पितृपक्ष-2019: क्या है श्राद्ध! जानें पहली बार किसने किया था श्राद्ध और क्या है पितृपक्ष की पौराणिक कथा!
एक बार पितृपक्ष के अवसर पर जोगे की पत्नी ने पति से पितरों का श्राद्ध एवं तर्पण करने के लिए कहा तो पति ने इसे व्यर्थ का कार्य बताकर टालमटोल करना चाहा. पत्नी ने उसे टोकते हुए कहा कि अगर ऐसा नहीं करेंगे तो लोग तरह-तरह की बात करेंगे.
सनातन धर्म में तीन तरह के ऋणों का उल्लेख मिलता है. पहला देवऋण, दूसरा गुरूऋण और तीसरा पितृऋण, इसमें सबसे महत्वपूर्ण ऋण होता है पितृऋण. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार पितृऋण से उऋण होने के लिए दिवंगत पिता का श्राद्ध कर्म ही एकमात्र उपाय है. श्राद्ध कर्म के संदर्भ में बताया जाता है कि से मुक्ति के लिए मृत्यु के देवता यमराज दिवंगतों को एक पखवारे के लिए पृथ्वी पर भेजते हैं, ताकि वे अपनों का पिण्डदान एवं तर्पण (भोजन एवं जल) ग्रहण कर सकें. वरुण पुराण में अंकित है कि पितर ही अपने कुल की रक्षा करते है.
श्राद्ध की परंपरा कब और किन हालातों में शुरू हुई? पहली बार किसने श्राद्ध किया? इस संबंध में विद्वानों में तमाम भ्रांतियां है. लेकिन माना जाता है कि महाभारत काल में श्राद्ध का उल्लेख कुछ पौराणिक पुस्तकों में देखने को मिलता है. महाभारत के अनुसार सबसे पहले श्राद्ध के संदर्भ में महर्षि निमि ने अत्रि मुनि को बताया था. इस तरह कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड में पहला श्राद्ध निमि ने किया. उसके बाद ऋषि-मुनियों में भी श्राद्ध का प्रचलन शुरू हुआ. धीरे-धीरे यह हिंदू समाज के हर वर्ग मनाया जाने लगा.
ऐसा भी कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में दोनों पक्षों के लोग काफी तादाद में मारे गये थे. तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के कहने पर सभी मारे गये सैनिकों व वीरों का श्राद्ध किया. वहीं वरुण पुराण में इस संदर्भ में उल्लेख है कि भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता का श्राद्ध का किया था. वाल्मीकी रामायण में भी इस बात का स्पष्ठ उल्लेख है.
पितृपक्ष से संबंधित पौराणिक कथा
प्राचीनकाल में जोगे और भोगे नामक दो भाई थे. जोगे काफी धनी था, जबकि भोगे निर्धन था. दोनों एक साथ रहते थे और एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. धनी होने के कारण जोगे की पत्नी काफी घमंडी थी, जबकि भोगे की पत्नी सहज एवं सरल औरत थी.
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एक बार पितृपक्ष के अवसर पर जोगे की पत्नी ने पति से पितरों का श्राद्ध एवं तर्पण करने के लिए कहा तो पति ने इसे व्यर्थ का कार्य बताकर टालमटोल करना चाहा. पत्नी ने उसे टोकते हुए कहा कि अगर ऐसा नहीं करेंगे तो लोग तरह-तरह की बात करेंगे. हांलाकि वह यह भी सोच रही थी कि यही अवसर था, जब मायके वालों को बुलाकर वह अपनी शान दिखाए. जोगे की पत्नी ने जोगे से कहा, आप मुझे लेकर परेशान न हों, मैं भोगे की पत्नी को बुलाकर मदद ले लूंगी. बस वह उसके मायके जाकर सबको लिवा लाए.
जोगे की पत्नी के बुलाने पर भोगे की पत्नी आई और उसकी रसोई का कार्य निपटाकर अपने घर आ गयी. उसे भी पितरों का श्राद्ध करना था. दोपहर के समय जोगे-भोगे के पितर जब जोगे के घर पहुंचे, तो देखा वहां उसके ससुराल वाले भोजन कर रहे हैं. निराश होकर वे भोगे के यहां पहुंचे. लेकिन भोगे के घर पर उन्हें केवल अगियारी मिली, वे उसकी ही राख चाटी और भूखे नदी तट पर पहुंचे.
थोड़ी देर में वहां और भी बहुत सारे पितर एकत्र हो गये. सभी अपनी-अपनी कहानी सुनाने लगे. जोगे-भोगे के पितरों ने सोचा कि अगर भोगे समर्थ होता तो वह उनकी अच्छी खातिरदारी करता. उन्हें भोगे पर दया आयी. वे नदी तट पर नाचने गाने लगे कि भोगे के घर पर खूब धन हो जाए. शाम हुई मगर भोगे के घर के बच्चों को कुछ भी खाने को नहीं मिला. उन्होंने मां से कहा कि उन्हें भूख लगी है, माँ ने टालने के लिए कह दिया जाओ, आंगन में हौदी उल्टी रखी है, उसे सीधा करो, जो मिले बांटकर खा लेना.
बच्चों ने मां के कहे अनुसार किया, लेकिन वे यह देख हैरान रह गये कि हौदी में स्वर्ण के सिक्के भरे हुए हैं. वे मां के पास पहुंचे और सारी बातें बताई. माँ भी स्वर्ण सिक्के देखकर हैरान रह गई. इसके बाद भोगे भी धनवान हो गया, लेकिन धनवान होने का घमण्ड उसमें नहीं आया. अगले वर्ष फिर पितृपक्ष आया तो भोगे ने पितरों के लिए छप्पन किस्म के व्यंजन बनाकर परोसे और ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन कराया और दक्षिणा देकर खुशी-खुशी उनकी विदाई की. भोगे की पत्नी ने जोगे के परिवार को बुलाकर सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया, इससे पितर बहुत प्रसन्न हुए और पूरी तरह से तृप्त होकर यमलोक लौट गये.