सरकार की उदासीनता से बढ़ते कोयला खदानों में हादसे
असम के दिमा हसाओ जिले की अवैध कोयला खदान में अचानक पानी भरने से नौ मजदूरों के फंसने की घटना ने इस काले कारोबार को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है.
असम के दिमा हसाओ जिले की अवैध कोयला खदान में अचानक पानी भरने से नौ मजदूरों के फंसने की घटना ने इस काले कारोबार को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है. उनमें से तीन की मौत भी हो चुकी है.कोयले की अवैध खदानों से कोयला निकालने और उनमें हादसों का सिलसिला बना हुआ है. वह भी तब जब भारत के नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने ऐसी अवैध खुदाई पर वर्ष 2014 में ही पाबंदी लगा दी थी. उसके बाद वर्ष 2015 में भी इसे बरकरार रखा गया. हालांकि मेघालय के साथ ही असम और नागालैंड में स्थानीय प्रशासन और अवैध कोयला कारोबारियों की मिलीभगत से यह धंधा धड़ल्ले से जारी है.
किसी हादसे की स्थिति में कुछ दिनों तक इस मुद्दे पर सरगर्मी रहती है. उसके बाद पिर सब कुछ जस का तस हो जाता है. पर्यावरणविदों का आरोप है कि राज्य सरकार की उदासीनता के कारण ही अब तक कोयले की इस काली कमाई पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई जा सकी है. इन अवैध खदानों में शामिल मजदूर भी स्थानीय नहीं बल्कि बाहरी होते हैं.
असम की खदान में 9 मजदूर फंसे
असम के दिमा हसाओ के उमरांगसो इलाके में सोमवार को ऐसी ही एक अवैध खदान में अचानक पानी भर जाने की वजह से नौ मजदूर भीतर फंस गए हैं. इनमें से एक नेपाल का है तो एक पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले का. बाकी सात लोग भी राज्य के दूसरे जिलों से रोजी-रोटी के लिए यहां आए थे.
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हादसे वाली जगह जिला मुख्यालय हाफलांग से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर काफी दुर्गम इलाके में है. इसी वजह से सुबह करीब सात बजे हुए हादसे के बाद पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को मौके पर पहुंचने में 12 घंटे से ज्यादा का समय लग गया.
पुलिस अधीक्षक मयंक कुमार ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "हादसे की वजह साफ नहीं है. लेकिन स्थानीय लोगों से मिली सूचना के आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि खुदाई के दौरान दीवार में छेद हो जाने की वजह से खदान में अचानक पानी भर गया. राहत और बचाव कार्य में सेना की मदद ली जा रही है और विशाखापत्तनम से नौसेना के गोताखोर भी बुलाए गए हैं."
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मेघालय की सीमा के नजदीक स्थित दिमा हसाओ जिले में कोयले, चूना पत्थर और ग्रेनाइट की अनगिनत खदानें हैं. उस इलाके को खनिजों के भंडार के तौर पर जाना जाता है. इस इलाके में अवैध तौर पर खुदाई भी बड़े पैमाने पर चलती है. यह काफी मुनाफे का सौदा है. ऐसी खदानों में सुरक्षा का इंतजाम नहीं होने के कारण अक्सर हादसे होते रहते हैं.
अवैध खदानों में अकसर होते हैं हादसे
वैसे, पूर्वोत्तर भारत में कोयला खदान में होने वाला यह कोई पहला हादसा नहीं हैं. लंबे समय तक एक खनन कंपनी में काम कर चुके नीरेन कुमार गांगुली बताते हैं, "अक्सर छोटे-बड़े हादसे होते रहते हैं. दरअसल, सरकार और स्थानीय प्रशासन इसे रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाता. कुछ दिनों तक यह मुद्दा सुर्खियों में रहता है. उसके बाद दोबारा ऐसी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं."
