वित्तपोषण व्यवस्था की सफाई के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है.’’ उन्होंने कहा, ‘‘एक प्रणाली जाती है, दूसरी आती है. यह व्यवस्था फिर से नकदी पर लौट जाएगी जो पहले व्याप्त थी.’’

कुरैशी ने ‘पीटीआई-वीडियो’ से कहा, ‘‘इससे लोकतंत्र में लोगों का विश्वास बहाल होगा। यह सबसे बड़ी बात है जो हो सकती थी. यह पिछले पांच-सात वर्षों में उच्चतम न्यायालय से हमें मिला सबसे ऐतिहासिक फैसला है। यह लोकतंत्र के लिए एक बड़ा वरदान है.’’ उन्होंने कहा, ‘‘हम सभी पिछले कई वर्षों से चिंतित थे। लोकतंत्र को चाहने वाला हर कोई इसका विरोध कर रहा था. मैंने खुद कई लेख लिखे, कई बार मीडिया से बात की। और हमने जो भी मुद्दा उठाया, फैसले में उसका निपटारा किया गया है.’’

पूर्व सीईसी ने इस महत्वपूर्ण फैसले के लिए शीर्ष अदालत की सराहना करते हुए सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर एक पोस्ट भी डाला.

उन्होंने लिखा, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनावी बॉण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया। उच्चतम न्यायालय को शुभकामनाएं.’’ पूर्व सीईसी सुनील अरोड़ा ने कहा कि निर्वाचन आयोग का सतत रुख यह रहा है कि प्रणाली ‘अधिक पारदर्शी’ होनी चाहिए. सरकार द्वारा दो जनवरी, 2018 को अधिसूचित इस योजना को राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत दलों को दिए जाने वाले नकद चंदे के विकल्प के रूप में पेश किया गया था.

कुरैशी ने कहा कि यह सुनिश्चित करना ठीक है कि चंदा बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से हो, लेकिन ‘हमारा तर्क यह था कि किसी राजनीतिक दल को दिए गए चंदे को गुप्त क्यों रखा जाना चाहिए?’ उन्होंने कहा, ‘‘दाता गोपनीयता चाहता है, लेकिन जनता पारदर्शिता चाहती है. अब दानकर्ता को गोपनीयता क्यों चाहिए? क्योंकि वे बदले में मिलने वाले लाभ, लाइसेंस, अनुबंध और यहां तक कि उस बैंक ऋण को भी छिपाना चाहते हैं, जिसे मिलने के बाद वे विदेश भाग जाते हैं. क्या इसीलिए वे गोपनीयता चाहते थे?’’

उन्होंने कहा, ‘‘और सरकार दानदाताओं की गोपनीयता बनाये रखने की कोशिश कर रही थी. वही दानकर्ता, जो 70 वर्षों से चंदा दे रहे हैं. अचानक गोपनीयता की जरूरत (क्यों) पड़ने लगी. तो अब उसे ख़त्म कर दिया गया है. मुझे लगता है कि यह हमारे लोकतंत्र को एक बार फिर स्वस्थ बनाएगा.’’ उन्होंने कहा कि यह भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छी बात हो सकती है. कुरैशी ने कहा, ‘‘तथ्य यह है कि अदालत ने आदेश दिया है कि पिछले दो-तीन वर्षों में प्राप्त सभी चंदा वापस कर दिया जाएगा और उनका खुलासा राष्ट्र के सामने किया जाएगा.

इससे हमें यह जानने में मदद मिलेगी कि क्या बदले में कुछ हुआ था, क्या वहां कोई दानदाता था, जिस पर संदिग्ध दबाव रहे हों। इस फैसले से बहुत सी चीजें सामने आएंगी. एक शब्द में, यह एक 'ऐतिहासिक' फैसला है.’’ यह पूछे जाने पर कि इसका आगामी आम चुनावों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उन्होंने कहा कि इसका ‘‘पर्याप्त रूप से प्रभाव पड़ेगा, लेकिन पूरी तरह नहीं.’’ उन्होंने कहा, ‘‘क्योंकि यदि राजनीतिक दलों को अतीत में वित्त पोषित किया गया है. उन्हें भविष्य में भी वित्त पोषित किया जाता रहेगा, लेकिन वित्त पोषण के इस अपारदर्शी तरीके को हटा दिया गया है और यह इसका सबसे अच्छा हिस्सा है.’’

उन्होंने कहा कि उन्होंने हमेशा पारदर्शिता की मांग की है. उन्होंने कहा, ‘‘लोगों को राजनीतिक दलों को चंदा देने दीजिए. वे 70 साल से चंदा दे रहे हैं, कोई समस्या नहीं है. अगर आपने विपक्षी दलों को चंदा दिया तो भी कोई प्रतिशोध नहीं हुआ. किसी ने कोई प्रतिशोधात्मक कार्रवाई नहीं की है.’’ कुरैशी ने कहा, ‘‘कॉर्पोरेट एक ही चुनाव में लड़ने वाली सभी दलों को चंदा देते रहे हैं. जो प्रणाली 70 वर्षों से सही काम कर रही थी, उसमें एकमात्र चीज यह थी कि 60-70 प्रतिशत चंदा नकद में दिया जाता था, जो चिंता का विषय था.’’

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