देश की खबरें | अनुसूचित जाति के भूमि आवंटियों के वारिसों को 50 साल बाद मिलेगा जमीन का कब्जा

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बेंगलुरु, 18 मई कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम के तहत 1972 में चार-चार एकड़ जमीन पाने वाले अनुसूचित जाति के पांच लोगों के वारिस आखिरकार 50 साल बाद संपत्ति का सुख ले सकेंगे।

इन अनुसूचित जाति के लोगों के तहत किरायेदार होने का दावा करने वाले दो “संपन्न व्यक्तियों” ने किसी तरह समूचे 20 एकड़ पर अधिभोग अधिकार प्राप्त कर लिया था। 50 साल बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उपायुक्त को निर्देश दिया है कि जमीन के मूल आवंटियों – मुनिथिम्मा, वरदा, मुनिस्वामी, मुनिस्वामप्पा और चिक्कागुल्लोनु- के वारिसों को तीन महीने के अंदर जमीन पर कब्जा दिलाएं।

पांच दशकों तक अनुदान प्राप्तकर्ता और उनके कानूनी उत्तराधिकारियों ने भूमि न्यायाधिकरण और अन्य अधिकारियों के समक्ष यह मामला लड़ा था।

न्यायमूर्ति आर देवसास ने अपने हालिया फैसले में कहा, “इस तरह के मामले इस बात की भी कड़वी सच्चाई पेश करते हैं कि कैसे गरीब, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है, उन्हें कानूनी उलझनों में और उलझा दिया जाता है। ऐसे व्यक्तियों को कठिन सवालों के जवाब देने को कहा जाता है जैसे – अधिकारियों/उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय से संपर्क करने में देरी क्यों हुई।”

कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम के तहत उपायुक्त द्वारा 1972 में देवनहल्ली के विश्वनाथपुरा गांव में मुनिथिम्मा, वरदा, मुनिस्वामी, मुनिस्वामप्पा और चिक्कागुल्लोनु को चार-चार एकड़ जमीन दी गई थी।

दो व्यक्तियों - बायरप्पा और पिल्लप्पा - ने 1976 में दावा किया कि वे पांच मूल अनुसूचित जाति अनुदानकर्ताओं के तहत किरायेदार थे और पूरे 20 एकड़ के लिए अधिभोग अधिकार की मांग की।

भूमि न्यायाधिकरण ने 1980 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया। इस आदेश को हालांकि उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया और मामला वापस न्यायाधिकरण को भेज दिया गया।

भूमि न्यायाधिकरण ने 1993 में एक अन्य आदेश में एक बार फिर दावेदारों के अधिभोग अधिकारों के पक्ष में फैसला सुनाया। इस आदेश को हाईकोर्ट में दी गई चुनौती 1997 में खारिज कर दी गई थी।

मूल अनुसूचित जाति अनुदान प्राप्तकर्ताओं के उत्तराधिकारियों ने कर्नाटक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (भूमि के हस्तांतरण का निषेध) अधिनियम के तहत सहायक आयुक्त से संपर्क किया। लेकिन उनका दावा खारिज कर दिया गया। उपायुक्त के समक्ष भी उनकी एक अपील खारिज कर दी गई।

मूल अनुदानकर्ताओं के उत्तराधिकारियों ने इसके बाद 2014 में फिर से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

अपने हालिया फैसले में अदालत ने कहा, “यह मामला दर्शाता है कि कैसे दलित वर्गों से संबंधित व्यक्तियों के पक्ष में संप्रभु शक्ति द्वारा दिए गए अनुदान पर अमीर और प्रभावशाली लोगों द्वारा कब्जा कर लिया जा रहा है।”

भूमि न्यायाधिकरण, सहायक आयुक्त और उपायुक्त के आदेशों को रद्द करते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा, “समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि कानून और प्रक्रियाएं गरीब याचिकाकर्ता के वैध अधिकारों से वंचित करने के लिए संपन्न लोगों का साधन नहीं बननी चाहिए।”

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