पूर्वोत्तर में होने वाले हादसे उनकी बात की पुष्टि करते हैं. बीते साल जनवरी में नागालैंड के वोखा जिले की एक खदान में हुए हादसे में छह मजदूरों की मौत हो गई थी और चार घायल हो गए थे. उसी साल मई में असम के तिनसुकिया जिले की एक खदान में मिट्टी धंसने की वजह से तीन मजदूरों की मौत हो गई थी. सितंबर 2022 में तिनसुकिया जिले की ही एक अवैध खदान में जहरीली गैस के रिसाव के कारण तीन मजदूरों की मौत हुई थी.
13 दिसंबर, 2018 को मेघालय में एक ऐसी ही खदान में हुए हादसे में 15 मजदूरों की मौत हो गई थी. उस मामले ने देश-विदेश में काफी सुर्खियां बटोरी थी. एनजीटी की पाबंदी के बावजूद होने वाले ऐसे हादसों से साफ है कि ठेकेदारों, ट्रांसपोर्टरों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से यह कारोबार धड़ल्ले से जारी है.
पूर्वोत्तर इलाके में ऐसी खुदाई को 'रैट होल माइनिंग' कहा जाता है. इसका मतलब है ऐसी छेद से जमीन के भीतर जाकर खुदाई करना जिससे चूहे जैसे छोटा जीव ही गुजर सके. इस तरीके में खर्च कम है और मुनाफा ज्यादा. इसलिए अवैध कारोबारियों में इसका काफी प्रचलन है. इसमें एक पतले छेद से छोटी-सी ड्रिल मशीन के जरिए खुदाई करते हुए मलबा हाथों से बाहर निकाला जाता है. उसके बाद उसके जरिए एक-एक कर मजदूर नीचे उतरते और आगे बढ़ते रहते हैं. कई बार वो लोग जमीन से तीन से चार सौ फीट तक नीचे चले जाते हैं. उनको अक्सर पानी के स्त्रोत की जानकारी नहीं होती. ऐसे में एक मामूली गलती भी जानलेवा बन जाती है.
पर्यावरण के लिए नकसानदेह, इंसान के लिए जानलेवा
विशेषज्ञों का कहना है कि यह तरीका मजदूरों के लिए तो खतरनाक है ही, इससे पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचता है. पर्यावरणविद मोहन बरपुजारी डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह तरीका काफी अवैज्ञानिक है. इसमें हमेशा हादसे का खतरा बना रहता है. ऐसे हादसों की स्थिति में जिम्मेदारी से बचने के लिए ही इन खदानों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर दूर-दराज के इलाकों से बुलाए जाते हैं."
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने वर्ष 2014 में रैट होल माइनिंग पर पाबंदी लगा दी थी. प्राधिकरण ने कहा था कि राहत और बचाव के लिए ही इसका सहारा लिया जा सकता है, खुदाई के लिए नहीं.
हालांकि तमाम खतरों के बावजूद पूर्वोत्तर में आखिर रैट होल माइनिंग इतना प्रचलित क्यों है? विशेषज्ञों का कहना है कि इन इलाको में जमीन के नीचे कोयले की परत काफी पतली है. इसलिए रैट होल माइनिंग तकनीक काफी मुफीद है. इसमें खर्च भी नहीं के बराबर है.
पर्यावरणविद मोहन बरपुजारी बताते हैं, "खुदाई की यह तकनीक असुरक्षित तो है ही, पर्यावरण के लिए भी बेहद नुकसानदेह है. इससे निकलने वाले कोयले को सड़क पर खुले में रखा जाता है. उनके भंडारण और खुले ट्रकों में ढुलाई से प्रदूषण फैलता है. मेघालय में इसी वजह से कुछ साल पहले कोपिलि नदी का पानी अम्लीय हो गया था. ऐसी खदानें वायु, जल और मिट्टी के प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह बन गई है. इसके अलावा बारिश के सीजन में ऐसी खुली खदानों में पानी भरने के कारण हमेशा हादसे का खतरा बना रहता है."